देश के प्रति उनकी सेवा तथा भक्ति को देखते हुए यह बहुत अफसोस की बात है कि पंजाब के पूर्व डीजीपी के.पी.एस. गिल के साथ न्याय नहीं किया गया। जितना उनका योगदान था उसे देखते हुए, वह तो किसी गायक या क्रिकेटर से अधिक ‘भारत रत्न’ के अधिकारी थे। अगर वह आगे आकर खालिस्तानी आंदोलन को कुचलते नहीं तो पंजाब शायद आज भी अशांत रहता। लेकिन मानवाधिकार वालों के शोर तथा कुछ निजी कमजोरियों के कारण के.पी.एस. गिल को जिंदगी में सही तरीके से सम्मानित नहीं किया गया पर उनकी मौत के बाद जनता की तरफ से उन्हें जो श्रद्धांजलि मिली है उससे पता चलता है कि लोग जानते हैं कि यह जांबाज पुलिस जरनैल वास्तव में राष्ट्रीय हीरो हैं।
कहा जाता है,
राह के नक्श इन्सां के कदमों का पता देते हैं
कौन किस शान से गुजरा है इस बात का पता देते हैं
और के.पी.एस. गिल ने बहुत शानदार जिंदगी व्यतीत की थी। पूरी तरह से देशभक्त थे। मानना था कि यह खालिस्तानी पंजाब और देश को तबाह कर देंगे इसलिए आगे आकर इसके खिलाफ अभियान का नेतृत्व किया। फ्रंट लाईन में खुद थे। और पंजाब को विजयी बनाया। ठीक है उनके कई तरीके सामान्य नहीं थे लेकिन परिस्थिति भी तो असामान्य थी।
वह सामान्य अफसर नहीं थे। किसी की चमचागिरी नहीं करते थे। उनका काम बोलता था। नेतृत्व की ऐसी क्षमता थी कि निरुत्साहित हुए पंजाब पुलिस बल को उन्होंने अपने पैरों पर खड़ा कर दिया और यह दुनिया में एक मात्र बल है जो इस बात पर गर्व कर सकता है कि इन्होंने आतंकवाद को पराजित किया।
उनकी प्रेरणा से बहुत अफसरों ने उस संकट में बहुत बहादुरी दिखाई। जो हालात राजनेताओं की गलतियों तथा कमजोरियों के कारण इतने बिगड़ गए थे कि पंजाब से गैर सिखों के पलायन की स्थिति बन गई थी, वह अगर आज सामान्य है तो यह के.पी.एस. गिल तथा उनके बहादुर साथियों के कारण है।
वह अपने अफसरों तथा जवानों के लिए नायक थे। व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था। छ: फुट से ऊंचा कद, कड़क आवाज़ तथा चुभने वाली नजऱ के साथ इस व्यक्ति की अपनी अलग आभा थी।
ठीक है उनके तरीके असामान्य थे। लेकिन परिस्थिति कौन सी सामान्य थी? कुछ ज्यादती हुई थी। मानवाधिकार वालों ने भी बहुत शोर मचाया था लेकिन उल्लेखनीय है कि यह लोग तब खामोश रहे जब पंजाब में बसों तथा ट्रेनों से लोगों को निकाल कर गोलियों से भून डाला गया था। जब दुकानों में बैठे लोगों पर गोलियां बरसाईं गई, जब लाला जगत नारायण तथा रमेश जी जैसे वरिष्ठ सम्पादकों को गोली से उड़ाया गया यह लोग चुप रहे। हमारे अपने दफ्तर में पार्सल बल फटने से दो कर्मचारी मारे गए। क्या इनके और इनके परिवारों के मानवाधिकार नहीं थे? जब बहिन लक्ष्मी कांता चावला आतंकवाद के कारण अनाथ हुए बच्चों को बस में भर कर चंडीगढ़ कथित मानवाधिकार संगठन के प्रमुख को मिलने ले गई थीं तो उस शख्स ने घर के बाहर आने से ही इंकार कर दिया था।
गिल साहिब के तरीके और नीति अपरम्परागत थे। उन्होंने कानूनी नखरों की परवाह नहीं की थी लेकिन यह तो देखिए कि उन्होंने हासिल क्या किया? इस देश में यह बहस रहेगी कि साधन महत्व रखते हैं या लक्ष्य? गांधी जी सदैव साधनों पर बल देते थे पर यह गांधी का देश नहीं रहा। जब आतंकवादी गोलियां बरसा रहे हो तो वियाना नियमों के अनुसार नहीं चला जा सकता।
