हम कैसे हैवान पैदा कर रहे हैं
हाल की दो बड़ी घटनाओं ने बहुत विचलित किया है। पहली घटना जालन्धर से है जहां बरुंडी से आए एक अश्वेगत छात्र को कुछ पंजाबी छात्रों ने मामूली झगड़े के बाद पीट-पीट कर अधमरा सड़क पर छोड़ दिया। वह तीन महीने से कोमा में है। न पंजाब सरकार और न ही प्राईवेट यूनिवर्सिटी जहां वह पढ़ रहा था ने ही उसकी सुध ली। 21 अप्रैल की यह घटना है। उसके पिता ने आखिर में मीडिया में 5 जुलाई को इस घटना को उठाया तो 78 दिन के बाद सरकार हरकत में आई। तब उसकी सहायता के लिए 5 लाख रुपए दिए गए और तब गंभीरता से दोषियों को पकड़ना शुरू किया गया। हमलावरों में एक उच्च पुलिस अफसर का बेटा है। यह कैसी हैवानियत है कि एक विदेशी छात्र को पीटने में आपको आनंद आता है?और जब ऐसा ही सलूक ऑस्ट्रेलिया या कैनेडा या अमेरिका या इंग्लैंड में हमारे छात्रों के खिलाफ किया जाता है तो सारा देश उत्तेजित हो उठता है, उस समाज को नस्ली घोषित करने में हम तनिक भी देर नहीं लगाते लेकिन इस तरह एक अश्वेत (ब्लैक, हब्शी?) छात्र को पीट कर और फिर अपराधियों को पकड़ने में अरुचि दिखा कर क्या हम खुद भी यह साबित नहीं कर रहे कि हम बराबर ‘नस्ली’ हैं।? बरुंडी जैसे पिछड़े देश का नागरिक इस लड़के का बाप हैरान है कि यहां अपराधियों से निबटने में इतनी बेपरवाही दिखाई जाती है।
दूसरा मामला गुआहाटी से है जहां 20-30 नामर्दों ने एक बेसहारा लडक़ी के साथ घोर बेइज्जती की। उसे घेर कर उसके बाल खींचे, कपड़े फाड़े और पीटा। वह चीखती-चिल्लाती रही और वे मुस्कराते उसे तंग करते रहे। यहां भी प्रशासन की भूमिका बराबर उदासीन रही। देश भर में तीखी निंदा के चार दिन बाद मुख्यमंत्री ने जांच के आदेश दिए और अपराधियों की पकड़ शुरू हुई। मुख्य अपराधी अभी भी लापता है। मुख्यमंत्री तरुण गोगई ने इस घटना को दुर्भाग्यपूर्ण कहा। आपकी राजधानी में 20-30 गुंडो ने एक लड़की के कपड़े फाड़ डाले और आपको यह घटना सिर्फ ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ लगती है; तमाशा देख रहे लोगों में से भी कोई बचाने के लिए आगे नहीं आया।
समाज के एक वर्ग की क्रूरता, उजड्डपन और संवेदनहीनता के यह एकमात्र उदाहरण नहीं है। बिहार के बेगूसराय में गुंडो ने एक दलित महिला को केवल इसलिए पीट डाला क्योंकि वह मंदिर में पूजा करने गई थी। एथलीट पिंकी प्रामनिक की शिकायत है कि हस्पताल में उसके हाथ पैर बांध कर उसके कपड़े उतारे गए। रोहतक के कुख्यात ‘अपना घर’ कांड की प्रमुख अभियुक्तथ जसवंती देवी का कहना है कि ‘मैं किसी से नहीं डरती, न सीबीआई और न ही सीएम मेरा कुछ बिगाड़ सकते हैं।’ वह आश्वरस्त है कि उसके ‘मेहमान’ उसका बचाव करेंगे; पर जिन्होंने गरीब, अनाथ, लावारिस बच्चों का यौन शोषण किया, उनकी नंगी तस्वीरें उतारी, उनकी अन्तरात्मा ने उन्हें तनिक भी परेशान नहीं किया। देश में और कितने ‘अपना घर’ है जहां बच्चों का ऐसा यौन शोषण हो रहा है।?
