पिछले लेख में मैंने अमरनाथ यात्रा का ज़िक्र किया था। अब तक लगभग 4 लाख यात्री दर्शन कर चुकें हैं। हर साल यात्रा का सफल आयोजन देश का संकल्प भी व्यक्त करता है। इस बार भी चप्पे चप्पे पर सुरक्षा कर्मी तैनात थे। यात्रा के कारण यातायात में भारी रूकावट भी आती है। श्रीनगर से पहलगाम के रास्ते में हमें एक घंटा अधिक लग गया क्योंकि जब यात्रा का क़ाफ़िला गुजर रहा होता है तो दूसरी तरफ़ से ट्रैफ़िक रोक दिया जाता है। यह रास्ता भी पुलवामा, कुलगाम और अनंतनाग के क्षेत्रों से गुजरता है जो आतंकवाद के लिए कुख्यात हैं इसलिए अत्यंत सावधानी बरती जाती है। पुलवामा विशेष तौर पर सुर्ख़ियों में रहा क्योंकि वहाँ फ़रवरी 2019 में हमारे 40 जवान कार बम विस्फोट में शहीद हो गए थे। मुख्य रास्ते से कुछ दूर अवंतीपुर है जहां राजा अवंतीवरमन ने 9 वीं सदी में एक भव्य मंदिर बनाया था। अब इस मंदिर की हालत बहुत अच्छी नहीं बताई जाती। टैक्सी ड्राइवर ने बताया कि ‘यह पांडवों की धरती है’। मुझे इस बारे कोई जानकारी नहीं है। लेकिन कश्मीर में जगह जगह हिन्दू सभ्यता के अवशेष मिलते हैं चाहे यह मट्टन का मारटंड सूर्य मंदिर हो या श्रीनगर का शंकराचार्य मंदिर, सब साक्षी है कि यह धरती वास्तव में किस सभ्यता का प्रतिनिधित्व करती है। विशेष दुख होता है कि मट्टन में जो पंडित परिवार रहते थे जिनके पास हमारे समेत हज़ारों परिवारों का इतिहास संकलित था, वहाँ से निकलने पर मजबूर कर दिए गए। कश्मीरियत को इससे बहुत गहरी चोट पहुँची थी।
यात्रा के कारण पहलगाम में प्रवेश से पहले सब को वाहनों से निकाल दिया जाता है और सामान को मशीनों से गुज़ारा जाता है। रास्ते की असुविधा के बावजूद ज़रूर कहना चाहूँगा कि पहलगाम अत्यंत सुन्दर जगह है। ठीक बीच ग्लेशियर से निकले बर्फीले पानी के साथ लिद्दर नदी बहती है। ऊँचे पेड़ है, हरियाली है और पानी है। इंसान की सारी थकावट एक क्षण में समाप्त हो जाती है। पहलगाम के पास ही बेताब वैली और अरू वैली है। दोनों ही वादियों में बहुत दिलकश नजारें हैं। बेताब वैली की कहानी भी दिलचस्प है। यहाँ सन्नी दियोल और अमृता सिंह की पहली फ़िल्म बेताब फ़िल्माई गई थी, तब से यह नाम पड़ गया। अरू एक प्रकार से अनछुई वादी है जो योरूप के एल्प क्षेत्र की याद ताज़ा करती है। हम चंदनवाड़ी भी जाना चाहते थे पर यात्रा के कारण वह जगह ग़ैर -यात्रियों के लिए बंद थी। और यह भी हमें बताया गया कि वह पुरानी चंदनवाड़ी नहीं रही यात्रा के कारण बहुत गंद पड़ता है। हमारे लोग भक्ति के साथ सफ़ाई कब सीखेंगे? पहलगाम से अमरनाथ की गुफा के लिए हैलीकाप्टर सर्विस भी है। हर 5-10 मिनट के बाद हैलीकाप्टर उड़ान भरता है। आने जाने का किराया 8400 रूपए है। हैलीकाप्टर गुफा से 6 किलोमीटर दूर छोड़ देता है पर आगे का रास्ता काफ़ी विकट है। कई बार अचानक मौसम ख़राब हो जाए तो हैलीकाप्टर नहीं आता और आप उपर टंगे रह जाते हो। लेकिन ज़हन में एक सवाल ज़रूर उठता है। जब हमारे मंदिर या दूसरे धर्म स्थल ऊँचे पहाड़ों पर बनाए गए तो सब के लिए बराबर व्यवस्था थी। अगर अब महंगे हैलीकाप्टर से ही जाना है तो क्या इसे तीर्थ यात्रा कम और धार्मिक टूरिज़्म अधिक नहीं कहा जाएगा? पर यह मेरा व्यक्तिगत विचार हैं।
