नीतीश कुमार ने एक बार फिर पलटा खाया है। वह तो आया राम गया राम का रिकार्ड भी पीछे छोड़ गए। 2005 में वह पहली बार राष्ट्रीय जनता दल के ‘जंगल राज’ के विरोध में मुख्यमंत्री बने थे। 2013 में उन्होंने भाजपा का साथ तब छोड़ दिया जब उस पार्टी ने नरेन्द्र मोदी को 2014 के चुनाव में अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार प्रोजेक्ट किया था। मोदी के साथ उनकी स्पर्धा तब से चल रही है। दोनों आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक हैं और दोनों सत्ता के केन्द्रीयकरण में विश्वास रखतें हैं। पर मोदी अपनी विचारधारा के प्रति ईमानदार है जबकि नीतीश कुमार का कोई पक्का राजनीतिक धर्म नहीं लगता। 2015 में कांग्रेस और आरजेडी के साथ गठबंधन बना कर फिर सीएम बन गए। फिर देखा कि मोदी तो जम रहे हैं इसलिए 2017 में आरजेडी पर भ्रष्टाचार और जंगलराज के आरोप लगा कर वह गठबंधन से बाहर आ गए और ‘अंतरात्मा की आवाज़’ सुन कर कुछ ही घंटो में भाजपा के सहयोगी बन वापिस एनडीए में शामिल हो गए। अब उन्हें नरेन्द्र मोदी में कोई खोट नज़र नहीं आया। 2020 के चुनाव में वह फिर सातवीं बार सीएम बन गए जबकि उनकी पार्टी राजद और भाजपा के बाद तीसरे नम्बर पर थी। अब फिर पलटा खा कर उन्होंने उन तेजस्वी यादव के साथ गठबंधन कर लिया जिनके कथित भ्रष्टाचार के कारण वह इस्तीफ़ा माँग चुकें हैं।
यह है नीतीश कुमार जिन्हें कुछ लोग ‘पलटू कुमार’ भी कहते हैं की दिलचस्प, पर अवसरवादी, गाथा। वह कितने कारीगर है यह इस बात से पता चलता है कि एक बार भी अपना बहुमत हासिल किए बिना जीतनराम मांझी के संक्षिप्त काल और राष्ट्रपति शासन को छोड़ कर 17 वर्ष से मुख्यमंत्री हैं। क्या वह अपनी विचारधारा के प्रति तब ईमानदार थे जब वह भाजपा के साथ थे या अब है जब वह भाजपा के धुर विरोधी आरजेडी के साथ हैं? अगर बिहार के वोटर ‘कंफयूज़ड’ है तो हैरानी नहीं। पर गलती उनकी है कि वह नीतीश कुमार की विचारधारा को समझ नहीं सके। उनकी एक ही ‘विचारधारा’ है जिसका नाम नीतीश कुमार है। सब कुछ अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए किया जाता है। जब जब उन्हें लगा कि उनकी कुर्सी को ख़तरा हो सकता है वह पाला बदल लेते हैं। जैसे उन्होंने अब किया है।
पर उनका राजनीतिक कौशल देखिए कि उनकी पार्टी के पास केवल 43 विधायक हैं जबकि तेजस्वी यादव के पास 76 और भाजपा के पास 74 । राजद की संख्या तो 80 हो गई है क्योंकि औवेसी की पार्टी के चार विधायक शामिल हो गए हैं। पर सीएम नीतीश कुमार ही बने। वह दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं के बीच झूलते रहें और दोनों का इस्तेमाल कर गए। भाजपा का नेतृत्व इस बार सोया पाया गया। विरोध में जब पटना में प्रदर्शन किया गया तो उसमें नेता अधिक थे कार्यकर्ता कम। महाराष्ट्र के बाद भाजपा का नेतृत्व आश्वस्त भी था कि किसी में चुनौती देने की हिम्मत नहीं होगी। पर नीतीश कुमार उद्धव ठाकरे जैसे आराम परस्त नेता नहीं है। न ही भाजपा के पास बिहार में कोई मज़बूत नेता हैं जो नीतीश या तेजस्वी का मुक़ाबला कर सके। बिहार एक मात्र हिन्दी भाषी राज्य है जहां भाजपा ने अपनी सरकार नहीं बनाई। बिहार की लोकसभा की 40 है जिसमें से 39 एनडीए के पास थी ( भाजपा 17, जेडीयू 16, एलजेपी 6)। 2024 में यह भाजपा के लिए निर्णायक हो सकती हैं, और नीतीश कुमार का पलायन तकलीफ़ दे सकता है।
