चारों तरफ़ बेबसी का माहौल है। भविष्य के प्रति अनिश्चितता है। शिखिर पर सन्नाटा है। पहले जीने के लिए अस्पतालों के आगे क़तार लगती थी, अब मरने के बाद शमशानघाट के आगे क़तार लग रही है। भारी चिन्ता है कि ग्रामीण क्षेत्र, विशेषतौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार, जो पहली लहर में बचे रहे थे वह अब प्रभावित हो रहें हैं। गाँव वाले खाँसी बुखार की बात कर रहें हैं, असलियत क्या है कोई जानता नही क्योंकि अधिकतर गाँवों में अंगरेज़ो के समय की हैल्थ व्यवस्था है। विदेशों से एनआरआई और सरकारें सहायता भेज रहीं हैं लेकिन बाबू मानसिकता यहां भी अड़चन डाल रही है। ग़ुस्से से भरे एक एनआरआई सज्जन ने शिकायत की है कि बाहर से भेजे सिलेंडर की जो खेप 25 मई को दिल्ली हवाई अड्डे पर पहुँची थी वह सात दिन वहां पड़ी रही। 2 मई को उसका एसओपी बनाया गया कि इसका करना क्या है? इस एक सप्ताह में दिल्ली में कितने लोग आक्सिजन के लिए तड़प रहे थे? ऐसी कितनी शिकायतें हैं? यह उस असंवेदनशील और अक्खड़ बाबू मानसिकता का एक और प्रमाण है जो भी वर्तमान हालत के लिए ज़िम्मेदार है। हैरानी नही कि अभूतपूर्व क़दम उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आक्सिजन के वितरण के लिए कार्य बल का गठन कर दिया है।अदालत तब ऐसी दखल करती है जब सरकार फेल हो जाती है।सुब्रमण्यम स्वामी का कहना है कि एक लोकतन्त्र में यह सरकार के ख़िलाफ़ वोट है।
इस बीच सरकार के वैज्ञानिक सलाहकार के विजय राघवन ने बताया है कि जरूरी नही कि कोरोना की तीसरी लहर आए। अगर हम सख़्त क़दम उठाएँ तो इस से बचा जा सकता है। इसी सज्जन ने दो दिन पहले कहा था कि ‘तीसरी लहर अवशयंभावी है’। और यह वही सज्जन है जिन्होंने दूसरी लहर के बारे नही बताया था पर तीसरी लहर के बारे कह रहें हैं। लगता है कि यह कथित विशेषज्ञ भी उसी तरह कंफयूस्ड है जैसे आप और मैं ! इसलिए इस स्थिति के बारे कहा जा सकता है,
किस रहनुमा से पूछिए मंज़िल का कुछ पता
हम जिनसे पूछतें हैं उन्हे ख़ुद पता नही
हमारा तमाशा कैसे बन रहा है यह हैल्थ मिनिस्टर हर्ष वर्धन के इस सुझाव से पता चलता है कि तंदरुस्त रहने के लिए ’70 % कोकों युक्त डार्क चॉकलेट थोड़ा लेना चाहिए’। यहाँ लोगों को दवा और रोटी नही मिल रहे और मंत्रीजी महँगे डार्क चॉकलेट लेने की बात कररहें हैं। शुक्र है उन्होंने फ़्रांस की पूर्वमहारानी की तरह केक खाने को नही कहा ! सरकारी आँकड़े भी संदिग्ध है। लगता है कि इन पर भी उसी तरह पर्दा डाला जा रहा है जैसे लखनऊ के शमशानघाटों को चारों तरफ़ बोर्ड लगा कर ढक दिया गया है पर गंगा में बहती दर्जनों लाशें हक़ीक़त बयान कर रहीं हैं। ऐसा तो प्राचीन काल में अकाल के समय होता था। और क्या हैल्थ मिनिस्टर बताने का कष्ट करेंगे कि दुनिया में सबसे अधिक दवा बनाने वाले देश में टीकाकरण अभियान लड़खड़ा क्यों गया है जबकि वह तो कहतें रहें है कि कोई कमी नही हैं?