जैसे मैंने पहले भी लिखा है चारों ओर सामान्य स्थिति के प्रमाण मिलते हैं। पाकिस्तान के पतन, जो अब भी जारी है, ने भी बहुत मदद की है। वहाँ का आकर्षण समाप्त हो गया। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि पत्थरबाज़ी की घटनाऐं जो 2018 में 1767 थी 2023 में अब तक शून्य है। 2018 में सुनियोजित बंद या हड़ताल की 52 घटनाएँ हुईं जबकि अब तक 2023 मे एक भी ऐसी घटना नहीं हुई। 32 साल से श्रीनगर में सिनेमा बंद रहे क्योंकि शहर के ठीक बीच स्थित रीगल सिनेमा पर आतंकवादियों ने ग्रनेड का हमला कर दिया था जिसमें एक व्यक्ति मारा गया था। फिर शाहरुख़ खान की पठान सुपरहिट हुई और अब तो वहाँ मल्टीपलैक्स भी खुल गया है। 34 साल के बाद श्रीनगर में मुहर्रम का जुलूस शांतमय ढंग से निकला गया। 1990 के दशक में जलूस के दौरान हिंसा के कारण इस पर पाबंदी लगा दी गई थी। राज्यपाल मनोज सिन्हा खुद शामिल हुए। ऐसी तो पहले कल्पना ही नहीं की जा सकती थी।
यहाँ एक बात और मैं कहना चाहूँगा कि वहाँ जो अच्छे दिन आए हैं वह स्थानीय नेताओं के सहयोग से नहीं, उनके बावजूद आए हैं । कश्मीर में तो एक प्रकार का राजनीतिक शून्य है। चुनाव हो नही रहे, प्रदेश दो हिस्सों में बँटा हुआ है। जम्मू कश्मीर देश के संवैधानिक इतिहास में एक मात्र मिसाल है जहां एक प्रदेश का दर्जा घटा कर उसे यूटी में परिवर्तित कर दिया गया है। कहीं कहीं चुनाव करवाने की माँग उठती है जबकि सरकार का कहना है कि जब परिसीमन और सम्बंधित कार्यवाही ख़त्म हो जाएगी तो चुनाव करवा लिए जाऐंगे। नैशनल कांफ्रेंस के नेता तनवीर सादिक़ का कहना है कि “ केन्द्र का शासन कभी भी निर्वाचित सरकार का विकल्प नहीं हो सकता”। बात ग़लत तो नहीं पर यह भी तो हक़ीक़त है कि विभिन्न निर्वाचित सरकारों के कार्यकाल में ही जम्मू कश्मीर का इतना बेडागर्क हुआ था और अमन तब क़ायम हुआ जब नेताओं को एक तरफ़ बैठा दिया गया। एक बात और जिसका आपको अहसास होता है वह यह कि लोग अपने कथित नेताओं को पसंद नहीं करते और कुछ से तो बाक़ायदा नफ़रत करते हैं। जब लोगों से पूछा जाए कि वह किस नेता को चाहते हैं तो आम जवाब यही मिलता है कि किसी को नहीं। एक ने वहाँ 2014 में आई बाढ़ जिसमे 300 लोग मारे गए थे का ज़िक्र करते हुए बताया कि उसका घर बह गया था। जब मैंने पूछा कि मुआवज़ा नहीं मिला क्या? तो जवाब मिला कि पैसा तो आया था पर ‘वो’ खा गया। यहाँ ‘वो’ से अभिप्राय एक बड़े कश्मीरी नेता से था। महबूबा मुफ़्ती के बारे बताया गया कि ‘उसे तो मोदी ने ख़त्म कर दिया’।
हुर्रियत नेताओं का भी कहीं नामोनिशान नज़र नहीं आता। यह लोग बहुत साल देश को ब्लैकमेल करते रहे। जब हमारे नेता बुलाते तो कई बार शर्तें रख कर आने से मना कर देते पर जब भी पाकिस्तान का राजदूत बुलाता तो नई शेरवानी सिलवा कर पहुँच जाते। अब उनकी दुकान का भी शट्टर डाउन है। केन्द्र अक्तूबर नवम्बर में पंचायत चुनाव करवाना चाह रहा है। अगर वह सही हो जाते हैं तो विधानसभा के चुनाव करवाए जा सकते हैं। लेकिन यह सब भविष्य के गर्भ में है क्योंकि यह आशंका भी है कि अगर फिर राजनीतिज्ञों को खुला छोड़ दिया गया तो