नीतीश कुमार ने इस वक़्त पाला क्यों बदला? संकेत तो पहले से थे कि दोनों के सम्बंध मधुर नहीं है। चिराग़ पासवान के द्वारा जेडीयू को कमजोर करने की कोशिश की गई।आरसीपी सिंह जिनका सम्बंध जेडीयू से था को नीतीश कुमार की सहमति के बिना केन्द्र में मंत्री बनाया गया था। नीतीश कुमार को आशंका थी कि आरसीपी को बिहार का एकनाथ शिंदे बनाया जाएगा। नीतीश कुमार ने भी अग्निपथ योजना का विरोध कर अपनी नाराजगी व्यक्त कर दी। नीति आयोग की बैठक में वह नहीं गए। इस तलाक़ के तीन कारण नज़र आते हैं। एक, नीतीश समझ गए थे कि उनकी लोकप्रियता लगातार कम हो रही है। 2010 में जिस जेडीयू के पास 115 सीटें थीं वह 2020 में कम हो कर 45 रह गईं। इसीलिए अब युवा तेजस्वी यादव का सहारा लिया है। दूसरा बड़ा कारण है कि प्रादेशिक पार्टियाँ नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की रणनीति से आतंकित हैं। जब से महाराष्ट्र में पलटा किया गया है तब से यह पार्टियाँ भयभीत हैं। पश्चिम बंगाल में उनके सहयोगी पार्थ चटर्जी के कारण ममता बैनर्जी की जो गत बनाई गई है वह भी नोट की गई है। नीतीश कुमार को आशंका थी कि अगली बारी उनकी है। भाजपा उनका काम तमाम कर अपनी सरकार बनाना चाहती है। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के इस बयान ने भी कि, ‘क्षेत्रीय पार्टियाँ ख़त्म हो रही है। जो नही हुई वह हो जाएँगी। सिर्फ भाजपा ही रह जाएगी,’ विपक्ष में मंथन शुरू कर दिया है कि एकजुट होने की ज़रूरत है नहीं तो भाजपा शिवसेना वाला हाल बनाएगी।
नीतीश कुमार के पलायन का तीसरा बडा कारण उनकी राष्ट्रीय महत्वकांक्षा है। वह नरेन्द्र मोदी का विकल्प बनना चाहते हैं चाहे इस वकत वह यह प्रभाव दे रहें हैं कि उनका ऐसा कोई इरादा नहीं है। नड्डा का जवाब देते हुए उनका कहना था कि, ‘ कुछ लोग समझते थे कि विपक्ष ख़त्म हो जाएगा। लेकिन अब हम भी विपक्ष में हैं’। यहाँ यह ‘हम’ बहुत महत्वपूर्ण है। नीतीश कुमार ने खुद को विकल्प पेश कर दिया है। नरेन्द्र मोदी का नाम लिए बिना उनका कहना था कि ‘जो 2014 में आए थे वह 24 में रहेंगे तो’? वह पहले विपक्षी नेता है जिन्होंने नरेन्द्र मोदी को ऐसी सीधी चुनौती दी है। वह यह भी समझते हैं कि विपक्ष में नेता का पद ख़ाली है। कांग्रेस का नेतृत्व नैशनल हैरल्ड केस में उलझा हुआ है। वैसे भी पार्टी परिवार के घेरे से बाहर नहीं आ पा रही। ममता बैनर्जी की महत्वकांक्षा है पर पार्टी के अन्दर भ्रष्टाचार के मामले खुलने के बाद आवाज़ धीमी पड़ गई है।शरद पवार की अवस्था नहीं कि वह विपक्ष के नेता बन सके। अरविंद केजरीवाल हैं पर उनके बारे कहा जा सकता है कि वह ‘वर्क इन प्रोसेस’ हैं। वह तुलनात्मक युवा हैं और उन्हें 2024 की जगह 2029 पर केन्द्रित होना चाहिए। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि पंजाब में उनकी सरकार कैसे चलती है और वह अपनी पार्टी को केन्द्रीय एजेंसियों के प्रहार से बचा सकते हैं या नहीं?
