बेहतर होता कि खेलते ही नही, Why Play At All

क्रिकेट को कभी जैंटलमेंस गेम अर्थात् शरीफ़ लोगों का खेल कहा गया था। जैसे टैनिस है। टैनिस में तो अभी भी कुछ शराफ़त बची है जो विम्बलडन में देखने को मिलती है पर क्रिकेट तो अब ‘गोलीबारी के बिना युद्ध’ बन चुका है। 1996 के विश्व कप में भारत और पाकिस्तान के बीच मुक़ाबला पर लेखक माइक मारकूज़ ने अपनी किताब का टाइटल War Minus The Shooting दिया था। अर्थात् युद्ध है केवल गोलियाँ और बम नहीं चल रहें। तब से लेकर अब तक मुक़ाबला और विस्फोटक बन चुका है जैसा हम हाल ही में एशिया कप में देख कर हटें है। पहलगाम के हमले के कुछ महीनों बाद मैच में तनाव तो होना ही था पर इस बार तो शराफ़त बिल्कुल छोड़ दी गई। मैच के बाद भारतीय टीम ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों से हाथ मिलाने से इंकार कर दिया और कप्तान सूर्य कुमार यादव ने पहलगाम के हमले का हवाला देते हुए जीत को सशस्त्र सेना को समर्पित कर दिया। पाकिस्तान के साहिबज़ादा फ़रहाना ने अपना अर्धशतक बनाने के बाद अपने बैट को काल्पनिक गन बना कर भारतीय दर्शकों की तरफ़ कर दिया। हारिस राऊफ ने भारतीय दर्शकों को उत्तेजित करने के लिए जहाज़ के गिरने की नक़ल उतार दी।

भारत और पाकिस्तान के खिलाड़ियों के बीच पहले भी तनाव रहा है पर ऐसा असभ्य रवैया जैसा पाकिस्तानियों ने दिखाया है वह पहले देखने को नहीं मिला। 1961 और 1978 के बीच दो युद्ध के कारण क्रिकेट सम्बंध टूट गए थे। 2007 के बाद दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय मैच नहीं हुए लेकिन दूसरी जगह हम आपसी मैच खेलते रहे। आस्ट्रेलिया के खिलाड़ी जिसे ‘सलैजिंग’ कहा जाता है, अर्थात् जानबूझकर कर दूसरे का अपमान करना, ताकि खेल से ध्यान भटक जाए के लिए कुख्यात रहें हैं। पर जैसे जैसे हमारे खेल का स्तर ऊँचा हुआ है हमारे प्रति वह अब सावधान हो गए है। पर भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट किसी और ही ग्रहपथ में पहुँच चुका है। जहां तक हाथ न मिलाने का सवाल है, मेरा अपना मानना है कि अगर खेलने ही लगे हो तो हाथ भी मिला लेना चाहिए। और अगर इतनी तकलीफ़ है तो खेलों ही मत। नाचने लगे तो घुंघट कैसा ! बड़े खिलाड़ी कपिल देव ने भी कहा है कि “हाथ मिलाना कोई बड़ी बात नहीं है”। पाकिस्तान के साथ खेलने या न खेलने का फ़ैसला सरकार करती है या बीसीसीआई करता है खिलाड़ी तो वह करतें हैं जो उन्हें कहा जाए। यह भी समाचार है कि कैमरे से दूर दोनों देशों के खिलाड़ी एक दूसरे को सभ्य तरीक़े से मिलतें हैं।

पहलगाम को लेकर यहाँ भावना बहुत उत्तेजित है। क्रिकेट का एशिया कप कोई बड़ी तोप नहीं है न भी खेला जाता तो आफ़त न आ जाती। बाक़ी टीमों का कोई महत्व ही नहीं है। पैसा वसूल केवल भारत और पाकिस्तान के मैच से होता है।  दोनों देशों के क्रिकेट बोर्ड के हित में हैं कि मैच होते रहें ताकि ख़ज़ाना भरता रहे। इसीलिए दोनों बोर्ड उत्तेजना या टेंशन को बुरा नहीं मानते पर इस बार तो यह नियंत्रण से बाहर निकल गए।  यह भी अफ़सोस की बात है कि पाकिस्तान की U-17 फुटबाल की टीम ने भी हारिस रऊफ़ के विमान गिरने वाले प्रदर्शन को दोहराया।   

