पंजाब के लोगो ने ग़ज़ब कर दिया है। सिखों ने अकाली दल को वोट नही दिया, हिन्दुओं ने भाजपा को वोट नही दिया, दलितों ने बसपा को वोट नही दिया, किसानों ने किसान पार्टी को वोट नही दिया और सबने मिल कल पुरानी गली सड़ी व्यवस्था के ठेकेदारों को उठा कर बेरहमी से बाहर फेंक दिया। लोगो ने सब भावनात्मक मुद्दों को एक तरफ रख अच्छे शासन के लिए वोट दिया है। प्रदेश की राजनीति पर रईस ज़मींदार वर्ग का जो शिकंजा था उसे खंड खंड कर दिया गया है। जिस तरह पंजाब सचिवालय के कर्मचारियों, जो ख़ुद उस व्यवस्था के पुर्ज़े थे जिसे जनता ने हटा दिया, ने नए मुख्यमंत्री भगवंत मान का स्वागत किया से पता चलता है कि बदलाव की तड़प किस तरह हर स्तर तक पहुँच गई है। लोगो ने वोट देते समय उम्मीदवार भी नही देखा केवल झाड़ू को वोट डाल दिया।
दशकों के बाद पंजाब आशा का साहस कर सकता है कि आने वाले दिन बेहतर होंगे। अरविंद केजरीवाल की योजना और उनका धैर्य सफल रहा। आप ने ‘एक मौक़ा केजरीवाल नू’ की माँग की, और यह माँग खूब क़बूल की गई। भगवंत मान तो सहायक थे। दिल्ली अपना महत्व रखती है पर वहां के सीएम के नीचे तो पुलिस भी नही है। पंजाब एक पूरा जीवंत प्रांत है जो अब केजरीवाल के अधीन आगया है क्योंकि चाहे मुख्यमंत्री भगवंत मान हैं, सब जानते है कि रिमोट कंट्रोल केजरीवाल के पास ही रहेगा। नियंत्रण किसी और को देने के लिए उन्होने इतनी मेहनत नही की है। पंजाब उनके लिए और भी अधिक महत्व रखता है क्योंकि यह उनकी राष्ट्रीय महत्वकांक्षा के लिए गेटवे बन सकता है। अभी से वह और उनके साथी कह रहें है कि ‘पंजाब की क्रांति सारे देश में फैल जाएगी’, ‘ हम ऐसा भारत बनाएगे’, ‘इंक़लाब देश में फैलाऐंगे’। राघव चड्ढा जैसे समर्थक तो और भी छलाँगें लगाने लग पड़ें है। उनका कहना है कि ‘अरविंद केजरीवाल नरेन्द्र मोदी के प्रमुख चैलेंजर हैं’ और ‘वह राष्ट्रीय विकल्प हैं’।
अर्थात आप का नेतृत्व अभी से पंजाब से आगे की सोच रहा है। अब उनका निशाना बहुत बड़ा है, वह 2024 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने की बात कह रहें हैं जबकि उनके पास अभी एक पूरा प्रदेश पंजाब, और एक आधा दिल्ली, ही हैं। कांग्रेस में जो बिखराव और रूकाव नजर आ रहा है, और जिस तरह देश राहुल गांधी को राष्ट्रीय विकल्प मानने से इंकार कर रहा है उससे उत्साहित हो कर आप और केजरीवाल की महत्वकांक्षा खूब उड़ान भर रही है। दो वर्षों में वैकल्पिक कार्यक्रम पेश कर वह कांग्रेस की जगह लेना चाहतें हैं। विशेष प्रयास पड़ोसी हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में किया जाएगा जहाँ अभी उनकी मौजूदगी नही है। अगर ख़ुद नही भी जीते, कांग्रेस का खेल वह बिगाड़ सकतें हैं। केजरीवाल के पक्ष में बहुत कुछ है भी। बड़ी बात तो यह है कि अरविंद केजरीवाल राहुल गांधी नही हैं। उन पर भाजपा वंशवाद की तोहमत नही लगा सकती। न पुरानी असफलताएँ का आरोप ही उनके मत्थे थोपा जा सकता है। न कश्मीर या चीन को लेकर या तुष्टीकरण का कोई लांछन उन पर लग सकता है।