ऐसी स्थिति में नीतीश कुमार समझते हैं कि वह साँझा उम्मीदवार हो सकते हैं। और इस समय उनकी विश्वसनीयता को चोट पहुँची है पर समय के साथ लोग भूल जाऐंगे। वह बिल्कुल साम्प्रदायिक नहीं है। विपक्ष इस वकत शिरोहीन है। नीतीश सबको इकटठा कर नेतृत्व दे सकतें है, एक प्रकार से नई जनता पार्टी। उनकी छवि एक पक्के समाजवादी और सैकयूलर नेता की है। राजनीतिक तौर पर वह अनैतिक है पर निजी तौर पर पूरी तरह से ईमानदार है। यही कारण है कि वह भाजपा के नेतृत्व को इस तरह ललकार सके। उन्हें ईडी का डर नहीं। यह भी उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र के कुछ विधायकों की तरह बिहार में विधायकों को रिसॉर्ट्स या होटलों में हांकने की ज़रूरत नहीं हुई। लेकिन नीतीश कुमार के आगे भी तीन चुनौतियाँ है। एक, क्या कांग्रेस, या ममता बैनर्जी या केसीआर जैसे उनका नेतृत्व स्वीकार करेंगे? कांग्रेस तो स्पष्ट कर चुकी है कि राहुल गांधी नहीं तो कोई नहीं। नीतीश के पलटे के बारे ममता और केजरीवाल की चुप्पी महत्व रखती है द्रुमुक और टीआरएस ने अवश्य उनका जोशीला स्वागत किया है। उन्हें भी दूसरों को विश्वास दिलवाना पड़ेगा कि अब और पलटा नही होगा। दूसरा, बिहार मॉडल किसी तो आकर्षित नहीं करता। मार्च 1990 में लालू प्रसाद यादव सीएम बने थे। राष्ट्रपति शासन तथा जीतन राम माँझी के संक्षिप्त शासन को छोड़ कर वहाँ लालू परिवार या नीतीश कुमार का शासन रहा है। 1990 में बिहार सबसे गरीब और पिछड़ा प्रदेश था, 2022 में भी है। चाहे उन्हें सुशासन बाबू कहा जाता रहा है पर नीतीश कुमार का शासन कोई ग़ज़ब नहीं कर सका।
तीसरी चुनौती सबसे बड़ी है, भाजपा। नीतीश कुमार के ‘विश्वासघात’ से घायल भाजपा बदला लेने से नहीं चूकेगी। नीतीश का पलायन भाजपा के लिए किसी धक्के से कम नहीं। पहली बार किस ने उन्हें सत्ता से बाहर किया है। जो महाराष्ट्र में कमाया था, वह बिहार में गँवा दिया। दक्षिण भारत में केवल कर्नाटक में वह पैर जमाने में सफल रहे है बाक़ी दक्षिणी प्रदेश पहुँच से दूर हैं, इसलिए बिहार ज़रूरी है। भाजपा बिहार के महागठबंधन में अंतर्विरोध उभरने की इंतज़ार करेगी, या उन्हें प्रेरित करेगी क्योंकि अगर यह सरकार सही चल गई तो समस्या पैदा हो जाएगी। भाजपा को यह प्रभाव से भी निबटना पड़ेगा कि वह किसी को साथ नहीं रख सकती और सहयोगी पार्टियों को निगलने की कोशिश करती है। इस वकत भाजपा की कोई भी सहयोगी पार्टी नहीं बची जिसकी लोकसभा में 10 से अधिक सीटें हों। अकाली दल, शिवसेना, तेलगू देशम पार्टी सब अलग हो गईं हैं। यह प्रभाव कि प्रबल भाजपा प्रादेशिक पार्टियों की सेहत के लिए बुरी है, तकलीफ़ पहुँचा सकता है क्योंकि अगले चुनाव में उसे साथी ढूँढने मुश्किल हो जाएँगे। अध्यक्ष नड्डा के बयान ने और शुबहा बढ़ा दिया है।
बहरहाल राजनीति फिर करवट ले रही है। समझा तो जाता था कि साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव से वह खेल शुरू होगा जो 2024 के आम चुनाव तक चलेगा। पर पहले महाराष्ट्र और अब बिहार का घटनाक्रम बताता है कि खेल तो शुरू हो चुका है। क्या नीतीश कुमार विपक्ष की भावी आशा हो सकतें हैं ? अभी तो देखना है कि वह गठबंधन सरकार चलाने, भाजपा विरोधियों को एकजुट करने और भाजपा से आने वालों हमलों की बहुचुनौती से कैसे जूझतें है ? पर वह पुराने खिलाड़ी हैं। क्या खेल में पुराने खिलाड़ी का नया पलटा सफल होगा?