महबूबा मुफ्ती के बाद ममता बैनर्जी ने भी केन्द्र को चीन के हमारे मामले में दखल के प्रति आगाह किया है। महबूबा ने तो कश्मीर में अशांति के लिए चीन को सीधा जिम्मेवार ठहराया है। अमरनाथ यात्रियों पर आतंकी हमले ने एक बार फिर स्थिति की गंभीरता को स्पष्ट कर दिया है। यह नहीं कि पहले हमले नहीं हुए थे। 2000 में पहलगाम में 30 यात्री मारे गए लेकिन इस बार की घटना अधिक गंभीर है क्योंकि पहले ही हालात नाजुक हैं। जम्मू-कश्मीर के आईजीपी मुन्नीर खान ने सेना, सीआरपीएफ तथा सरकार को चेतावनी दी थी कि ‘‘आतंकी गुट द्वारा सनसनीखेज हमले की संभावना को रद्द नहीं किया जा सकता।’’ इस सूचना के बाद यह हमला कैसे हो गया?
सारा देश उस बस ड्राईवर की प्रशंसा कर रहा है जिसने अपनी जान खतरे में डाल कर बाकी यात्रियों की जान बचाई, पर सवाल तो उठता है कि अंधेरे में राष्ट्रीय राजमार्ग पर उसे चलने की इज्जात कैसे दी गई? रास्ते के बैरियर क्या करते रहे? अमरनाथ यात्रा के दौरान सूर्यास्त के बाद बस चलने पर पाबंदी है फिर यह बस जम्मू की तरफ क्यों जा रही थी? बस श्राईन बोर्ड के साथ रजिस्टर्ड भी नहीं थी। इसे रोका क्यों नहीं गया? हमारी व्यवस्था कई बार इतनी निकम्मी क्यों निकलती है? पठानकोट एयरबेस के अंदर हमला हो चुका है। हाल ही में उत्तर प्रदेश विधानसभा के अंदर विस्फोटक पाया गया। यह अंदर कैसे पहुंच गया? क्या उनके खिलाफ कार्रवाई होगी जो लापरवाह रहे?
अमरनाथ यात्रियों पर हमले के संदर्भ में एक उज्जवल पक्ष यह बताया जा रहा है कि कश्मीर में सभी वर्गों ने इसकी भर्त्सना की है। उमर अब्दुल्ला ने तो माना कि राजनीतिक वर्ग ने कश्मीर के साथ धक्का किया है। पुराने पापी सईद अली शाह गिलानी का कहना था कि अल्लाह इन हत्यारों को माफ नहीं करेगा। मौलवी उमर फारुख तथा यासीन मलिक ने भी इस हमले की खुली निंदा की। लोगों ने भी सड़कों पर उतर कर अपना गुस्सा जाहिर किया है। कराची के द डॉन अखबार में फाहद शाह ने रिपोर्ट दी कि ‘‘अमरनाथ यात्रियों की हत्या पर प्रतिक्रिया से पता चलता है कि सहिष्णुता अभी भी वादी में जिंदा है… सार्वजनिक नाराजगी को देखते हुए नफरत फैलाने वाले चुप हो गए।’’
यह सही है जैसे इस पत्रकार ने भी लिखा है कि कश्मीर ने हिन्दू यात्रियों का सदा स्वागत किया है लेकिन क्या जो नफरत वाला माहौल वहां बना है उसमें इन्हीं लोगों का योगदान नहीं है? हुर्रियत के नेताओं ने सदैव वहां अलगाववाद को जिंदा रखा है। अब नौ सौ चूहे खाने के बाद बिल्ली हज को चल पड़ी? वह जानते हैं कि वह अप्रासंगिक हो रहे हैं। जब जम्मू-कश्मीर पुलिस के डीएसपी मुहम्मद अयूब पंडित जो जामिया मस्जिद के बाहर जहां मौलवी उमर फारुख अपना उपदेश दे रहे थे तैनात थे, को भीड़ ने नंगा कर पीट-पीट कर मार डाला तो यह कायर मौलवी बाहर नहीं आया। इसी प्रकार यह लोग पत्थरबाज़ी का औचित्य बता कर उसे सही ठहराते रहे जिस कारण सुरक्षाबलों को कई बार अपनी जिम्मेवारी निभाने में परेशानी होती है। पर अब तो मिलिटैंट लीडर जाकिर मूसा कह रहा है कि कश्मीर में आंदोलन शरिया लागू करवाने के लिए है। वह हुर्रियत के नेताओं के सर कलम कर चौराहे पर टांगने की भी बात कह रहा है।