पुराना बुरा समय न लौट आए। पर एक न एक दिन तो चुनाव करवाने पड़ेंगे और जम्मू कश्मीर का स्टेटहुड बहाल करना पड़ेगा। यह भी हो सकता है राजनेता सबक़ सीख गए हों। यह भी दिलचस्प है कि सबसे अधिक लोकप्रियता वहाँ एक ग़ैर कश्मीरी की है। राज्यपाल मनोज सिन्हा को पसंद किया जाता है और स्थिति के सुधार का श्रेय दिया जाता है। उनका भी कहना है कि ‘हम शान्ति ख़रीदने मे नहीं बल्कि उसे स्थापित करने में विश्वास रखते हैं’। यह पहले से बहुत अलग नीति है। पहले नेताओं को ख़रीदा जाता था। कई तो दोनों भारत और पाकिस्तान से पैसे लेते थे। उन्हें अप्रासंगिक बना कर पैसे बाँटने की ज़रूरत नहीं रही। सीधा लोगों से सम्पर्क है जिसके अच्छे नतीजे सामने हैं।
चार साल पहले अगस्त 5-6, 2019 को अनुच्छेद 370 जो जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देता था हटा दिया गया। क्या यह कदम सही था? इस पर सुप्रीम कोर्ट मे बहस चल रही है इसलिए इसकी संवैधानिकता पर टिप्पणी नहीं करना चाहता पर तीन विचार रखना चाहता हूँ। एक, अगर यह अनुच्छेद न होता तो अलगाववाद की इतनी प्रबल भावना पैदा न होती, और न कश्मीरी पंडितों को वहाँ से निकलना पड़ता। दूसरा, इससे पाकिस्तान को दखल देने का मौक़ा मिल गया कि अभी जम्मू कश्मीर का स्टेट्स तय नहीं हुआ। तीसरा, इसे हटाने के बाद ही वह प्रक्रिया शुरू हुई जिसने वहां सामान्य जीवन बहाल कर दिया। ‘रा’ के पूर्व निदेशक ए.एस.दुल्लत जिन्होंने कश्मीर पर अपनी किताब में लिंखा है, “ कश्मीरियों में फारूक अब्दुल्ला एकमात्र कश्मीरी थे जो सदा भारत के साथ खड़े रहे” का अब कहना है कि ‘वहाँ अलगाववाद मर चुका है’।लेकिन उनका यह ज़रूर कहना है कि चुनी हुई सरकार जल्द क़ायम होना चाहिए और बातचीत चलती रहना चाहिए। कई सरकार की आलोचना कर रहें हैं। कश्मीर पर सरकारी वार्ताकार रही राधा कुमार की शिकायत है कि वहाँ ‘ संवेदना के बिना सामान्य स्थिति क़ायम है’। यह तो आलोचना के लिए आलोचना है। क्या पहला समय अधिक संवेदनशील था जब सब कुछ अस्त व्यस्त था? जब लोग घरों में दुबके बैठे थे और कश्मीर के बारे रोज़ बुरी खबर निकलती थी?
ऐसी आलोचना निराधार है। पहली बार आशा का अहसास है। टूरिस्ट आ रहे हैं, पत्थरबाज़ी बंद हो गई है, मार्केट और स्कूल खुले हैं, नए स्टार्ट -अप शुरू हो रहे है। टैंकनालिजी का इस्तेमाल कर क़ालीन और शालों के डिसाईन कम्प्यूटर पर बनाए जा रहे हैं। अब तो शिकारे से एमेज़ौन का सामान हाउसबोट तक पहुँचाया जा रहा है। जिनकी सोच और मेहनत से हालात सही हुए हैं उनकी सराहना होनी चाहिए। हां, कुछ आशंका अभी बची है। छुट्टी पर आए सेना के जवान को कुलगाम में अगवा कर लिया गया है। मुठभेड़ में हमारे तीन जवान शहीद हो गए। अर्थात् मिलिटैंसी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई, जो बात वहाँ के डीजीपी ने भी मानी है। अभी भी सावधान रहने की ज़रूरत है। दूसरा, कश्मीरी पंडितो की वापिसी नहीं हो रही। उनके लिए ट्रांसिट आवास बनाया जा रहा है। जिस दिन पूरी तरह सुरक्षित कशमीरी पंडित लौटना शुरू कर देंगे उस दिन समझ जाऐंगा कि समस्या पूर्णतः ख़त्म हो गई है। उस दिन कश्मीर में कश्मीरियत फिर से बहाल हो जाएगी।