मोहन भागवत : विरासत,चुनौती और दायित्व, Mohan Bhagwat: Legacy, Challenge And Responsibility

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष की विजयदशमी रैली में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपने संदेश में बहुत सामंजस्यपूर्ण संदेश दिया। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति सब तरह की विभिन्नताओं का सम्मान करती है। उनका कहना था कि अगर कोई हिन्दू कहलाने में असहज महसूस करता है तो वह ख़ुशी से खुद को ‘भारतीय’ कह सकता है। उनका यह भी संदेश था कि हिन्दू समाज को ‘हम’ और ‘वह’ की मानसिकता से खुद को अलग रखना है और समुदायों के बीच उत्तेजना फैलाना अस्वीकार होना चाहिए। मोहन भागवत प्रधानमंत्री मोदी के बाद देश के दूसरे सबसे शक्तिशाली नहीं तो सबसे प्रभावशाली व्यक्ति हैं। संघ का प्रभाव तो पहले से ही था पर जिस तरह भागवत उसे नई दिशा दे रहें हैं उससे प्रासंगिकता और बढ़ रही है। सोशल मीडिया और एआई के जमाने में पुराने कई विचार बदल रहें हैं। इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि ख़ाकी निक्कर चले गई और जिस संगठन का नागपुर मुख्यालय सादगी के लिए जाना जाता है ने दिल्ली में चमकता हाई-टैक कार्यालय बना लिया है। समय के साथ बदलने की उनकी क्षमता से संघ के इतिहास में भागवत को विशेष स्थान मिलेगा। पहली बार लाल क़िले से देश के किसी प्रधानमंत्री ने आरएसएस की प्रशंसा की है। पर जहां इतना महत्व मिल रहा है वहाँ दायित्व भी बढ़ जाता है क्योंकि जम गईं मानसिकता और विचारधाराओं को बदलना बहुत बड़ी चुनौती है।

2009 में मोहन भागवत संघ के प्रमुख बने थे। उन्हीं के कार्यकाल में नरेन्द्र मोदी का उत्थान हुआ और राजनीतिक क्षेत्र में भाजपा का वर्चस्व क़ायम हो गया। इस दौरान संघ के प्रमुख लक्ष्य, धारा 370 हटाना या अयोध्या में राम मंदिर की स्थापना, पूरे हो गए। यह सब काम सरकारी, संसदीय या न्यायिक कदमों से शांतिमय ढंग से पूरे हुए। आभास मिला कि भाजपा और आरएसएस के बीच पूर्ण सामंजस्य है। पर जब भाजपा के नेतृत्व ने अहंकार का प्रदर्शन शुरू कर दिया और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने यहाँ तक कह दिया कि अब हमें संघ की ज़रूरत नहीं क्योंकि हम ‘सक्षम’ हैं, तो भागवत ने भी बताने में देर नहीं लगाई कि “सेवक में अहंकार नहीं होना चाहिए”। वह तो मोरोपंत पिंगले का ज़िक्र करते हुए कह चुकें हैं कि जो सार्वजनिक जीवन में हैं उन्हें 75 वर्ष के बाद दूसरों के लिए जगह छोड़ देनी चाहिए। बाद में उन्होंने अपनी बात को कुछ संशोधित कर दिया। और, 75 वर्ष की आयु पार करने पर न नरेन्द्र मोदी और न ही मोहन भागवत ही रिटायर हुए है! वैसे, अगर सब कुछ सही चल रहा है तो रिटायर होने की ज़रूरत भी नहीं।