ऐसी गम्भीर हालत में बहुत जरूरी है कि कुछ बोझ समाज ख़ुद उठाने का प्रयास करे और बहुत संतोष की बात है कि इंसानियत अभी ज़िन्दा है। बहुत बड़ी संख्या में ग़ैर सरकारी संस्थाएँ और असंख्य लोग आगे आकर या आपस में मिल कर पीड़ितों की मदद कर रहें हैं। लेकिन पहले मैं उन नरपशुऔं का ज़िक्र करना चाहता हूँ जो इस भयानक त्रासदी में भी कालाबाज़ारी कर रहें हैं और पीड़ितों की लाचारी का फ़ायदा उठा रहें हैं। इनका लालच और इनकी बेदर्दी न जाने कितनी जाने लील गई है। कई जगह तो लूट का बाज़ार लगा लगता है। ग़ाज़ियाबाद का एक प्रसिद्ध न्यूरोसर्जन रेमडेसिविर ब्लैक में बेचता पकड़ा गया। वह और उसका गैंग 35 लाख रूपया दैनिक बना रहा था। कई लोग नक़ली रेमडेसिविर बेचते पकड़े गए। एक नक़ली इंजेक्शन 20-40 हज़ार रूपए में बिक चुका है। दिल्ली के प्रसिद्ध खान मार्केट के प्रमुख रेस्टोरेंट के करोड़पति मालिक से 100 आक्सिजन कॉनसनटरेटर बरामद किए गए हैं। इन्हें उसने ब्लैक में बेचना था। ऐसे बहुत से लोग हैं जिन से जमा सिलैंडर पकड़े गए हैं। क्या ऐसे लोगों में बिलकुल इंसानियत नही बची? इस त्रासदी में भी उन्हे शोषण करने का मौक़ा चाहिए ? गुरू ग्राम से लुधियाना 360 किलोमीटर ले जाने के लिए एमबूलैंस ने 1.2 लाख रूपए लिए। एफ आई आर दर्ज होने के बाद पैसे वापिस कर दिए। कई जगह से एमबूलैंस और शमशानघाट प्रबन्धको द्वारा मोटी रक़म लेने की शिकायतें मिल रही है। कई अस्पताल और डाक्टर हैं जो अत्यंत महँगे पैकेज बेच रहें हैं। मरीज़ों की लाचारी का फ़ायदा उठाया जा रहा है।
ऐसा प्रतीत होता है कि नैतिकता विखंडित हो गई है, इसके चिथड़े हो रहें हैं। ऐसे अमानवीय लोगों को कभी दंड मिलेगा? 1966 में पंजाब के गवर्नर धर्मवीर ने कालाबाज़ारी करने वालों को हथकड़ी लगा कर बाज़ारों से घुमाया था। उसके बाद कुछ देर कालाबाज़ारी रूक गई थी। क्या आज कोई प्रशासक इन इंसानियत के दुश्मनों के साथ ऐसा सलूक करेगा? पर यह सब नकारात्मक लिखने के बाद यह अहसास भी है कि वास्तव में इंसानियत ज़िन्दा है। बहुत डाक्टर और नर्स हैं जो टूट चुकें है पर अपनी ज़िम्मेवारी निभा रहें हैं। कई अपनी ड्यूटी निभाते जान से हाथ खो बैठें हैं। बहुत अस्पताल है जो अपने मरीज़ों को बचाने के लिए 24 घंटे जी जान से लगे हुए हैं। इस अंधकारमय माहौल में ज़मीन पर बहुत लोग हैं जो एक दूसरे की मदद कर रहें हैं। सोशल मीडिया ऐसे संवेदनशील लोंगों से भरा हुआ है जो किसी तरह मदद का हाथ बढ़ा रहें हैं। ज़मीन पर जो सरकारी पलायन नजर आता है उसे भरने की कोशिश कर रहें हैं। सोनू सूद जैसे हज़ारों लोग हैं जो अपने देश और अपने देशवासियों को बचाने में लगें हैं। यह सब आज के भारत के हीरों हैं।
