चीन:सामान्य रिश्ते नही हो सकते Tension on Border

एक विचार प्रेरक लेख में चीन और पाकिस्तान मे हमारे पूर्व राजदूत गौतम बाम्बावाले ने चीन के ‘कूटनीति खेल’ के बारे लिखा है, “ज़मीन पर सैनिक तौर पर योजना के अनुसार बहुत कुछ हासिल करने के बाद चीन इस स्थिति को स्थाई बनाना चाहता है…इसी के साथ वह भरसक प्रयास करेगा कि बाक़ी भारत -चीन रिश्ता… व्यापार, लोगों के आपसी सम्बन्ध, और बहुपक्षीय मामलों में ‘ बिसनेस एज़ यूज़वल’ अर्थात हमेशा की तरह चलते रहे…अगर ऐसा होता है तो यह वास्तव में चीन की जीत होगी”। पूर्व राजदूत सावधान कर रहें हैं कि अब  चीन चाहता है कि अपने आत्म सम्मान को एक तरफ़ रख हम  समझौता कर लें और बाक़ी रिश्ते, विशेष तौर पर आर्थिक रिश्तों में कोई रूकावट न डाली जाए।

भारत और चीन के बीच कई दौर की बातचीत बेनतीजा रही है क्योंकि चीन पीछे हटने को तैयार नही है। भारत में चीन के राजदूत सुन विडोंग का कहना है कि सीमा पर डिसऐंगेजमैंट पूरी हो चुकी है और दोनों देशों को प्रतिद्वंद्वी नही, सांझेदार बनना चाहिए और रिश्तों में टकराव नही शान्ति चाहिए। अर्थात उनके राजदूत बता रहें हैं कि उन्होंने जो प्राप्त करना था वह कर लिया है अब आगे बढ़ें।  कि भारत को यह ‘गेम’ स्वीकार नही यह चीफ़ आफ डिफैंस स्टाफ़ जनरल विपिन रावत ने स्पष्ट कर दिया कि अगर वार्ता विफल रहती है तो भारत सैनिक विकल्प पर विचार कर सकता है।  यह भी संदेश है कि जब तक चीन लद्दाख में पहले वाली स्थिति में नही लौटता तब तक ‘बिज़नेस एज़ यूज़वल’ नही हो सकता और भारत के पास भी प्रतिकार का विकल्प है। विदेश मंत्री जयशंकर ने भी कहा है कि लद्दाख मे 1962 के बाद सबसे गम्भीर स्थिति बनी हुई है और 45 वर्षों के बाद इस सीमा पर भारतीय जवान शहीद हुए हैं। जयशंकर के बयान से दो बातें निकलती हैं, कि सीमा पर स्थिति ‘गम्भीर’ है और भारत अपने 20 सैनिकों की शहादत भूलने को तैयार नही।

चीन के प्रसिद्ध युद्धनीतिज्ञ सुन ज़ू ने लिखा था, ‘युद्ध की सर्वोच्च क्रिया दुष्मन को बिना लड़े अधीन करना है’। लद्दाख में डेपसांग, गलवान, हॉट स्परिंगस, पैंगोंग सो में अतिक्रमण कर चीन ऐसा ही करने की कोशिश कर रहा है। गलवान में उसका खेल ख़राब हो गया क्योंकि हमारे सैनिकों ने प्रतिरोध किया। चीन का भी वहाँ भारी जानी नुक़सान हुआ जो वह बताने को तैयार नही पर प्रयास है कि भारत की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर जिसे Fait Accompli कहा जाता है,अर्थात जो तय हो चुका है, प्रस्तुत किया जाए। दक्षिण चीन सागर में भी उसने यही दो कदम आगे एक क़दम पीछे की नीति अपनाई है। केवल इस बार भारत ने स्पष्ट संकेत दे दिया है कि हम इसे स्वीकार नही कर रहे। रूस मे अस्त्राखान में होने वाले रूस-भारत-चीन-पाकिस्तान सैनिक अभ्यास से बाहर निकल कर भी भारत यही संदेश दे रहा है कि वह उस देश के साथ दोस्ताना सम्बन्धों के लिए तैयार नही जो हमारी ज़मीन पर आ बैठा है।