 भाजपा और आरएसएस के नेतृत्व के बीच जो अविश्वास था वह समाप्त हो गया है पर भागवत भाजपा की खींचाई करने का मौक़ा नहीं छोड़ते। जब जेपी नड्डा जिनका कार्यकाल डेढ़ साल पहले ख़त्म हो चुका है, के उत्तराधिकारी के बारे पूछा गया कि क्या संघ से मतभेद के कारण मामला लटक रहा है तो भागवत का कटाक्ष था कि “हम तय करते तो इतना समय लगता क्या”? पर यह तो स्पष्ट है कि भागवत और उनके संगठन ने यह फ़ैसला कर लिया है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार से बेहतर विकल्प उनके पास नहीं है और वह चाहेंगे कि मोदी 2029 का चुनाव भी लड़ें। पूर्व संघ सरचालक के.सुदर्शन का वाजपेयी सरकार के साथ लगातार झगड़ा चलता रहा। उन्होंने जसवंत सिंह को वित्त मंत्री नहीं बनने दिया था। मीडिया के सामने आकर वाजपेयी और आडवाणी के इस्तीफ़े माँग लिए थे। सम्बंध बिल्कुल टूट गए और सरकार ने संघ की परवाह करना छोड़ दिया था। जसवंत सिंह को भी वित्त मंत्री बना दिया गया। पर आज दोनों संगठनों के रिश्ते ऐसे हैं कि ऐसे सीधे टकराव की कोई सम्भावना नहीं। लोकसभा चुनाव में जो धक्का पहुँचा था ने भाजपा नेतृत्व को संघ की कीमत समझा दी, तो दूसरी तरफ़ संघ को भी अहसास है कि वह कभी भी ऐसी सुविधाजनक स्थिति में नहीं रहे।

आरएसएस कितना बदल गया है यह इस बात से पता चलता है कि दिल्ली में शताब्दी समारोह पर मोहन भागवत ने तीन घंटे पत्रकारों के सवालों के जवाब दिए। के. सुदर्शन को छोड़ कर अभी तक संघ प्रमुख के विचार विजयदशमी के दिन ही सुनने को मिलते थे। यह भी दिलचस्प है कि संघ प्रमुख के भाषण का अनुवाद इंगलिश, स्पैनिश और फ़्रेंच में किया गया और आमंत्रित मेहमानों में विदेशी पत्रकारों और राजदूतों में चीन के राजदूत भी मौजूद थे। अर्थात् संघ अपनी छवि बदलने में लगा हुआ है कि वह कोई रहस्यमय संगठन नहीं है और दुनिया के लिए खुलें हैं। यह भागवत का बड़ा योगदान है। पिछले कई महीनों से वह मुस्लिम समुदाय के नेताओं के साथ संवाद कर रहें हैं। वह कह चुकें हैं कि हिन्दुओं और मुसलमानों का डीएनए एक जैसा है। वह यह भी कह चुकें हैं कि “हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग ढूँढने का प्रयास नहीं होना चाहिए”। आज के माहौल में यह असाधारण साहसी बयान है।

 पर भागवत कई बार एक कदम आगे लेकर दो कदम पीछे भी ले लेते रहें हैं। काशी और मथुरा के विवादों का ज़िक्र करते हुए उनका कहना था कि जहां संघ किसी आंदोलन में हिस्सा नहीं लेगा वहाँ इन मंदिरों के लिए किसी भी आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए कार्यकर्ता आज़ाद है। इसे कहा जाता है कि ख़रगोश के साथ दौड़ भी रहें और शिकारी कुत्तों के साथ शिकार भी कर रहें हैं! शायद वह अपने गर्म ख़्याल वालों को संतुष्ट रखने की कोशिश कर रहें हैं। यह तो आभास मिलता है कि संघ अपनी छवि बदलने की कोशिश कर रहा है पर कहीं अतीत अभी भी रूकावटें खड़ी कर रहा है। वह मुसलमानों तक पहुँचने की कोशिश तो कर रहें हैं और कहा है कि “वह हमारा हिस्सा है” पर ज़मीन पर यह सद्भावना नज़र क्यों नहीं आता? संघ जैसे अनुशासित संगठन में तो प्रमुख के आदेश की अवहेलना करने की परम्परा ही नही है पर हम देखतें है कि हर धार्मिक उत्सव पर दंगा होता है। तलवारें लहराई जाती है। धार्मिक स्थलों के आगे से उत्तेजित करने वाले जलूस निकाले जातें हैं। रेढियों और दुकानों पर जाकर धमकाया जाता है। माहौल में ज़हर घोल दिया गया है। मीडिया का एक वर्ग और सोशल मीडिया क्लेश पैदा कर रहें हैं। जब बिलकिस बानो के रेपिस्ट और उनके परिवार के हत्यारे जेल से बाहर आए तो विश्व हिन्दू परिषद के नेताओं ने उनका हार डाल कर स्वागत किया, मिठाई खिलाई गई। संघ का समझदार नेतृत्व यह दृश्य बर्दाश्त कैसे कर गया? क्या यही हिन्दुत्व है कि अगर महिला मुसलमान हो तो बलात्कारी भी माननीय है?

