10 साल बीत गए पर न स्थिति में परिवर्तन आया, न व्यवस्था ही सुधरी और न ही मानवीय संवेदना ही जागी। 16 दिसम्बर 2012 को राजधानी दिल्ली में चलती बस में निर्भया के साथ हैवानियत और बाद में उसकी मौत, से देश की आत्मा तड़प उठी थी। सख़्त क़ानून बनाया गया और समझा गया कि अब समाज में बदलाव आएगा। पर दस साल के बाद 31 दिसम्बर और 1 जनवरी की रात दिल्ली में ही जिस तरह ब्लैरो कार के नीचे 14-15 किलोमीटर घसीट कर अंजलि सिंह मारी गई, से पता चलता है कि कुछ नहीं बदला। दिल्ली की सड़कें पहले की तरह असुरक्षित हैं, और शासक पहले की तरह बेदर्द और बेसुध हैं। न व्यवस्था बदली, न ही मानवीय संवेदना में बदलाव आया। यह वह रात थी जब महानगर में पुलिस की उपस्थिति सबसे अधिक बताई गई थी। 18000 से अधिक पुलिस जवान तैनात किए गए। ज़मीन पर जो हुआ सबने देख लिया। दिल्ली राजधानी है। यहाँ के पुलिस बल को तो बिलकुल प्रोफेशनल होना चाहिए पर राजनीतिक दखल के कारण अन्दर से खोखला हो गया प्रतीत होता है। किरण बेदी ने भी कहा है कि पूरा पुलिस तंत्र ढह गया।
गाड़ी चलाने वाले बुरी तरह से शराबी थे जिन्हें या तो पता नहीं चला कि वह एक लड़की को रौंद रहे हैं या इतने लापरवाह थे कि बेधड़क हो गए। उस रात कहाँ थे वह हज़ारों पुलिस वाले? कहाँ थी वह पेट्रोल वैन? एक चश्मदीद ने 22 बार फ़ोन किया, कोई जवाब नहीं मिला। अधिकारियों और नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि कौन है जो आम नागरिक की सुरक्षा के लिए ज़िम्मेवार? अगर आप समाज के कम विशेषाधिकार सम्पन्न वर्ग से हो तो आपकी किसी को विशेष चिन्ता नहीं? दिल्ली तो वैसे भी केन्द्र सरकार- एलजी और दिल्ली की आप सरकार के बीच फुटबॉल बन कर रह गई है। हाल ही में हम देख कर हटें हैं कि मेयर के चुनाव में किस तरह अराजकता का दृश्य देखने को मिला। हाथा पाई हुई। कुर्सियाँ तक चलीं। क्या इन उद्दंड जनप्रतिनिधियों को ज़रा भी अहसास है कि उनके ही शहर में केवल एक सप्ताह पहले एक गरीब परिवार की एकमात्र कमाने वाली लड़की को चक्कर काटती काटती कार कई किलोमीटर तक घसीटती रही?
लेकिन यह केवल व्यवस्था की बेदर्दी की ही कहानी नहीं। यह बताती है कि हमारे समाज में मानवीय संवेदनाओं का ह्रास हो रहा है। बहुत कम लोगों ने पुलिस को सूचना दी, कार चालक रूका नहीं, जो ‘फ्रैंड’ बताई गई वह चुपचाप घर भाग गई और शिकायत दर्ज नहीं करवाई। हाल ही में ऐसी मानवीय जड़ता के एक के बाद एक इतने उदाहरण मिले हैं कि परेशानी हो रही है। एक दिन नहीं जाता कि विचलित करने वाली खबर नहीं मिलती। अख़बार पढ़ना या टीवी देखना ही चैलेंज हो गया। आफ़ताब पुनावाला ने जब से अपनी गर्ल फ़्रेंड श्रद्धा वॉलकर की हत्या कर उसके 35 टुकड़े महरौली के जंगल में दबा दिए, तब से लगातार कई ऐसी झकझोरने वाली खबरें मिली हैं। दरिंदगी के बावजूद आफ़ताब शांत बताया जाता है। कोई मलाल नहीं। एक व्यक्ति ने अपने पिता की हत्या कर उनके 32 टुकड़े कर दिए। एक ने अपनी गर्लफ़्रेंड पर 49 बार हमला किया। एक ने अपने किरायेदार के तीन टुकड़े कर दिए। एक आदिवासी महिला के शरीर के 22 टुकड़े बरामद हुए हैं। हिंसा पहले भी होती रही है। पर अब तो क्रूरता के रिकार्ड टूट रहें हैं। इंटरनेट जो गाइड है, ग़लत हाथों में दुष्ट हथियार बन गया है।