अगर भारत चीन की शरारत को चुपचाप स्वीकार कर लेता है तो दुनिया को बहुत ग़लत संदेश जाएगा कि भारत एक काग़ज़ी शेर है जो चीन के दबाव के आगे झुक गया है और इनमें अपनी सीमा की हिफ़ाज़त का दम नही है। इससे हमारी अंतराष्ट्रीय छवि का अवमूल्यन होगा और चीन के बाक़ी पड़ोसी भी समझने लगेंगे कि अगर भारत झुक गया तो हम किस बाग़ की मूली हैं। इससे एशिया मे चीन सुप्रीम, उत्पाती और दबंग हो जाएगा  पहले ही उसे सम्भालना मुश्किल हो रहा है। विशेष तौर पर अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम के लिए ख़तरा बढ़ सकता था। इसीलिए भारत अपनी बर्दाश्त की सीमा स्पष्ट कर रहा है।

भारत बदला है, चीन ने हमें मजबूर कर दिया। न लोग झुकने को तैयार हैं न सरकार न सेना। देश के अन्दर चीन विरोधी लहर बह रही है। ख़रीदने से पहले लोग पूछते हैं कि यह चीनी माल तो नही? दुनिया की नज़रें भी हम पर लगीं हैं। अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की वरिष्ठ निदेशक लीज़ा कर्टिस ने लिखा है कि हिन्द-प्रशांत महासागर क्षेत्र के बाक़ी देश, “बहुत ध्यान से यह देख रहें हैं..और भारत के दृढ़ संकल्प से प्रेरित हैं…सीमा पर जो दबाव डाला गया है से भारत के चीन के प्रति नज़रिए पर दीर्घकालीन असर होगा और दोनों के बीच रिश्तों को बदल देगा”। और यह रिश्ते बदल रहें हैं। हमारी सरकार तथा सेना कठोर संकल्प दिखा रहे है कि चीन को  मई वाली स्थिति में लौटना होगा। भारत ने 59 चीनी एप्स पर पाबन्दी लगा संदेश दिया है कि हमारा बाज़ार तुम्हारे लिए खुला नही है।

प्रधानमंत्री मोदी भी जानते है कि चीन के प्रति कमज़ोरी उनकी छवि के लिए घातक होगी। उन्होंने तथा उनकी पार्टी ने आजतक नेहरू को 1962 के लिए माफ़ नही किया वह ख़ुद वैसी कमजोरी नही दिखा सकते। उन्होंने शी ज़िनपिंग के साथ दोस्ताना सम्बन्ध बनाने मे बहुत निवेश किया है इसीलिए कांग्रेस सवाल पूछती रहती है। 1988 में अपनी चीन यात्रा के बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी समझा था कि रिश्ते सुधर गए लेकिन 32 वर्ष के बाद फिर हम वहीं पहुच गए क्योंकि चीन की प्यास तृप्त होने वाली नही। चीन की अर्थव्यवस्था हमसे तीन गुना से अधिक बढ़ी है और सैनिक बजट पाँच गुना है इसी लिए दबंग है पर हम कमज़ोर नही हैं हम बराबर मुक़ाबला करने को तैयार हैं जिसका ट्रेलर अभी चीन को दिखाया गया है।

हमें चीन के प्रति अपनी सारी नीति बदलनी है। मज़बूत सैनिक, कूटनीतिक और आर्थिक क़दम उठाने है। उन्हें स्पष्ट होना चाहिए कि भारत की सद्भावना खोने की कीमत अदा करनी पड़ेगी पर जब तक यह कीमत चीन के अतिक्रमण से अधिक वज़नदार नही होती चीन बाज़ नही आएगा। चीन का भारत को निर्यात 5 अरब डालर है और जुलाई में यह बढ़ा है। यह असंतुलन ख़त्म होना चाहिए। मोदी सरकार के छ: वर्षों मे चीन के साथ व्यापार कई गुना बढ़ा है। लगभग हर आर्थिक क्षेत्र में चीन मौजूद है। इस से जहाँ चीन को हमारी अर्थ व्यवस्था में घुसपैंठ का मौक़ा मिल गया वहाँ अपना हमारा लघु उद्योग सस्ती चीनी चीज़ों के कारण कुचला गया। अब झटके के साथ सरकार की नींद खुल रही है।