देश के आगे बहुत चुनौतियाँ हैं। आपस में लड़ता झगड़ता भारत तरक़्क़ी नहीं कर सकता। चीन हम से बहुत आगे निकल चुका है। अंतराष्ट्रीय परिदृश्य हमारे विरुद्ध हो रहा है। मणिपुर अभी सम्भाला नहीं कि लद्दाख जलने लगा है। पूर्व उपकुलपति और क़ानून विशेषज्ञ फैज़ान मुस्तफ़ा का लिखना है, “आरएसएस चीफ़ वह व्यक्ति हैं जो …नफ़रत और उन्माद के इस माहौल में विवेक, सहिष्णुता, भाईचारा जो हिन्दू धर्म का मूलतत्व है, को क़ायम कर सकतें हैं”। मोहन भागवत की स्थिति विशिष्ट है। वह पहले संघसरचालक हैं जिनका मुस्लिम नेताओं के साथ खुला संवाद है। उन्हें समाज को सही रखने में सक्रियता से योगदान देना होगा। सदियों से चली आ रही हमारी विभिन्नता को बचा कर रखना है। कोई भी राष्ट्र अपने अतीत की ज़्यादतियों को लेकर लगातार उबलता नहीं रह सकता। बजरंग दल के कार्यकर्ताओं नें औरंगजेब की कब्र खोदने की धमकी दी थी। हमने भविष्य का निर्माण करना है या गढ़े मुर्दे उखाड़ने है? हम कब तक सदियों पुरानी शिकायतों और रोष को खाद और पानी देते रहेंगे? देश में पहले से अधिक अविश्वास, तनाव और व्यग्रता है। पिछले कुछ दिनों में कानपुर, बरेली, जालंधर, कटक आदि में साम्प्रदायिक टकराव या तनाव हो कर हटा है। मुख्य न्यायाधीश पर ‘सनातन धर्म’ के नाम पर हमले का निन्दनीय प्रयास बताता है कि धर्म के स्वयंभू ठेकेदार समाज को ग़लत रास्ते पर धकेलने की कोशिश कर रहें हैं। इसे रोकना है।

 हमें आगे देखना है, पीछे नहीं।जो राजनीतिक नेता है, उनका  दृष्टिकोण दूसरा होता है। उन्होंने चुनाव लड़ना है, वोट लेना है। हर राजनीतिक दल निंदा करते हुए भी अंग्रेजों की ‘डिवाइड ऐंड रूल’ की नीति पर चलतें हैं। जाति जनगणना का यही मक़सद है। पर देश किसी भी संगठन या दल या व्यक्तित्व से उपर है। मोहन भागवत की ऐसी कोई राजनीतिक मजबूरी नहीं है। वह प्रमाण दे चुकें हैं कि उनकी सोच संकीर्ण नहीं हैं। उन्हें  उभर रही नफ़रत और असहिष्णुता को रोकने की कोशिश करनी है। वह जानते हैं कि साम्प्रदायिक झगड़े देश का अहित करतें है पर कहीं ‘इतिहास की हिचकिचाहट’ उन्हें रोक देती है। उनकी विरासत उनके लिए चुनौती है। उन्हें इससे उपर उठना है। समाज को सही दिशा कोई ग़ैर राजनीतिक व्यक्ति ही दे सकता है। मुझे मोहन भागवत से सिवाय और कोई नज़र नहीं आता। यह उनका राष्ट्रीय दायित्व भी बनता है।

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About Chander Mohan 788 Articles
Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.