समलैंगिक विवाह: हमें किस तरफ़ धकेला जा रहा है?, Same Sex Marriage: Let Legislature Decide

समय के साथ हर समाज में परिवर्तन आतें हैं, हमारे जैसे प्राचीन समाज में भी। महिला बराबरी और महिला सशक्तिकरण के मामले में हमने बहुत प्रगति की है चाहे अभी और प्रयास करने की ज़रूरत है। महिला बराबरी को लेकर यहाँ कई पूर्वाग्रह टूट रहें हैं क्योंकि इस सही प्रयास से समाज की सहमति है। पर यही एक और प्रयास के बारे नहीं कहा जा सकता जिसको लेकर सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही है। पाँच सदस्यों वाली पीठ समलैंगिक सम्बंधों को क़ानूनी मान्यता देने के मामले की सुनवाई कर रही है। अर्थात् सबसे बड़ी अदालत में इस बात पर बहस हो रही है कि पुरुष का पुरुष के साथ और महिला का महिला के साथ विवाह हो सकता हैं या नहीं ? ‘विवाह’ की जो परिभाषा सदियों से चली आती है उसे बदलने और उसका शीर्षासन करवाने पर गम्भीर विचार हो रहा है। सरकार बार बार सही कह रही है कि कि यह मामला समाज से जुड़ा है और समाज की राय ली जानी चाहिए और  समाज की राय संसद के द्वारा ही व्यक्त की जा सकती हैं। इसलिए मामला पहले संसद में लाया जाना चाहिए और बहस होनी चाहिए। पर यहाँ उल्टा हो रहा है। संसद में इस मामले पर बहस नहीं हुई पर न्यायपालिका इस पर फ़ैसला सुनाएगी।

हमारा समाज यह स्वीकार कर चुका है कि समलैंगिकता अपराध नहीं और इस वर्ग का उत्पीड़न और शोषण नहीं होना चाहिए। पर आपसी ‘विवाह’ तो बहुत अलग बात है। अभी तक संयुक्त राष्ट्र में दर्ज 193 देशों में से केवल 34 देश ऐसे हैं जो सेम-सैक्स मैरिज अर्थात् समलैंगिक विवाह की इजाज़त देतें है जो कुल मिला कर विश्व की जनसंख्या का 17 प्रतिशत है। यह देश भी अधिकतर अमेरिका और योरूप में है। वहाँ पारिवारिक व्यवस्था की क्या हालत है वह सब जानते है। एशिया में केवल दो देश है जो सेम- सेक्स मैरिज की इजाज़त देते हैं। चीन और रूस में तो इसकी वकालत करना या माँग करने पर ही पाबंदी है। जहां इसकी इजाज़त है उन देशों ने भी समलैंगिकता को ग़ैर-अपराधी घोषित किए जाने और समलैंगिक विवाह तक पहुँचने में बहुत समय लगाया है। हमारी तरह फटाफट समाज को तैयार किए बिना उन्होंने छलांग नहीं लगाई। ब्रिटेन में समलैंगिकता को ग़ैर- अपराध घोषित करने और समलैंगिक विवाह का सफ़र तीन दशकों में पूरा किया। फ़्रांस में दो शताब्दी में यहाँ पहुँच गए। और वहाँ भी बड़ा विरोध हुआ था। और हम? हम इतनी जल्दी में हैं कि पाँच साल में सुप्रीम कोर्ट गम्भीरता से इस पर बहस कर रहा है।