बागपत की एक खाप पंचायत ने महिलाओं के खिलाफ फरमान निकाला है कि 40 वर्ष तक कि महिलाएं मोबाईल का इस्तेमाल नहीं कर सकती और अकेले बाजार नहीं जा सकती। प्रेम विवाह नहीं हो सकते। खाप पंचायत ने यह फरमान इसलिए जारी किया क्योंकि बाजार में मनचले लड़कियों से छेड़छाड़ करते हैं। अगर ऐसी स्थिति है तो फरमान तो इन लफंगों के खिलाफ निकालना चाहिए। उन्हें कुछ नहीं कहा गया जिससे महिला कार्यकर्ताओं द्वारा उठाया वह बैनर याद आता है कि ‘नजर तेरी बुरी, बुर्का मैं पहनूं’ मुस्लिम समाज में महिलाओं की घर की दहलीज तक सीमित रखने का भी यही औचित्य दिया जाता है कि उन्हें पुरुषों की बुरी नजर से बचा कर रखना है पर निश्चिेत तौर पर तब कार्रवाई इन पुरुषों के खिलाफ़ होनी चाहिए। लेकिन पुरुषों को लफंगबाजी की आजादी है। पर इस बीच एक और खाप पंचायत ने नई रोशनी दिखाई है। हरियाणा में जींद में बीबीपुर की पंचायत ने घोषणा की कि कोख में कन्या भ्रूण हत्या करने वालों के खिलाफ दफा 302 के अंतर्गत हत्या का मामला दर्ज किया जाए। इस महापंचायत में 106 खापों के प्रतिनिधि पहुंचे जिसमें पहली बार महिलाएं भी शामिल हुई। यह अत्यंत सकारात्मक परिवर्तन है और एक बार फिर खाप पंचायतों ने आगे आकर एक क्रूर सामाजिक बुराई के खिलाफ आवाज उठाई है।
रविन्द्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन में पांचवीं की छात्रा को पेशाब पीने के लिए मजबूर किया गया। हैरानी है कि विश्वदविद्यालय ने वार्डन का पक्ष लेते हुए स्पष्टीकरण दिया कि उसने टोटका आजमाया। चार वर्ष की माही बोरवैल के अंदर गिर कर मारी गई। बार-बार ऐसा हो रहा है, बच्चे खुले बोरवैल में गिरते रहते हैं। जो बोरवैल खोदते हैं वे इतने लापरवाह क्यों है कि उसे खुला छोड़ देते हैं ताकि कोई इसमें गिर जाए? लेकिन सबसे अधिक चिंता युवकों में बढ़ रही हिंसा और पशुता की प्रवृत्तिह है। ऐसा आभास मिलता है कि हम मुश्टंडो की एक जमात पैदा कर रहे हैं जिन पर किसी का नियंत्रण नहीं, न सरकार का न मां-बाप का। न तमीज़ है, न तहजीब है। वे किसी से नहीं डरते। नई पीढ़ी का एक हिस्सा पढ़ा-लिखा अनुशासित है जो दुनिया में किसी से भी टक्कर ले सकता है पर नई पीढ़ी में ऐसे लोग भी हैं जो टोल-टैक्स कर्मचारी को गोली मार देते हैं क्योंकि उसने उनसे टोल के 20 रुपए मांगे थे। राजनेता खुद गलत मिसाल पेश कर रहे हैं। अति गरीबों के लिए शुरू की गई मनरेगा जैसी योजना में भी घपला है जो बात प्रधानमंत्री खुद स्वीकार कर रहे हैं।