टीवी अभिनेत्री तुनिषा शर्मा ने अपने शो के सैट पर फाँसी लगा कर आत्महत्या कर ली। उसके पूर्व पार्टनर शीजान खान को गिरफतार कर लिया गया है। पर लिव-इन और ब्रेक- अप तो हमारे समाज में आम बन गए हैं। बॉलीवुड या टीवी उद्योग से अक्सर ऐसी खबरें मिलती रहती है। जिसे ‘रिलेशनशिप’ कहा जाता है, यह अक्सर बनते बिगड़ते रहतें हैं। कई अभिनेता -अभिनेत्रियाँ कई कई रिलेशनशिप में रह चुकें हैं पर किसी ने सुसाइड नहीं किया। तुनिषा ने यह अंतिम कदम क्यों उठा लिया? यही सवाल तब खड़ा हुआ था जब सुशांत सिंह राजपूत ने सुसाइड किया था। इंसान इतना क्यों बेबस हो जाता है कि ऐसा कदम उठाने के लिए मजबूर हो जाता है ? ब्रेक -अप हुआ, पर पारिवारिक सहारा क्यों नही मिला? या क्यों नहीं लिया गया? परिवार के साथ जब संवाद टूट जाता है तो इंसान भीड़ में भी अकेला, लाचार, बेसहारा, बेचारा महसूस करने लगता है। डिप्रेशन आज की फटाफट ज़िन्दगी का बड़ा हिस्सा बन चुका है। लक्ष्य बहुत ऊँचा रखा जाता है, ज़रूरतें बहुत बढ़ गईं, और जब यह हासिल नहीं होते तो कई टूट जाते हैं। जिनके सहारे उनकी ज़िन्दगी अटकी होती है वहां से मिली निराशा उन्हें कई बार उग्र कदम उठाने पर मजबूर कर देती है। दीपिका पादुकोण जैसी सफल अभिनेत्री ने स्वीकार किया था कि वह भी डिप्रेशन का शिकार हो चुकी है पर लड़की ने हिम्मत दिखाई और कामयाबी हासिल की।
विशेष तौर पर जो महिलाएँ काम करती है उन्हें परिवार के सहारे और समर्थन की बहुत ज़रूरत होती है, चाहे वह पति हो या माँ बाप। हमारे समाज में बड़ा परिवर्तन आ रहा है, पारिवारिक व्यवस्था बदल रही है और कमजोर हो रही है। पेरैंटस अब बहुत उदार हो गए हैं। कई ने तो बच्चों के आगे समर्पण कर दिया है। परिवार के अन्दर न वह अनुशासन रहा, न वह दिशा दिखाने वाले ही है। संयुक्त परिवार का पतन हो गया। दोनों माँ बाप काम करते हैं। बच्चों की सही परवरिश करने वाला कोई नहीं रहा। हमारे समय में जो वर्जित था वह सब इंटरनेट पर मौजूद है। सैक्सुअल अपराध में भयानक वृद्धि का यह बड़ा कारण है। विशेष तौर पर एक वर्ग के युवा बेलगाम हो रहें है, क़ानून को अपने हाथ में ले रहें हैं। लखीमपुर खेरी की घटना याद कीजिए जब नेताजी के पुत्र ने किसानों पर गाड़ी चढ़ा दी थी। अब तो आकाश में भी फ़्लाइट में कुछ क़िस्से बाहर आए है जहां उद्दंड व्यवहार रोकने पर जवाब मिला, ‘तुम जानते नहीं मैं कौन हूँ’? विशेष पात्रता का यह जो अहसास है यह बहुत को तबाह कर रहा है।
ऐसा ही एक शर्मनाक क़िस्सा हाल ही में न्यूयार्क से दिल्ली आ रही एयर इंडिया के विमान में देखने को मिला जहां एक पढ़े लिखे उच्च नौकरी वाले युवक ने शराबी हालत में एक वृद्ध महिला पर पेशाब कर दिया। शंकर मिश्रा अमेरिकी कम्पनी में वाइस प्रेसिडेंट था। साफ़ है मोटी नौकरी थी। एयर इंडिया की बिसनेस क्लास का न्यूयार्क -दिल्ली किराया 4 लाख रूपए के क़रीब है। अर्थात् यह नौजवान ज़िन्दगी में बहुत सुविधाजनक स्थिति में था लेकिन अकल्पनीय हिमाक़त कर बैठा। इस घटना के बाद एयर इंडिया के चालक दल का रवैया बराबर शर्मनाक था। महिला को राहत देने की जगह दोषी से सामना करवा समझौता करवाने की कोशिश की गई, जैसे एयरइंडिया की उड़ान न हो मुहल्ले का थाना हो! नियम कहते हैं कि उद्दंड यात्री के खिलाफ कार्रवाई की जाए और उसे पुलिस के हवाले किया जाए। कुछ नहीं किया गया, शंकर मिश्रा को जाने दिया गया। यह तो जब पीड़िता ने कम्पनी के चेयरमैन को शिकायत लिखी और देश भर में ग़ुस्सा फूट गया तो एयर इंडिया ने वह कार्यवाही की जो उन्हें डेढ़ महीना पहले करनी चाहिए थी। क्या एयर इंडिया की उड़ान में भी अकेली महिला सुरक्षित नही है? नागरिक उड्डयन मंत्रालय को मामले को गम्भीरता से लेना चाहिए क्योंकि अधिक लोग हवाई सफ़र कर रहे हैं और अधिक संख्या में उजड्ड व्यवहार की शिकायतें मिल रही हैं।