विवाह की जो परम्परा है वह सदियों पुरानी है जिसमे एक पुरूष और एक महिला इकट्ठे  संतान पैदा करते है। यह हमारे संस्कारोँ पर आधारित है।  सितंबर 1998 में अदालत ने कहा था, “विवाह विपरीत लिंग के बीच पवित्र मिलन है… इस तरह जब दो जीवन इकट्ठे होते हैं तो नया  जीवन अस्तित्व में आता है। इसी तरह इस पृथ्वी पर जीवन चलता रहता है”। अगर पुरूष का पुरूष के साथ और महिला का महिला के साथ विवाह होना है तो जीवन  कहाँ से आएगा ? ‘जीवन’  इनके लिए कोई और पैदा करेगा? चर्चा में कहा गया कि विवाह की धारणा को फिर से परिभाषित करने की ज़रूरत है।पर इस  कथित ज़रूरत की माँग समलैंगिक वर्ग के सिवाय और तो कोई कर नहीं रहा। फिर आप उसे बदला क्यों जाए जो सदियों से समाज और परिवार को स्थायित्व देता आया है ? सामान्य वर्ग से तो बदलने की कोई माँग नहीं उठ रही। सरकार ने समलैंगिक विवाह को अर्बन इलीट अर्थात् शहरी विशिष्ट वर्ग की माँग कहा है जिस पर सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि सरकार के पास यह कहने का कोई डेटा नहीं है। पर यह भी तो हक़ीक़त है कि कोई डेटा उपलब्ध नहीं कि समाज  समलैंगिक विवाह चाहता है। बार कौंसिल ऑफ इंडिया ने भी एक प्रस्ताव पारित कर सुप्रीम कोर्ट से निवेदन किया है कि 99.9 प्रतिशत लोग समलैंगिक विवाह के खिलाफ है इसलिए मामला विधानमंडल पर छोड़ दिया जाना चाहिए। बार कौंसिल का कहना है कि अदालत द्वारा विवाह जैसी बुनियादी अवधारणा को ओवरहाल करना ‘विनाशकारी’ होगा। और “सर्वोच्च अदालत का ऐसे संवेदनशील मामले में फ़ैसला आने वाली पीढ़ियों के लिए बहुत हानिकारक हो सकता है”।

एक ‘परिवार’ का अर्थ एक जैविक पति और एक जैविक पत्नी और उनके मेल से पैदा संतान है। बच्चों की परवरिश के लिए भी एक बाप और एक माँ का होना सबसे बढ़िया है। अगर दो फादर होंगे या  दो मदर होंगी तो अजब स्थिति बन जाएगी। आजकल तो ग़ज़ब स्थिति बन रही है कि पुरूष का ही पुरूष हसबेंड है और महिला की ही महिला  वाइफ़ है! मामला बहुत जटिल है जो बात माननीय न्यायाधीशों ने भी स्वीकार की है। तो बेहतर नहीं होगा कि मामला जन प्रतिनिधियों पर छोड़ दिया जाए जिनकी क़ानून बनाने या बदलने की ज़िम्मेदारी है? उसके बाद सुप्रीम कोर्ट अपनी राय दे सकता है।  सरकार सही कह रही है कि समलैंगिक विवाह भारतीय परिवार की अवधारणा के अनुरूप नहीं है जहां पिता, माता और बच्चे हैं। हमारे जैसे प्राचीन और विविध मान्यताओं वाले देश में ऐसे विध्वंसक कदम, जो मूल समाजिक ढाँचे से छेड़खानी करता हो, को उठाने से पहले संसद को सारा मामला जाँच करने दिया जाना चाहिए।  पश्चिम का दिखाया रास्ता हमारी मान्यताओं से मेल नहीं खाता। इसलिए निवेदन है कि एक छोटे वर्ग को संतुष्ट करने के लिए  हमें उस तरफ़ धकेलने की कोशिश नहीं होनी चाहिए जिस तरफ़ हम जाना नहीं चाहते।

एक और रास्ता है जिस तरफ़ हमें धकेलने की कोशिश की जा रही है जो बराबर विनाशक रहेगी। राहुल गांधी ने उस जाति जनगणना का समर्थन कर दिया है जिसका आज़ादी के बाद से कांग्रेस विरोध करती आ रही है।   राहुल गांधी ने जिस तरह समय सीमा में सभी कर्मचारियों का धन्यवाद करते अपना सरकारी बंगला ख़ाली कर दिया वह गुलाम नबी आज़ाद जैसे लोगों के लिए मिसाल होनी चाहिए जो सरकारी बंगलों से चिपके बैठे हैं जबकि अधिकारी नहीं रहे। पर राहुल कई बार विवेक का बहुत इस्तेमाल नहीं करते जो जाति जनगणना को उनके समर्थन से पता चलता है। वह शायद दबाव में थे क्योंकि उनके द्वारा मोदी उपनाम पर की गई अनावश्यक टिप्पणी से वह भाजपा के निशाने पर हैं कि ओबीसी का अपमान किया है। इसलिए बाज़ी पलटने के प्रयास में इस घातक जनगणना की वकालत कर बैठे हैं। नेहरू, पटेल, अम्बेडकर, इंदिरा, राजीव गांधी सब इसका विरोध कर चुकें हैं। जवाहरलाल नेहरू ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिख कर जाति और धर्म आधारित आरक्षण का विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि, ‘  जाति या धर्म के आधार पर आरक्षण से सक्षम लोगों और प्रतिभा का दर्जा कम होता है’। अर्थात् वह तो मैरिट की बात कर रहे थे पर आज के भारत में मैरिट की बात करना तो जुर्म बनता जा रहा है। सोनिया गांधी भी कह चुकीं हैं कि, ‘मेरी जाति हिन्दोस्तानी’। पर राहुल गांधी नीतीश कुमार के पीछे चल रहें हैं जो जाति जनगणना को बड़ा मुद्दा बनाना चाहते हैं क्योंकि भाजपा  अपने सवर्ण वोट के कारण  इसे समर्थन नहीं देगी।  अर्थात् एक बार फिर वैसी स्थिति बनाने की कोशिश हो रही है जिस दौरान वी पी सिंह प्रधानमंत्री बनने में सफल हो गए थे।

