इंदिरा गांधी और नरेन्द्र मोदी (Indira Gandhi and Narendra Modi)

राजदीप सरदेसाई के साथ इंटरव्यू में सोनिया गांधी का कहना था कि वह इससे सहमत नहीं कि नरेन्द्र मोदी इंदिरा गांधी जैसे ताकतवर नेता हैं। दिलचस्प है कि हमारे बड़े बड़े दबंग पत्रकार जब बड़े नेताओं से बात करते हैं तो उनकी सारी बोलती बंद हो जाती है। अरनब गोस्वामी की नरेन्द्र मोदी के साथ और अब राजदीप सरदेसाई की सोनिया गांधी की इंटरव्यू में भी इंटरव्यू करने वाला बिलकुल दब्बू था। प्रभाव यह दे रहे थे कि अपने सामने बैठे व्यक्ति के आभा मंडल से वह मंत्रमुग्ध हैं। जहां तक इंदिरा गांधी तथा नरेन्द्र मोदी के बीच तुलना का सवाल है दोनों का व्यक्तित्व, पृष्ठभूमि तथा कैरियर अलग अलग हैं। इंदिरा गांधी का जन्म देश के सबसे प्रतिष्ठित परिवारों में से एक में हुआ था। पालन पोषण इसी के अनुसार विशेषाधिकार प्राप्त था दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी मान ही चुके हैं कि वह चायवाला रहे हैं। इंदिरा गांधी जनता पार्टी के अल्प शासन को छोड़ कर लम्बे 18 वर्ष सत्ता में रहीं। नरेन्द्र मोदी तो अभी शुरू ही हुए हैं इसलिए तुलना नहीं हो सकती। न ही परिस्थिति वही है। पर हां, एक बात में दोनों में समानता है। इंदिरा गांधी की ही तरह नरेन्द्र मोदी भी सत्ता के केन्द्रीकरण में विश्वास रखते हैं। इसका फायदा तथा नुकसान दोनों होता है।

सोनिया गांधी की इंटरव्यू में कुछ बातें ऐसी हैं जिनसे सहमत होना मुश्किल है। वह कहती हैं कि इंदिरा गांधी राजनीति में शामिल होने के लिए बहुत अधिक इच्छुक नहीं थीं लेकिन ‘उन्होंने देश तथा उसके लोगों के लिए ऐसा किया था।’ जो भी राजनीति में आया है उसने यही बहाना दिया है कि वह देश सेवा के लिए आया है। मोतीलाल नेहरू ने गांधीजी पर दबाव डालकर युवा जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया था। जवाहरलाल नेहरू ने अपने जीवन में ही 1959 में इंदिरा को कांग्रेस अध्यक्ष बना कर स्पष्ट संकेत दे दिया था कि उनकी इच्छा क्या है। इसीलिए जब 1966 में शास्त्रीजी की मौत के बाद मौका आया तो इंदिरा गांधी झट प्रधानमंत्री बन गईं कोई हिचकिचाहट नहीं थी। बाद में उन्होंने कांग्रेस पार्टी को भी अपने हित के लिए दो फाड़ कर दिया। उनकी यही दबंग और विरोध के प्रति असहिष्णु नीति थी जिसके चलते उन्होंने देश पर एमरजेंसी लाद दी थी।

इस कदम पर टाइम्स आफ इंडिया के सम्पादक रहे गिरिलाल जैन ने उस वक्त बहुत दिलचस्प टिप्पणी की थी कि ‘जवाहरलाल नेहरू का भूत उन्हें सता रहा था।’ इंदिरा को दुनियाभर से फटकार मिल रही थी कि जवाहरलाल नेहरू जैसे लोकतांत्रिक नेता की बेटी ने लोगों के अधिकार छीन लिए इसलिए निर्णय पलट लिया लेकिन यह इस बात को तो साबित करता है कि उनकी सब विशेषताओं के बावजूद उनमें तानाशाही प्रवृत्ति थी। जवाहरलाल अपनी लोकप्रियता तथा प्रसिद्धि के बावजूद अपने वरिष्ठ साथियों से सलाह मश्विरा करते थे, पूरी इज्जत देते थे। सरदार पटेल तो वैसे ही बराबर के नेता थे। इंदिरा गांधी अधिक असुरक्षित थीं। उन्होंने पार्टी को अपने व्यक्तित्व के इर्दगिर्द इकट्ठा कर लिया था। जी हुजूरियों का जमघट करने की यह प्रवृत्ति सोनिया गांधी और अब राहुल तक जारी है जो पार्टी का बंटाधार कर रही है। विरोध को बर्दाश्त नहीं किया जाता। पीवी नरसिम्हा राव पर लिखी अपनी नई किताब ‘1991’ में डा. मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने सही लिखा है कि ‘इंदिरा तथा उनके पुत्र के नीचे कांग्रेस की जो व्यवस्था तैयार की गई उससे सरकार, इसकी मशीनरी तथा उसकी दानशीलता पार्टी पर अधिकार प्राप्त करने तथा उसे कायम रखने का रास्ता बन गया।’