अरविंद केजरीवाल भी मोदी की तरह ‘बाहरी’ हैं, जिन्होंने व्यवस्था को चुनौती दी है। हनुमान चालीसा पढ़ने वाले व्यक्ति पर हिन्दू विरोधी होने का बिल्ला नही लगाया जा सकता है। हिन्दुत्व को लेकर किसी भी बहस में वह नही पड़ते। न ही राहुल गांधी की तरह हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व में अंतर समझाने की असफल कोशिश ही करते हैं। उन्होने धारा 370 हटाए जाने का स्वागत किया था। न ही वह राहुल गांधी की तरह सीधा मोदी पर हमला ही करतें हैं। इस बार चुनाव अभियान के दौरान उन्होने केवल दो बार मोदी का नाम लिया है। एक बार ज़रूर केजरीवाल ने मोदी को ‘मनोरोगी’ कहा था पर अब वह मोदी या भाजपा से सीधी टकर नही लेते। स्वास्थ्य और शिक्षा पर केन्द्रित और मुफत सुविधाओं बाँटने का वह नया मॉडल पेश कर रहें हैं जो पंजाब में उनके काम भी आया है। वह जानते है कि लोग पुरानी राजनीति से उकता गए हैं इसलिए नया विकल्प पेश कर रहें हैं। पंजाब सरकार अब ‘एक विधायक एक पैंशन’ का नियम बनाने की सोच रही है। इसका बहुत स्वागत होगा क्योंकि इस वक़्त हमारे जन प्रतिनिधि जितनी बार चुने जाते है उतनी बार उन्हे पैंशन मिलती है। कई सांसद 7-8 बार की पैंशन लेते हैं।शरद पवार छ: बार सांसद और उससे पहले कई बार विधायक रह चुकें हैं। कितनी पैंशन मिलती होगी? चुनाव हारने के बाद अब प्रकाश सिंह बादल ने स्पीकर को लिखा है कि उनकी पैंशन बंद कर दी जाए। वैसे भी पवार या बादल जैसों को पैंशन की ज़रूरत क्या है? आशा है कि पंजाब में आप का यह बढ़िया कदम इस निर्लज्ज प्रथा को संसद समेत, बाकी जगह भी खत्म करने के लिए प्रेरित करेगा।
अरविंद केजरीवाल के बारे एक बात समझनी चाहिए कि उनकी कोई स्थाई विचारधारा नही। सारा कुछ भारत माता की जय और इंकलाब ज़िन्दाबाद है। इंकलाब ज़िन्दाबाद का अर्थ आज की परिस्थिति में क्या है, यह वह नही समझाते। क्रान्ति से अभिप्राय क्या है वह भी नही बताते। 2011 के इंडिया एगेनस्ट क्रपशन से लाईमलाइट में आए केजरीवाल का सफ़र भी दिलचस्प है। तब वह अन्ना हज़ारे के चरणों में बैठेते थे और पीछे गांधीजी की तस्वीर लगी रहती थी। आज उनके पीछे भगत सिंह और अम्बेदकर के चित्र लगें हैं। दूसरी तरफ बेचारे अन्ना हज़ारे अपने गाँव में पेड़ के नीचे बैठे महीने दो महीने के बाद आमरण अनशन की धमकी दे देते है, पर कोई नही सुनता। उनका पुराना चेला केजरीवाल तो परवाह ही नही करता। अपने चकित करने वाले सफ़र में केजरीवाल प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, धर्मवीर गांधी जैसे अनेक साथियों को रास्ते में छोड़ कर आगे बढ़ गए है। अब राघव चड्ढा जैसे उनके विश्वसनीय साथी हैं जो उन्हे चुनौती नही दे सकते। वह सैकयूलर हैं पर दिल्ली में सीएए को लेकर आन्दोलन के दौरान बिलकुल ख़ामोश रहे और आंदोलन के पक्ष में एक उँगली तक नहीं उठाई। वह हिन्दू -मुस्लिम मुद्दों के नज़दीक नही फटकते। वह जानते है कि भाजपा की ट्रोल आर्मी उनकी चूक की तलाश में हैं। पंजाब के 2017 के चुनाव के दौरान वह एक आतंकवादी के घर ठहर गए थे, और चुनाव हार गए। इस बार ऐसी कोई भूल नही की गई। हिन्दी भाषी क्षेत्र से वह एकमात्र नेता है जिसे भाजपा रौंद नही सकी। पर मुझे 2024 में उनके नरेन्द्र मोदी के चैलेंजर बनने की कोई सम्भावना नजर नही आती। इसके तीन कारण हैं जिन पर अगले लेख में चर्चा करूँगा, इस वक़्त मैं एक और विषय की तरफ मुड़ता हूँ, भगत सिंह।