प्रधानमंत्री अब कह रहें है कि भारत खिलौने बनाने वाला हब बन सकता है पर ऐसा तो बहुत पहले होना चाहिए था। खिलौना बनाना तो हमारी संस्कृति से जुड़ा है। टैलिकॉम, फार्मा, पावर, रेलवे जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों से चीन को बिलकुल बाहर निकालना चाहिए। ‘वोकल फ़ॉर लोकल’ केवल जुमला ही न रह जाएइसका ‘ मेक इन इंडिया’ वाला हश्र नही होना चाहिए। विशेष तौर पर चीनी कम्पनी हुआवेई को 5G के क्षेत्र से बाहर कर दुनिया को स्पष्ट संकेत देना है। यह कम्पनी पहले ही अमेरिका कैनेडा और योरूप में  विवादों में घिरी हुई है भारत का कदम बडा धकका हो सकता है। और बहुत जरूरी है कि भारत और चीन के आर्थिक रिश्ते असम्बदध किए जाएँ। यह आसान काम नही होगा पर हमारे सामने और विकल्प नही है। अमेरिका भी यही कर रहा है और लगभग हर देश चीन पर निर्भरता को कम करने मे लगा है। जब तक चीन को आर्थिक चोट नही पहुँचती और वही बेरोज़गारी नही बढ़ती शी ज़िनपिंग को अकल नही आएगी। हमें टैकनालिजी और रिसर्च में अधिक निवेश करना और अपनी अर्थव्यवस्था को सुधारना है और  चीन के साथ ताक़त का  फ़ासला कम करना है। चीन भी हिम्मत न करता अगर दोनों बराबर होते। हमे 8-10 प्रतिशत विकास दर चाहिए अगर हमने सामने खड़े होना है जबकि इस वक़्त बुरी नकारात्मक विकास दर है।

सीमा पर न युद्ध न शान्ति का माहौल है। हमारी सरकार फटेहाल पाकिस्तान पर केन्द्रित है जबकि असली चुनौती चीन से है। पैंगोंग क्षेत्र के नए इलाक़े पर क़ब्ज़ा करने का नया प्रयास बताता है कि चीन दबाव बढ़ा रहा है। अभी तक हमने जो बदले के क़दम उठाए है वह प्रभावी नही रहे। 2014 मे विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा था कि अगर चीन चाहता है कि भारत एक-चीन की नीति अपनाए तो चीन को एक-भारत नीति अपनानी होगी। चीन तो हर मंच से कश्मीर का मुद्दा उठा रहा है पर हम अभी तक तिब्बत , तायवान और हांगकांग में चीन की ज़्यादतियों के बारे ख़ामोश हैं। मोदी सरकार के आने के बाद कोई भी बड़ा अधिकारी दलाई लामा से नही मिला। न ही हमने उईगर मुसलमानों के उत्पीड़न का मसला उठाया और न ही चीन में उत्पन्न वायरस को लेकर आलोचना की। इस ख़ामोशी पर पुनर्विचार का समय आ गया है।

चीन के साथ रिश्ते टूट रहें हैं। 29-30 अगस्त को चीन ने नया मोर्चा खोलते हुए पैंगोंग झील के दक्षिणी किनारे पर अतिक्रमण करने का प्रयास किया था जिसका माक़ूल जवाब दे दिया गया है। तिब्बती सैनिकों की विशेष रेजिमेंट एसएफएफ ने उन महत्वपूर्ण चोटियों पर क़ब्ज़ा कर लिया है जिन पर चीन का दावा है। काफ़ी बढ़ा झटका दिया गया है। अब चीन शिकायत कर रहा है। आगे और तनाव हो सकता है। यह भी समझ लेना चाहिए कि वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) अप्रासंगिक हो चुकी है। चीन ने इसे और आपसी समझौतों की पवित्रता ख़त्म कर दी है। सर्दियों में भी वहाँ अतिरिक्त सैनिक तैनात करना होंगे। दोनों देशों के बीच सीमा और आर्थिक क्षेत्र में लम्बी दुष्मनी चलने के आसार है। तनाव टकराव में बदल सकता है। हमारे संकल्प की परीक्षा है पर हमे निश्चित करना है कि उनके लिए भी परिणाम महेंगे और कष्टप्रद रहें।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.