इसीलिए मेरा मानना है कि कश्मीर में गुंंडीपुरा में मेजर लीतुल गांगुली ने जो किया वह बिलकुल सही था। एक स्थानीय पत्थरबाज़ को जीप के आगे बांध कर मानव ढाल की तरह इस्तेमाल कर मेजर गोगोई एक कमरे में बंद 12 जवानों तथा कर्मचारियों को 800 की भीड़ से बचा गए। उन्हें गोली भी नहीं चलानी पड़ी। थल सेनाध्यक्ष जनरल रावत ने उन्हें जो प्रशस्ति पत्र दिया है बिलकुल जायज है।
इस बार भी कथित लिबरल वर्ग तथा मानवाधिकार वाले इस घटना पर आपा खो रहे हैं। उमर अब्दुल्ला तथा सईद अली शाह गिलानी जैसे कश्मीरी नेता भड़क रहें हैं। मेजरगोगोई के कदम को शर्मनाक बताया जा रहा है। सेना को बदनाम किया जा रहा है। लेखिका अरुणाधति रॉय का कहना था कि ‘पाकिस्तान के राज्य ने अपनी सेना को लोगों के साथ लड़ने के लिए उस तरह नहीं कहा जैसे भारत ने कहा है…. यह एक सवर्ण हिन्दू राष्ट्र है जो निरन्तर अपने लोगों के खिलाफ युद्धरत है।’
इस औरत को पाकिस्तान की सेना के अपने उत्तर-पश्चिम तथा ब्लूचिस्तान में लोगों का दमन नजऱ नहीं आता। पर उल्लेखनीय है कि यह कथित लिबरल वर्ग जिसे परेश रावल का अरुणाधति के बारे सुझाव पसंद नहीं आया, उसके इस बकवास पर खामोश हैं।
जो मेजर गोगोई के कदम का विरोध करते हैं वह यह बताने को तैयार नहीं कि अगर वह उनकी परिस्थिति में होते तो क्या करते? टीवी पर राजदीप सरदेसाई को मानवाधिकारों के बारे सवाल उठाते हुए देख कर मैंने ट्वीट कर उनसे पूछा था कि अगर आप उस कमरे में बंद होते जिसे 800 लोगों ने घेरा हुआ था तो आप क्या करते? क्या आप मेजर गोगोई का धन्यवाद करते या उस वक्त मानवाधिकार के बारे बातें करते? मुझे जवाब नहीं मिला। दिल्ली में अपने सुरक्षित टीवी स्टूडियो में बैठ कर लैक्चर देना आसान है, कश्मीर की जमीन पर खूनी हमलों का सामना करना बहुत मुश्किल।
सेना कश्मीर में बहुत असामान्य परिस्थिति में काम कर रही है। जब सेना पर हमले हो रहे हैं, पैट्रोल बम फैंके जा रहे हैं, कई सौ की भीड़ रुकावटें खड़ी कर रही हो, वहां जैसा सेना प्रमुख ने भी कहा है, जवानों को मरने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक ने भी सही कहा है ‘‘हमारे भी तो मानवाधिकार हैं।’’
एक लोकतांत्रिक देश मजहबी उन्मादियों को अपनी व्यवस्था को उलटाने का अधिकार नहीं दे सकता। इनका मुकाबला होना चाहिए चाहे कई बार उग्र तरीके क्यों न अपनाने पड़े। इसीलिए मेजर गोगोई शाबाशी के पात्र हैं। उनकी सोच की सराहना होनी चाहिए कि उन्होंने जाने बचाईं। कई लोग संविधान की दुहाई दे रहे हैं। संविधान को तो कश्मीर में पाक प्रेरित आतंकवाद से खतरा है।
देश में मेजर गोगोई की कार्रवाई को व्यापक समर्थन है जिस प्रकार के.पी.एस. गिल के प्रति श्रद्धा का सैलाब आ गया है। लोग जानते हैं कि लीक से हट कर काम कर ऐसे लोगों ने देश की बड़ी सेवा की है। के.पी.एस. को मेरी श्रद्धांजलि। ऐसे दिलेर लोग बहुत कम मिलते हैं। जाते-जाते वह यह संदेश भी दे गए हैं,
जिंन्दगी में बड़ी शिद्दत से निभाओ अपना किरदार
कि परदा गिरने के बाद भी तालियां बजती रहें!
गिल साहिब, आपके लिए तो तालियां बजती ही रहेंगी!
गिल साहिब, तालियां बजती रहेंगी (Gill Sahib, You Will Be Long Remembered),