नए मुख्यमंत्री भगवंत मान ने अपना शपथ ग्रहण समारोह शहीद भगत सिंह के पैतृक गाँव खटकर कलां में रखा था। इस तरह वह इस महान शहीद की याद का सम्मान करना चाहते थे। यह अच्छी बात है। हमारे स्वतंत्रता संग्राम में भगत सिंह जैसा बहादुर नही हुआ। माफ़ी माँगने का तो सवाल ही नही, उन्होने तो गोरों से कहा था कि ‘मुझे गोली से उड़ा दिया जाए’। भगवंत मान उनके बहुत प्रशंसक हैं। जबसे उन्होने 2011 में राजनीति में कदम रखा है वह बसंती पगड़ी डालते है और हर स्पीच के बाद इंकलाब ज़िन्दाबाद का नारा लगातें हैं। उनके सरकारी दफतर में महाराजा रणजीत सिंह की तस्वीर हटा कर बसंती पगड़ी में भगत सिंह, और अम्बेदकर की टाई वाली तस्वीरें लगाई गई है। पर यहां मुझे कुछ कहना है।
शहीद भगत सिंह ने कभी बसंती पगड़ी नही डाली। बसंती पगड़ी चित्रकारों या फ़िल्मकारों की कल्पना है। हमे इस महान शहीद को मनोज कुमार या अजय देवगन में परिवर्तित नही करना। मुख्यमंत्री के दफतर में लगी भगत सिंह की तस्वीर कल्पित है। प्रो.चमन लाल जिन्होंने भगत सिंह पर कई किताबें लिखी है का कहना है, “भगत सिंह ने कभी भी बसंती या केसरी पगड़ी नही डाली। यह सब कल्पना की उड़ान है। हमारे पास भगत सिंह के केवल चार चित्र हैं। एक जेल से है जहाँ वह खुले केश के साथ बैठें हैं। एक चित्र हैट में है और दो सफ़ेद पगड़ी के साथ है”। उनका कहना है कि पिस्तौल पकड़े भगत सिंह का जो चित्र छपता है वह भी कोरी कल्पना है। जगमोहन सिंह जो शहीद के रिश्तेदार है ने भी इस बात की पुष्टि की है कि भगत सिंह के किसी भी चित्र में बंसती पगड़ी नही है। और न ही इस बात का सबूत है कि भगत सिंह और उनके साथियों ने फाँसी के तख़्ते की तरफ जाते हुए ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ गाया था जैसे शहीद जैसी फ़िल्मों में दर्शाया गया है। इसके कवि राम प्रसाद बिसमिल को गोरखपुर मे 1927 को फाँसी दे दी गई थी और न ही कोई सबूत है कि शहीद बिसमिल और शहीद भगतसिंह कभी एक जेल में रहें थे। और इस गाने में बिसमिल भी बसंती चोला की बात करतें हैं,बसंती पगड़ी की नही!
मेरे पिताजी वीरेन्द्र जी 23 मार्च 1931 को लाहौर के उस सेंट्रल जेल में बंद थे जहाँ भगत सिंह और उनके साथियों को फाँसी लगाई गई थी। उन्होने भी बताया था कि भगत सिंह ने कभी बसंती पगड़ी नही डाली थी। उन्होने बताया था कि उस रोज़ फाँसी के तख्ते की तरफ जाते हुए तीनों शहीद इकलांब ज़िन्दाबाद के नारे लगा रहे थे जिसका जवाब बाकी क़ैदियों ने अपनी कोठरियों की सलाखों को खड़का कर और ऊँची आवाज़ में इंकलाब ज़िन्दाबाद के नारे लगा कर दिया था। आज वह लोग नही रहे, न वैसे आएँगे। वह उस विशेष परिस्थिति की पैदायश थे। अच्छी बात है उनके आदर्शो को याद किया जा रहा है और आशा की जानी चाहिए कि ईमानदारी, बराबरी और समाजिक न्याय के उनके आदर्श पर अमल किया जाएगा पर ऐसा करते वक़्त फ़िल्मी चित्रण का सहारा न लिया जाए तो बेहतर होगा। जिस तरह आप ने पंजाब में राज्य सभा की टिकटें बाँटी गई है उससे न क्रान्ति आएगी न इंकलाब।