सभी कश्मीर नेता उस वक्त खामोश रहे जब कश्मीर को रैडिकल किया जा रहा था। अब इसकी कीमत सब अदा कर रहे हैं। सऊदी अरब से वहाबी संस्कृति के प्रसार के लिए खूब पैसा आता रहा। हमारी केन्द्रीय सरकारें तथा एजेंसियां भी चुपचाप यह बर्दाश्त क्यों करती रहीं? जिन मस्जिदों से देश विरोधी घोषणाएं होती हैं उन पर पाबंदी क्यों नहीं लगाई गई? पिछले 10-15 सालों में मस्जिदों की संख्या में कई गुना असामान्य वृद्धि हुई है। इस पर निगरानी क्यों नहीं रखी गई? श्रीनगर में एक मिलिटैंट की मौत बताती है कि हर जगह यह लोग मौजूद हैं। फारुख अब्दुल्ला जैसे लोग जो कहते रहे हैं कि ‘यूथ अपने वतन के लिए लड़ रहे हैं’ आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। उन्हें समझना चाहिए कि स्थिति गंभीर है यह राजनीतिक फायदा सोचने का वक्त नहीं। अगर स्थिति और खराब हो गई तो फारुख साहिब जैसे तो कश्मीर में घुस नहीं सकेंगे।
महबूबा मुफ्ती कोशिश तो कर रही हैं लेकिन उनकी सरकार की असफलता सम्पूर्ण है। वह लाचार नजऱ आती है। लोगों का पीडीपी-भाजपा सरकार में विश्वास नहीं है। ऐसी हालत तब है जब दिल्ली और श्रीनगर दोनों में भाजपा सरकारें हैं। बुरहान वानी की पिछले साल मौत के बाद हालात और बेकाबू हो गए हैं। इसलिए आज कहने को दिल चाहता है
वतन की फिक्र कर नादान मुसीबत आने वाली है
तेरी बरबादियों के मशवरे हैं आसमानों में!
यह मैं इसीलिए कह रहा हूं कि कश्मीर में चीन ने भी दखल देना शुरू कर दिया है। अकेले पाकिस्तान को हम संभाल सकते हैं पर चीन डोकलाम में हमारी ललकार से सटपटा रहा है। वह परेशान है कि भारत ने भूटान की सुरक्षा के लिए इतना कड़ा रवैया अपनाया है। जिसे रक्षा सलाहकार अजीत डोभल ने ‘‘चीन की जमीन के लिए अथाह भूख’’ कहा है, परेशान कर रही है क्योंकि वह दूसरे की जमीन कतरने की कोशिश करते रहते हैं। अब जबकि भारत डट गया है और वह जानते हैं कि उस क्षेत्र में उनकी दाल नहीं गलेगी इसलिए कश्मीर का मसला उठा रहे हैं। इसे चीन पहले भारत तथा पाक का द्विपक्षीय मामला कहता रहा है लेकिन अब मध्यस्थता की पेशकश की जा रही है यह जानते हुए कि भारत इसके बिल्कुल खिलाफ है। चीन के सैनिक पहले ही पाक अधिकृत कश्मीर में मौजूद है। चीन का मीडिया लिख ही रहा है कि ‘पाकिस्तान की प्रार्थना पर’ चीन की सेना कश्मीर में दाखिल हो सकती है।
चीन एक सुपरपॉवर है। उसके रवैये से अलगावादियों को प्रोत्साहन मिलेगा। नौसेनाध्यक्ष सुनील लाम्बा कह चुके हैं कि ‘‘सुरक्षा वातावरण अति गंभीर है।’’ थलसेनाध्यक्ष जनरल रावत अढ़ाई मोर्चे पर लड़ने की तैयारी की बात कह चुके हैं। चीन हमें बार-बार याद करवा रहा है कि हमारी और उनकी ताकत में कितना अंतर है। चीन सीधा युद्ध नहीं करेगा। डोकलाम को लेकर झड़पे हो सकती हैं लेकिन वह कश्मीर या दार्जिलिंग में हमारे लिए समस्या खड़ी कर सकता है। चीन और पाकिस्तान की जुगलबंदी और ऊंची हो सकती है।
सेना अपना काम करेगी उस पर भरोसा है। लेकिन अगर ‘बर्बादी के मशवरों’ को असफल करना है तो बहुत जरूरी है कि जम्मू-कश्मीर की सरकार प्रभावी बने। आतंरिक सुरक्षा संभालना सरकारों का काम है सेना का नहीं। इस वक्त तो यह सरकार फ्लाप शो है। एक कश्मीरी पत्रकार ने लिखा है ‘‘वादी में भारत के हर प्रतीक पर हमला हो रहा है।’’ यहां तक स्थिति कैसे पहुंचने दी गई? दूसरा, देश के अंदर पूर्ण सौहार्द चाहिए। गहराते बादलों को देखते हुए राजनीतिक वर्ग को सब कुछ भुला कर एक छतरी के नीचे इकट्ठे हो जाना चाहिए। और जो गौरक्षा के नाम पर हमले कर रहे हैं उनके साथ देश विरोधियों जैसे सलूक किया जाना चाहिए। इस सार्वजनिक पागलपन पर तत्काल रोक लगाई जानी चाहिए। यह नफरत की बाढ़ देश को तबाह करेगी।
तेरी बरबादियों के मशवरे है आसमानों में (Gathering Clouds),