नीतीश कुमार अपने शासन  की असफलता से ध्यान हटाने के लिए जाति जनगणना का मुद्दा उठा रहें हैं कि जैसे यह ही हर समस्या का इलाज है। बिहार को और आरक्षण नहीं चाहिए, उसे शोचनीय शासन से मुक्ति  चाहिए। रोज़ गाड़ियाँ भर भर कर बिहारी दूसरे प्रदेशों में रोज़गार की तलाश में भटकने निकलते है। हज़ारों छात्र कोचिंग के लिए राजस्थान में कोटा जाने के लिए मजबूर हैं क्योंकि अपने प्रदेश में शिक्षा का स्तर निम्न  है। उत्तर प्रदेश में विकास के लिए सक्रियता नज़र आती है पर बिहार ? कहा जा सकता है कि वही चाल बेढंगी जो पहले थी वह अब भी है ! अब राहुल गांधी 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा को ख़त्म करने की माँग का समर्थन कर जदयू, सपा, बसपा, राजद, द्रमुक के साथ खड़े हैं। वह चाहतें हैं कि यह पता चले कि  कौन सी जाति के कितने लोग हैं ‘ताकि उस अनुपात से उन्हें अधिकार दिया जा सके’।  मूल सवाल है कि भारत है क्या? क्या हम एक राष्ट्र हैं या जातियों, उपजातियों,कबीलो, उप- क़बीलों का एक दूसरे से ईर्ष्या करता जमघट है? और यह जात, बिरादरियाँ, कबीले आदि हैं कितने? 2011 में की गई समाजिक, आर्थिक और जाति जनगणना के अनुसार  4673034 जातियों और उप- जातियों का पता चला था। जहां इतनी भयंकर संख्या हो वहाँ यह पिटारा खोलना बहुत ख़तरनाक होगा। और कुछ हज़ार सरकारी नौकरियों का बँटवारा इनमें कैसे होगा? जो वंचित हो जाएँगे उन्हें कैसे सम्भाला जाएगा? समाज में भारी अशान्ति फैलाने का यह नुस्ख़ा है। हिंसा भी हो सकती है।

और अगर जाति  ही योग्यता है तो क्या इसी अनुपात से संसद और विधानसभाओं की सीटों का भी निर्धारण होगा और एक दिन न्यायपालिका में भी यही योग्यता होगी? आख़िर सब को बराबरी मिलनी चाहिए। देश मे 80 करोड़ लोगों को मुफ़्त राशन ग़रीबी के आधार पर मिल रहा है पर अगर जाति ही अधिकार बन गई तो क्या सवर्ण जाति के गरीब भूखे मरेंगे? संविधान सबको बराबरी का वादा करता है पर हम इस बराबरी के रास्ते में रूकावटें खड़ी करतें जा रहे है और समाज को और उलझा रहें हैं। मंडल आयोग की सिफ़ारिशों लागू होने से सबसे अधिक नुक़सान कांग्रेस का हुआ था। उसकी ज़मीन पर जाति आधारित पार्टियों ने क़ब्ज़ा कर लिया था अब उसे वापस लेने का प्रयास हो रहा है। पर समाज तो और बंट जाएगा।   डा. भीमराव अम्बेडकर का विचार था कि आरक्षण केवल 10 वर्ष तक ही  रहे। हम उनकी तस्वीरें और बुत्त तो बहुत लगातें है पर उनकी इस राय की उलट दिशा में चल रहें हैं। 

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About Chander Mohan 736 Articles
Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.