पर सदैव ऐसा नहीं था। शशि थरूर ने याद करवाया है कि कारगिल के युद्ध के दौरान जब दोनों तरफ़ के सैनिक मारे जा रहे थे और स्टेडियम में भी झड़पें हुईं थी और तीन लोग गिरफ़्तार भी किए गए, तब भी मैच के बाद दोनों टीमों ने हाथ मिलाएँ थे। मुहम्मद अज़हरुद्दीन के नेतृत्व में भारत जीत गया पर युद्ध के बावजूद दोनो टीमों ने परिपक्वता दिखाई। पर जैसा इस देश में आजकल सामान्य है, जो समझदारी की बात करता है उसे ट्रोल किया जाता है। शशि थरूर के साथ भी ऐसा ही हुआ।कईयों ने उन्हें यह याद दिलवाने के लिए फटकार लगाई है। मुम्बई हमले के तीन साल बाद मार्च 2011 में प्रधानमंत्री मनमनोहन सिंह ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी को मोहाली में भारत- पाक मैच देखने के लिए आमंत्रित किया था। गिलानी आए और यह मैच हमने 29 रन से जीत लिया। इससे भी पहले फ़रवरी 1987 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़िया उल हक़ ने मैच देखने कि लिए खुद को जयपुर में आमंत्रित कर लिया। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और नरेन्द्र मोदी दोनों लाहौर गए थे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नहीं गए। इमरान खान और बॉलीवुड अभिनेत्रियों के ‘चक्करों’ की कहानियाँ आम थी। वह जमाना था जब स्पर्धा केवल मैदान तक सीमित थी। गावस्कर, द्रविड़ और लक्ष्मण की बैटिंग की चर्चा होती थी तो वसीम अकरम, वकार यूनुस और शोएब अख़्तर की कला की भी चर्चा थी। कई क्षण अवश्य ऐसे आए जब हुल्लड़बाजी हुई। बैंगलुरु में 1996 के वर्ल्ड कप के दौरान दर्शकों ने जावेद मियाँदाद के खिलाफ नारेबाज़ी की पर आख़िर में जो याद है वह कि बहुत रोमांचित क्रिकेट खेला गया।

 भाषा, खानपान,संगीत और संयुक्त इतिहास के कारण रिश्ता सभ्य रहा। गोरे देशों के विरूद्ध एक प्रकार की साँझ भी रही। टेनिस में रोहन बोपन्ना और पाकिस्तान के एसीम-उल- क़ुरैशी पार्टनर रहें है। जोड़ी को ‘इंडो-पाक एक्सप्रेस’ कहा जाता था। किसी ने एतराज़ नहीं किया। नीरज चोपड़ा और पाकिस्तान के अरशद नदीम की दोस्ती जगज़ाहिर थी पर बीच में राजनीति आ गई और टोक्यो में तो दोनों ने नज़रें भी नहीं मिलाई। सब एकदम बदल गया है। खेल पर राष्ट्रवाद हावी हो गया। पहलगाम के कारण यहाँ मूड बदल गया। टीवी स्टूडियो मैदान-ए-जंग बन गए। हर बात, हर हरकत को लेकर भड़काया जाता है। पाकिस्तान के खिलाड़ियों की बचकाना हरकतों को लेकर चर्चा में जनरल स्तर के अफ़सर शामिल हुए। माहौल में जो बदलाव आया है उसका एक और दिलचस्प कारण बताया गया है। वह पीढ़ी जिसने विभाजन सहा या देखा पर फिर भी रिश्ता क़ायम रखना चाहती थी, वह धीरे धीरे ख़त्म हो रही है। कुलदीप नय्यर या ख़ुशवंत सिंह या इंद्रकुमार गुजराल जैसे लोग जो आपसी सम्बंध रखना चाहते थे अब नहीं रहे। वाघा सीमा पर कैंडल मार्च अब नहीं होते। अब एक नई पीढ़ी है जिसमे अधिक आत्म विश्वास है और जो पहलगाम जैसी हरकत माफ़ करने को तैयार नहीं। पाकिस्तान के बारे उनका कोई रोमांटिक नज़रिया नहीं है। बार बार आतंकी हमले कर पाकिस्तान ने उन लोगों को ख़ामोश करवा दिया जो बेहतर आपसी सम्बन्ध चाहते हैं।