कई एमबूलैंस ड्राईवर है जो कई कई दिन सोए नही। कईयों ने दिन रात आक्सिजन की सप्लाई की है। टीवी पर एक लड़का दिखाया गया जो शमशानघाट पर सुबह 5 बजे से रात 12 बजे तक अपनी ज़िम्मेवारी निभा रहा है। वह उन शवों का दाह संस्कार भी कर रहा है जिनके परिवारजन घरों में दुबके बैठें हैं। बहुत लोग हैं जो कोरोना से पीड़ित लोगों या ग़रीबों को घर घर खाना पहुँचा रहें हैं। भोपाल के औटो चालक जावेद खान ने पत्नि के गहने बेच कर अपनी औटो को सिलैंडर युक्त एम्बुलेंस में परिवर्तित कर दिया है। कन्नड़ अभिनेता अर्जुन गावडा ख़ुद एम्बुलेंस चला कर मरीज़ों को अस्पताल पहुँचा रहे हैं। राजस्थान के पाली के वृद्धाश्रम सेवा समिति ने 20 लाख रूपए का आक्सिजन प्लांट लगवाया है। कई मुहल्ले वाले या बिल्डिंग वाले अपने पड़ोसियों की मदद कर रहें हैं। राजस्थान का जैन समाज 50 करोड़ रूपए ख़र्च कर 10000 कॉनसंटरेटर मशीनें देश के अलग हिस्सों में भेज रहा है।लेकिन एक समुदाय के तौर पर हमारे सिख भाई जो कर रहें हैं वह अपने आप में दुनिया के लिए एक मिसाल है। सर श्रद्धा और कृतज्ञता से झुक जाता है। गुरुद्वारा के बाद गुरुद्वारा पीड़ितों की मदद के लिए आगे आ रहा है। गुरुद्वारे खाने के लंगर तो लगा ही रहें हैं अब कईयों ने खुलें में आक्सिजन के लंगर लगा दिए है जहाँ मुफ़्त में आक्सिजन लगाई जा रही है। कई सिख संस्थाओं के वॉलंटियर्स घरों में आक्सिजन पहुँचा रहे हैं। असंख्य लोगों को बिना किसी भेदभाव के जीने की साँस दी जा रही है। सिख समाज से यह सीखा जा सकता है कि हालात कैसे भी विकट हो हार नही मानी जानी चाहिए। सबसे उल्लेखनीय दिल्ली के गुरूदवारा रकाब गंज साहिब में मुफ़्त 400 बैड के अस्पताल का शुरू होना है। यह आज की हर ज़रूरत से लैस है। मरीज़ों से एक पैसा नही लिया जाता यहाँ तक कि बिलिंग काउंटर भी नही है। देश और विदेश से भारी संख्या में सिख इसमें योगदान डाल रहें हैं। हज़ारों की संख्या में आक्सिजन कॉसंटरेटर भेजे जा रहें हैं। कोई दवाईयां का प्रबन्ध कर रहा है तो कोई एमबूलैंस दे रहा है। गुरुद्वारा साहिब में लिख कर लगाया गया है, ‘कोरोना इंसान को मार सकता है इंसानियत को नही’। इस वाक्य को हमारे सिख भाई सही साबित कर रहें हैं। दिल्ली सिख गुरूदवारा प्रबन्धक कमेटी के प्रधान मनजिन्दर सिंह सिरसा का कहना है कि ‘सरकार फ़ेल हो गई सरदार फेल नही हुए’। मुझे सिरसा जी से कहना है,सरदारां दे इस जज़्बे नू लख सलाम !
11 फ़रवरी के अपने लेख ‘लंगर का वरदान’ में मैंने लिखा था कि ‘लंगर की प्रथा बताती है कि बराबरी क्या है? भाईचारा क्या है? सेवा क्या है? नम्रता क्या है?’अब सिख भाईचारे ने इसकी एक और मिसाल पेश कर दी। इसी के साथ मेरा यह भी कहना है कि जावेद खान जैसे असंख्य अनाम और गुमनाम लोग जो सेवा में लगे हुए हैं वह भी देश के सरदार हैं। देश उनका भी आभारी है। दुख यह है कि सिख भाईचारे की मिसाल दूसरी धार्मिक संस्थाओं में देखने को नही मिल रहीं। देश मे असंख्य मंदिर, मस्जिद और गिरिजाघर हैं जिनके प्रबन्धकों के पास साधनों की कमी नही। वह वो सेवा क्यों नही कर रहे जो गुरुद्वारा रकाबगंज साहिब और दूसरे गुरुद्वारे कर रहें हैं? विशेष तौर पर मेरे अपने धर्म के ठेकेदार कहाँ छिपें हैं? उनमे वह संवेदना क्यों नही झलकती जिसकी सिख भाईचारें में लहरें ऊँची उठ रहीं हैं?