जब एक प्राचीन समाज का आधुनिकता से सामना होता है तो कुछ उथल-पुथल की संभावना रहती है पर मर्यादाएं पूरी तरह खत्म नहीं होती। यहां तो लग रहा है कि मर्यादाएं रही ही नहीं। अगर राजनीतिक प्रभाव है तो और दबंग हो जाते हैं। उपभोक्ता संस्कृति तथा पश्चिमी नकल के घुसपैंठ ने अपनी नई समस्या खड़ी कर दी हैं। हमारा समाज बहुत खतरनाक स्थिति में पहुंच रहा है जहां युवाओं को रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं है। राजनेता, धर्मनेता, समाजनेता सब फेल हो गए। हम बड़ी मात्रा में पढ़े-लिखे उजड्ड अनपढ़ दिशाहीन पैदा कर रहे हैं जो नौकरी प्राप्ता करने के लिए किसी तरह डिग्री प्राप्त करने में ही दिलचस्पी रखते हैं। सही शिक्षा यहां दी नहीं जाती। हमारी शिक्षा प्रणाली में कसर रह गई है। अधिकारों के बारे बहुत बताया जाता है, कर्तव्यों पर जोर नहीं दिया जाता। नैतिक मूल्य तेजी से लुप्तई हो रहे हैं। सबसे अधिक दोषी राजनीतिक वर्ग है जो बहुत गलत मिसाल कायम कर रहा है। 36 लाख रुपए के टायलेट बनाने वाले देश को दिशा नहीं दिखा सकते। दु:ख यह भी है कि यह अति धार्मिक समाज केवल धर्म के प्रतीकों के प्रति आस्था रख संतुष्ट हो रहा हैं। हर धर्म की जो मूल शिक्षाएं है उन्हें समझने या उनके अनुसार चलने में कोई रुचि नहीं। आधुनिक धर्म गुरु भी खुद को टीवी के अनुसार ढाल रहे हैं। लोग हजारों की संख्या में इन्हें सुनने जाते हैं पर अगर कोई असर होता है तो यह नजर नहीं आ रहा। शिक्षा संस्थाओं में अनुशासन सिखाया नहीं जाता। सही देश भक्तिे बताई नहीं जाती। मूल्यों के बारे ठीक जानकारी नहीं दी जाती। अधिकतर शिक्षक भी टाइम पास करते हैं। उत्तईरी कोरिया में अध्यापक तथा छात्र मिलकर सड़कों से कूड़ा-कर्कट उठाते हैं। यहां ऐसा हो ही नहीं सकता, शिकायत हो जाएगी कि बच्चों के मानवाधिकार का उल्लंघन किया जा रहा है पर जो कूड़ा उठाएंगे वे कूड़ा फैंकेगे तो नहीं। नर्सरी से मूल्यों पर आधारित शिक्षा मिलनी चाहिए। उन्हें अनुशासन तथा तमीज सिखाई जानी चाहिए। देश के प्रति कर्तव्य निभाने तथा समाज में सद्भावपूर्ण माहौल बनाने के लिए बच्चों को तैयार करना होगा। ‘मेरा’, ‘मेरा’ की दौड़ में ‘हमारा’ बिगड़ता जा रहा है। राष्ट्रीय जिम्मेवारी के प्रति अहसास नहीं है यहां। यह हमें अराजकता तक ले जा सकता है। बैठ कर सोचने की जरूरत है कि हम इतनी मात्रा में बदमाश, गुंडे, शोहदें और असामाजिक तत्व कैसे पैदा कर रहे हैंॽ
इस अंधकारमय माहौल के बीच लंदन ओलंपिक खेलों के लिए भारत के युवा खिलाड़ी तैयार हैं। इनमें से बहुत ने बहुत विपरीत परिस्थिति में खुद को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का खिलाड़ी बनाया है। हरियाणा के राजौंद गांव के पहलवान मनोज कुमार कि माता ने जब उससे कहा कि ‘बेटा देश का झंडा ऊंचा करके आईयो, बड़ी उम्मीद है तेरे से’, तो बेटे ने जवाब दिया, ‘मां, ज्यादा बात तो करता नहीं, पर अपनी जान लड़ा दूंगा।’ जिओ! जिओ! तुम जैसे ही मेरे भारत की आस हो!
-चन्द्रमोहन