पाकिस्तान भी बदल गया। साहिबज़ादा फ़रहाना द्वारा अर्धशतक बनाने पर बैट को बंदूक़ की तरह दिखाने पर इसका स्पष्टीकरण जहाक तनवीर ने यह दिया है, “दशकों के उग्रवाद और सैन्यीकरण के कारण पाकिस्तान में हिंसा को संस्कृति के तौर पर गौरवान्वित किया जाता है”। पर पाकिस्तानी यह भूलतें हैं कि देश में खेल का हाल देश के हाल से बेहतर नहीं हो सकता। टीवी तोड़ने से कुछ नहीं होगा। पाकिस्तान एक दिवालिया देश है जो बार बार गॉडफ़ादर बदलता है। साऊदी अरब और चीन के बाद अब डानल्ड ट्रम्प की अस्थिर गोद में बैठने की तैयारी है। हमारी जीडीपी उनसे 10 गुना बड़ी है। अंतराष्ट्रीय स्तर पर भारत की प्रतिष्ठा लगातार बढ़ रही है इसीलिए कई बार जब हमारे टीवी स्टूडियो में पाकिस्तान को लेकर इतना हो-हल्ला होता है तो हैरानी होती है। वह हमारे बराबर है ही नही फिर इतने गरजने और भड़कने की क्या ज़रूरत है? उन्होंने पहलगाम में आतंकी हमला करवाया। हमने आपरेशन सिंदूर से उचित जवाब दे दिया। टीवी स्टूडियो का हिस्टीरिया समझ नहीं आता। यह तो मैं मानता हूँ कि खेल ज़मीन के माहौल से अलग नहीं किया जा सकता पर एक उभरती हुई महाशक्ति को एक छुटभैया देश के साथ इस तरह तू तू मैं मैं में उलझना नहीं चाहिए। जीत पर जश्न मनाना जायज़ है पर चीखते चिल्लाते टीवी एंकर केवल असुरक्षा की भावना ही प्रकट करते हैं।

एशिया कप हम अच्छी तरह जीत गए। तीन बार पाकिस्तान को हराना आनन्द देता है। संतोष है कि हमारी अगली पीढ़ी तैयार है। महेन्द्र सिंह धोनी, रोहित शर्मा और विराट कोहली के बाद क्या होगा, इस सवाल का जवाब मिल गया है, शुभमन गिल और अभिषेक शर्मा। फ़ाइनल हम ‘आपरेशन तिलक’ के कारण जीते। तिलक वर्मा में भी असाधारण प्रतिभा है।लेकिन जीत के बाद भी तमाशा चलता रहा। हमारे खिलाड़ियों ने पाकिस्तान बोर्ड के अध्यक्ष और उनके मंत्री मोहसिन नकवी से ट्राफ़ी लेने से इंकार कर दिया। प्रधानमंत्री मोदी ने खेल में जीत को ‘आपरेशन सिंदूर’ से जोड़ दिया। पाकिस्तान की टीम भी ड्रैसिंग रूम से बाहर नहीं आई। नकवी भी यह कह कर कि यह मेरी ट्राफ़ी है मैं ही दूँगा और कोई नहीं देगा, उसे अपने कमरे में ले गया। किसी भी खेल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि जिसने ट्राफ़ी देनी है वह ही ट्राफ़ी ले कर भाग गया ! यह तमाशे यह सवाल ज़रूर खड़ा करतें हैं कि क्या यह टूर्नामेंट खेला  भी जाना चाहिए था ? अगर हाथ नहीं मिलाने थे, ट्राफ़ी नहीं लेनी थी तो मैच ही नहीं खेलना चाहिए था। आख़िर सरकार कह रही है कि ‘आपरेशन सिंदूर’ जारी है फिर पाकिस्तान के साथ खेलने की क्या मजबूरी थी? इस तमाशे से तो बेहतर होता कि खेलते ही नही।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.