सोनिया ने इस सवाल का प्रतिवाद किया है कि इंदिरा गांधी ने और उन्होंने खुद वंशवाद को बढ़ावा दिया है। वह कहती हैं, ‘बिजनेसमैन के परिवारों में एक या दूसरा सदस्य पिता के रास्ते पर चलता है इसी प्रकार राजनीति में आप लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अनुसार निर्वाचित होते हो और पराजित होते हो।’ पर क्या किसी और इतालवी मूल की भारतीय गृहिणी को यह अधिकार कभी मिल सकता था? इंदिरा गांधी को भी संजय की मौत के बाद अपना उत्तराधिकारी चुनने के लिए अपने पायलट पुत्र राजीव के सिवाय और कोई नज़र क्यों नहीं आया?

सोनिया गांधी की यह बात भी सही नहीं कि इंदिरा केवल लोगों की सेवा करने के लिए राजनीति में आई थीं। वास्तव में वह बहुत महत्वकांक्षी थीं और समझती थीं कि सत्ता पर उनका एक प्रकार से अधिकार है क्योंकि वह नेहरू की बेटी और उत्तराधिकारी हैं। अपनी किताब ‘फ्रॉम राज टू राजीव’ में मार्क टल्ली तथा ज़रीर मसानी ‘नेहरू परिवार के शासन करने के ईश्वरीय अधिकार’ पर कटाक्ष करते हुए लिखते हैं, ‘भारत को शाही परिवार बहुत पसंद है। पर शास्त्री के बारे कुछ भी शाही नहीं था और इंदिरा गांधी उन लोगों में से थीं जिन्होंने यह छिपाने की कोशिश नहीं की कि वह शास्त्री को अपने पिता की विरासत संभालने के उपयुक्त नहीं समझती।’ उन्होंने कांग्रेस में वह परम्परा शुरू की जिसे मार्क टल्ली तथा ज़रीर मसानी ‘वंशवादी लोकतंत्र’ कहते हैं। यह परम्परा कभी कांग्रेस की ताकत रही लेकिन अब पार्टी कमजोरी हो गई है क्योंकि पार्टी की रीढ़ की हड्डी नहीं रही।

इस संदर्भ में एक दिलचस्प किस्से का वर्णन नेहरू जी की छोटी बहन विजयलक्ष्मी पंडित ने किया है, ‘किसी ने मुझसे पूछा कि क्या आप समझती हैं कि सबसे अधिक कुर्बानी नेहरू परिवार ने दी है? मेरा जवाब था कि अगर ऐसा है तो मुआवज़ा भी हमें बहुत मिल चुका है। इंदिरा को यह बात बिलकुल पसंद नहीं आई। उस रात फोन कर उसने पूछा कि फूफी आपने ऐसा कहा था? मैंने जवाब दिया कि हां…क्या तुम नहीं समझती कि वह सही था? मेरे भाई इतने वर्ष सत्ता में रहे। तुम उनके बाद बन गई। मैं खुद कई उच्च पदों पर रही हूं जिसका तीन चौथाई कारण है कि मैं नेहरू हूं।’

देश बदल गया। इस परिवार को एक तरफ छोड़ कर आगे बढ़ रहा है पर परिवार में यह भावना खत्म नहीं हुई कि भारत के लोगों पर शासन करने का उनका ‘ईश्वरीय अधिकार’ है। नरेन्द्र मोदी को ऐसी किसी पारिवारिक बैसाखी की जरूरत नहीं लेकिन इंदिरा गांधी की तरह नरेन्द्र मोदी भी जोखिम भरे कदम उठाने से घबराते नहीं जैसे उन्होंने पहले सर्जिकल स्ट्राइक और अब नोटबंदी का निर्णय लेकर दिखा दिया है। इंदिरा अपने विपक्ष के बारे कहती थीं कि ‘मैं कहती हूं गरीबी हटाओ यह कहते हैं इंदिरा हटाओ’ इसी तर्ज पर विपक्ष के भारत बंद पर नरेन्द्र मोदी का कहना था, ‘हम काला धन बंद कर रहे हैं वह भारत।’ लेकिन अभी नरेन्द्र मोदी का नेतृत्व उभर रहा है। देखना होगा कि वह देश को कहां तक पहुंचाते हैं क्योंकि उनसे आशा बहुत है। जहां तक इंदिरा गांधी का सवाल है इनकी कई गलतियों, तनाशाही निर्णय, लोगों पर परिवार को लादने, एमरजैंसी लगाने, पंजाब में कट्टरवाद की शुरुआत करना आदि के बावजूद उनकी एक उपलब्धि है जो अद्वितीय रहेगी। उन्होंने हमारे पड़ोसी बदमाश देश के दो टुकड़े करवा दिए। इस उपलब्धि की बराबरी कोई नहीं कर सकेगा।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.