ऐसे लोग अभी भी हैं?
वाम मोर्चा पांचवी बार त्रिपुरा में चुनाव जीत गया है। जहां पश्चिम बंगाल में तीन दशकों की सत्ता के बाद लोगों ने उन्हें रद्द कर दिया, त्रिपुरा में मोर्चे को 60 में से 50 सीटें मिली है। इस भारी जीत के पीछे एक असाधारण राजनेता हैं। मेरा अभिप्राय वहां के मुख्यमंत्री माणिक सरकार से है जो सातवां चुनाव जीत गए हैं और चौथी बार मुख्यमंत्री बने हैं। माणिक सरकार के बारे इतना ही बताना काफी है कि वह देश के सबसे गरीब मुख्यमंत्री हैं। पिछले चुनाव में शपथपत्र में उन्होंने जयदाद में ‘शून्य’ भरा था। इस चुनाव में शपथपत्र के अनुसार उनके पास 10,800 रुपए हैं। उनके पास न अपना घर है, न जमीन है, न कार है। मुख्यमंत्री के तौर पर जो वेतन उन्हें मिलता है वह इसे पार्टी को दे देते हैं और पार्टी उन्हें 5000 रुपए भत्ता देती है। घर का खर्च पत्नी के वेतन से चलता है। जहां मामूली पार्षद भी लाखों करोड़ों रुपए बना लेता है वहां माणिक सरकार सादगी और सार्वजनिक शुचिता की मिसाल हैं। आज के माहौल को देख कर जहन में यह सवाल उठता है कि क्या आज भी ऐसे लोग हमारी राजनीति में हैं?
जब देश आजाद हुआ तो सादगी और व्यक्तिगत ईमानदारी पर बहुत जोर डाला गया। गांधीजी का प्रभाव था। लेकिन धीरे-धीरे लगाम ढीली छोड़ दी गई। इंदिरा गांधी ने तो यह कह कर कि भ्रष्टाचार एक ‘अंतर्राष्ट्रीय प्रक्रिया’ है उसे एक प्रकार से हरी झंडी दे दी। भ्रष्टाचार के दरवाजे खोल दिए गए जिसकी भयावह तस्वीर हम आज देख रहे हैं। राजनीतिक वर्ग का शर्मनाक ढंग से पतन हो गया। जन प्रतिनिधि इस तरह जीवन व्यतीत करने लगे जैसे पहले राजा महाराजा थे। लयूटन की नई दिल्ली में एकड़ों में बड़े-बड़े बंगले, कोठियां, लग्जरी कारें, विदेशों में मोटा बैंक बैलंस अब सामान्य हो गया है। वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने बजट पेश करते वक्त बताया है कि हमारे देश में केवल 42,800 लोग ही हैं जो एक करोड़ से अधिक वार्षिक आय की रिटर्न भरते हैं। पता लगाना दिलचस्प रहेगा कि इनमें से कितने राजनेता है? मेरा अपना अंदाजा है कि इनमें से एक भी राजनेता नहीं होगा लेकिन कितने राजनेता हैं जिनकी वास्तव में आय एक करोड़ वार्षिक नहीं है ?
नेताओं की यह शानों शौकत अब दुनिया भर में फैल गई है। चीन के नेता जौगनानही के सुरक्षित क्षेत्र में पुराने चीनी सम्राटों की तरह रहते हैं। आम आदमी इस जगह के नजदीक भी नहीं फटक सकता। एक प्रकार की दूसरी ‘फौरबिडन सिटी’ है। लेकिन हैं यह ‘ग्रेट कम्यूनिस्ट पार्टी’ के प्रतिनिधि। इसी प्रकार रूस के नेता उस भव्य क्रैमलिन में रहते हैं जहां कभी जार रहा करते थे। योरूप में कुछ सादगी जरूर देखी जा सकती है। कई जगह तो शाही परिवारों के लोग भी साईकल पर दफतर जाते हैं। ब्रिटेन में कई मंत्री मैट्रो से आते जाते हैं पर भारत में तो जब तक आपकी गाड़ी के आगे पीछे चीखते साईरन वाली गाडिय़ां न हों तो आप खुद को नेता नहीं समझते। एक लोकतंत्र में इस तरह लालबत्ती या हूटर की जरूरत क्या है? सुप्रीम कोर्ट भी इस लाल बत्ती संस्कृति से परेशान हैं। उल्लेखनीय है कि माणिक सरकार ने 2008 में लाल बत्ती का इस्तेमाल बंद कर दिया था। हमारे वीवीआईपी तो अपने लिए 300-300 करोड़ रुपए के हैलीकाप्टर चाहते हैं। चाहे वे समाजवादी हों या दलितों का प्रतिनिधित्व करने का दम भरते हों, वे खुद को लोगों से अलग तथा विशिष्ट मानते हैं। एक मात्र अपवाद कम्यूनिस्ट नेता हैं जहां अभी भी सादगी तथा ईमानदारी को वजन दिया जाता है। उनकी विचारधारा अवश्य दुनिया से लुप्त हो रही है पर इस देश में आज भी व्यक्तिगत मिसाल केवल कम्यूनिस्ट नेता ही