व्यवस्था की लापरवाही या असफलता बहुत चिन्ता पैदा कर रही है। हम ‘सब चलता है’ की कार्य संस्कृति को छोड़ने को तैयार नहीं। हल्द्वानी में रेलवे की भूमि पर अतिक्रमण का मामला है। हाईकोर्ट ने एक सप्ताह में 50000 लोगों को बेघर करने का आदेश दे दिया। इस जाड़े में यह लोग किधर जाते? अब तो सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है पर यह लोग तो कई पीढ़ियों से यहाँ बसे हुए हैं। 4 सरकारी स्कूल, 11 प्राईवेट स्कूल, बैंक सब हैं। सवाल है कि अगर यह रेलवे की ज़मीन पर अतिक्रमण है तो 50-60 वर्ष से कार्यवाही क्यों नहीं की गई? आख़िर बिजली है, पानी है। कौन अधिकारी थे जिन्होंने यह होने दिया? क्या उन पर कभी कार्यवाही होगी? यह सवाल ज़रूरी है क्योंकि केवल हल्द्वानी ही नहीं देश भर में सरकारी ज़मीन पर अतिक्रमण हो रहें हैं। अनेक जगह रेलवे की अपनी ज़मीन पर क़ब्ज़े हो चुकें है। इन्हें समय रहते रोका क्यों नही गया? और मानवीय सवाल है कि क्या अब दशकों के बाद उन्हें उजाड़ना सही होगा? जोशीमठ में ज़मीन धँसने से प्राचीन शहर के भविष्य पर ही प्रश्न चिन्ह लग गया है। दरारें लगातार बढ़ रही है। समय रहते प्रशासन क्यों नहीं जागा? विशेषज्ञ इसे ‘मैन मेड डिज़ास्टर’, अर्थात् मानव रचित आपदा कह रहें हैं। 1976 नें पहली बार उस क्षेत्र में अनियंत्रित और भारी निर्माण के खिलाफ चेतावनी दी गई थी। उसके बाद भी लगातार विशेषज्ञ कह रहें हैं कि यह नाज़ुक क्षेत्र है जहां भूचाल आने की सबसे अधिक सम्भावना है। लेकिन हम बेधड़क बढ़ते गए। 2013 की महाबाढ़ में वहाँ 5000 लोग मारे गए। सुनामी के बाद यह सबसे भयंकर प्राकृतिक विनाश था। पर बिजली परियोजना बनती गईं, सड़कें बनती और चौड़ी होती गई। और अब तीर्थ स्थान जोशीमठ धँस रहा है। उजड़ रही, बिखर रही इन ज़िन्दगियों का क्या बनेगा?
संकट गहरा है। हम मूल्यहीन समाज बनते जा रहें हैं। जवाबदेही नहीं है। आदर्श नहीं रहे जो लोगों को प्रेरित करते हों। प्रधानमंत्री ने ‘कर्तव्य पथ’ की बात कही है, पर कर्तव्य की किसे चिन्ता है? यहाँ तो ‘मेरा हक़ एत्थे रख’ चलता है। स्कूलों में सख़्ती पर पाबंदी है। घर में बच्चों को पुचकारा जाता है, शिक्षा संस्थान डर डर कर चलते हैं। मिसाल कोई रही नही। सही नागरिक बनेंगे कैसे? उपर से व्यवस्था रज़ाई ओड़ कर सोई रहती है। जिनकी ज़िम्मेवारी दिशा देने की है वह इतने असुरक्षित हैं कि केवल चुनाव और वोट की चिन्ता है। इसीलिए इतनी अफ़रातफ़री है, तनाव है, विभाजन है। साहिर लुधियानवी की ग़ज़ल जिसे प्यासा फ़िल्म में मुहम्मद रफ़ी ने आवाज़ दी थी और जो तब भी प्रासंगिक थी और आज भी है, याद आती है:
यह लुटते हुए कारवाँ ज़िन्दगी के
कहाँ है, कहाँ है मुहाफिज खुदी के
जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहाँ है
कहाँ है, कहाँ हैं, कहाँ है !