पेश कर रहे हैं। जरा मायावती की जायदाद की तुलना माणिक सरकार से तो कीजिए! 10800 रुपए से कितने हजार गुणा अधिक होगी? आशा यह थी कि जो उन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सदियों से शोषित रहे हैं वे बेहतर प्रदर्शन करेंगे। लेकिन निराशा ही हाथ लगी। प्रमोद महाजन ने भाजपा को भी फाईव स्टार बना दिया। संघ के संस्कार एक तरफ फैंक नेता कांग्रेसियों की बराबरी करने लग पड़े। पौशाक भी बदल गई है। नानाजी देशमुख ने अकारण ही चित्रकूट में बनवास नहीं लिया। संघ ने खुद उन नितिन गडकरी को पार्टी अध्यक्ष बनवा दिया जिनकी 400-500 करोड़ रुपए की जायदाद है और जिन्हें ‘सोशल एंटरप्रौनेयोर’ कहा गया, अर्थात् सामाजिक उद्यमी। यह परिभाषा मुझे कभी समझ नहीं आई। पर भाजपा तथा कांग्रेस में अंतर जरूर है। भाजपा को अभी भी लोकलाज की कुछ चिंता है जबकि कांग्रेस में फर्स्ट फैमिली के प्रति वफादारी ही सब कुछ है। पार्टी को तो राबर्ट वाड्रा का भी बचाव करना पड़ता है। जब तक आप सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी का गुणगान करते रहोगे सब माफ है।
केवल राजनीति में ही नहीं समाज सेवा और यहां तक धार्मिक सेवा में भी आजकल वे ही लोग आगे आ रहे हैं जिनके पास करोड़ों की दौलत है। साधु-संत भी हाई-फाई हो गए हैं। बाबा, बापू, संत वही चमक रहे हैं जिनके पास बेशुमार दौलत है। मुंबई में तो एक ‘मां’ ऐसी भी है जो फिल्मी अभिनेत्रियों की तरह गहनों से लदी मेकअप कर आशीर्वाद देती हैं। ग्लैमर्स हैं। लेकिन जनता वहां भी पहुंच जाती है। जो धर्म गुरू बनते हैं उन सभी के पास बड़े-बड़े एयर कडिशनड आश्रम हैं। धर्मप्रचार सबसे लाभदायक व्यवसाय बन गया है क्योंकि हमारे लोग नादान हैं। अंधी भक्ति है।
जहां सब बहती गंगा में नहाने में लगे हुए हैं वहां मणिक सरकार एक अपवाद नजर आते हैं। न घर, न बैंक बैलंस, न कोई और जायदाद, न कार, बस कुछ नहीं। केवल जनता को समर्पित हैं। भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन है। जहां दूसरे नेता यह कहते नहीं थकते कि हम आकाश से तारे तोड़ लाए मणिक सरकार का कहना था कि हमने कुछ विशेष नहीं किया केवल वायदे पूरे किए। वामदलों में ऐसे सादे कुछ और भी लोग हैं जिनमें पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्यजी भी शामिल हैं। जिनके पास भी अपना कुछ नहीं। देश की राजनीति के किसी कोने में कम्युनिस्टों की जरूरत अवश्य है इसलिए भी क्योंकि उनके पास देश के सबसे ईमानदार तथा सादे नेता हैं। ममता बनर्जी भी ऐसी ही हैं, सूती साड़ी और रबड़ की चप्पल। उसी साड़ी से पसीना पौंछ लेती हैं। लेकिन ऐसे सादे लोगों की संख्या इतनी कम है कि उंगलियों पर गिनी जा सकती है। अब तो उलटी गंगा बह रही है। सादगी गाली बन गई। जो सादा है, अपने चरित्र से जिसने समझौता नहीं किया, उसे बेचारा कहा जाता है। लेकिन माणिक सरकार जैसे लोग अभी भी आशा जगाते हैं कि सब कुछ खत्म नहीं हो गया, आंधियों में भी जलते हुए चिराग है! वे इतने सादे हैं कि नैट पर उनके बारे जानकारी बिल्कुल न्यूनतम मिलती है। उस वक्त जब सब नेता कोई ब्लॉग पर, कोई ट्विटर पर तो कोई फेसबुक पर दुनिया को यह बताने में लगे हैं कि मैं कितना जबरदस्त हूं, माणिक सरकार को अपने बारे जानकारी देने की जरूरत नहीं। जनता ने भी मिलिटैंसी के बीच 93 प्रतिशत मतदान कर अपना आशीर्वाद दे दिया। असली बात है कि मणिक बाबू दूसरों से अलग हैं। पैसे जायदाद के हिसाब से वे सबसे गरीब मुख्यमंत्री चाहे हों, लेकिन जब लोगों का दिल जीतने का मामला हो तो वे सबसे अमीर हैं।
अफसोस यही है कि ऐसे अमीर नेताओं की नसल अब धीरे-धीरे खत्म हो रही है।