दिल्ली के गली-कूचे इतिहास की बेरहम करवट के गवाह रहें हैं। बहुत कुछ देखा, बहुत कुछ बर्दाश्त किया और बहुत कुछ बर्बाद भी किया। मीर तक्की मीर जिन्हें दिल्ली से इश्क था, ने दिल्ली की बेरहमी के बारे लिखा था,
दिल्ली में आज भीख भी मिलती नहीं उन्हें
था कल तलक दिमाग जिन्हें ताज-ओ-तख्त का
लाल हरदयाल ने मीर को भी जवाब दिया था,
पगड़ी अपनी संभालिएगा मीर
और बस्ती नहीं यह दिल्ली है
अब फिर पगड़ी संभालने का मौका आ गया है। फरवरी में चुनाव है। क्या अरविंद केजरीवाल अपनी पगड़ी संभाल पाएंगे? और अगर उनके सर पर नहीं तो पगड़ी और किस के सिर पर बंधेगी?
दिल्ली आज पूरे देश का लघु रूप है। कभी यह लाहौर के बाद पंजाबियों की नगरी थी और मदन लाल खुराना जैसे नेता पंजाबियों के प्रतिनिधि थे। खुरानाजी के बाद बागडोर शीला दीक्षित के हाथ आ गई जो पंजाबी होने के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के एक प्रतिष्ठित परिवार की बहू भी थीं। उनके बाद अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बन गए और पिछले 21 वर्ष से भाजपा वहां अपने पैर जमाने के लिए हाथ-पैर मार रही है। अब यह पंजाबी शहर नहीं रहा क्योंकि भारी संख्या में उत्तर प्रदेश तथा बिहार से आए लोग केन्द्रीय तथा पूर्वी दिल्ली में बस चुके हैं। चुनाव में इनका समर्थन निर्णायक हो सकता है। दिल्ली लोकसभा में मात्र 7 सांसद भेजती है लेकिन यह देश की राजधानी है, केन्द्रीय सरकार का घर है और सत्ता का केन्द्र है। देश के सबसे ताकतवर लोग चाहे वह राजनीति में हो, व्यापार में हो या मीडिया में हो, यहां ही रहते हैं। बड़े-बड़े नौकरशाह भी यहां ही है। इन सबका अपना-अपना एजेंडा है कोई किसी का सगा नहीं। लयूॅटन की दिल्ली इन सब का घर है लेकिन एक और दिल्ली भी है उन लोगों की जो सत्ताहीन और शक्तिहीन है पर यह लोग है जो तय करते हैं कि दिल्ली प्रदेश की पगड़ी किसके सर बंधेगी।
मुख्य मुकाबला आम आदमी पार्टी तथा भाजपा में है चाहे कांग्रेस भी हाथ-पैर मारने की कोशिश करेगी लेकिन पिछले चुनाव जिसमें कांग्रेस अपना खाता भी खोल नहीं सकी का असर अभी तक है। कांग्रेस का प्रभाव नकारात्मक हो सकता है। अगर कांग्रेस मुसलमानों के वोट का अच्छा हिस्सा ले जाने में सफल रही तो आप के लिए समस्या खड़ी हो जाएगी और विरोधी वोट बंट जाएंगे लेकिन अगर भाजपा को हराने के लिए मुसलमान एकजुट हो कर आप को वोट देते हैं तो आप और भाजपा में सख्त सीधी टक्कर होगी। इस टक्कर में कौन जीतेगा? दोनों आप और भाजपा इस मैदान में बहुत तंदरुस्त हालत में नहीं उतरे। भाजपा तो वैसे ही भटक रही है पर पिछले विधानसभा चुनाव जिसमें आप ने 70 में से 67 सीटें जीती थीं के बाद वह 2019 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट जीत नहीं सकी और किसी भी विधानसभा क्षेत्र में प्रथम स्थान पर नहीं आई। लेकिन इसके बावजूद इस चुनाव मेें आम आदमी पार्टी की बढ़त नज़र आ रही है। इसके पांच कारण है।
एक, अरविंद केजरीवाल बदले हैं। अब वह गंभीर राजनेता बन गए हैं और फिजूल का तमाशा करना उन्होंने छोड़ दिया है। न नीली वैगन आ रही और अब तो मफलर भी नहीं रहा। प्रधानमंत्री को गालियां निकालना भी उन्होंने बंद कर दिया है। राष्ट्रीय राजनीति में विकल्प उभरने का हसीन सपना भी उन्होंने त्याग दिया है और दिल्ली पर अब वह केन्द्रित हैं। समझ लिया कि उनकी हस्ती दिल्ली पर टिकी है। प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, किरण बेदी जैसे लोगों को वह पहले ही बाहर निकाल चुके हैं। अनावश्यक आदर्शवाद या महत्वाकांक्षा त्याग कर अब वह राजनीति की जरूरत के अनुसार चल रहें हैं। दूसरा, भाजपा के पास अरविंद केजरीवाल के मुकाबले कोई कद्दावर चेहरा नहीं है। पिछले चुनाव के अंतिम क्षणों में किरण बेदी को बाहर निकाला गया था। आखिर वह भी इंडिया एगेंस्ट क्रप्शन का केजरीवाल की ही तरह चमका सितारा थी लेकिन किरण बेदी पार्टी को साथ लेकर चलने में असफल रहीं और अपना चुनाव भी हार गई। भाजपा ने उस चुनाव में अब तक का सबसे बुरा प्रदर्शन दिखाया। तब से लेकर अब तक भाजपा वहां कोई लोकप्रिय चेहरा प्रस्तुत नहीं कर की जिसके कारण खुद नरेन्द्र मोदी तथा अमित शाह को मैदान में उतरना पड़ रहा है। मनोज तिवारी, विजय गोयल, हर्ष वर्धन जैसे लोग हैं पर उनका स्तर नहीं है और न ही उनका स्तर बनने ही दिया गया है। प्रादेशिक चुनाव में हर बार नरेन्द्र मोदी को उतार कर पार्टी उनकी छवि का नुकसान कर रही है। लेकिन पार्टी भी क्या करे? मनोहर लाल खट्टर, देवेन्द्र फडनवीस तथा रघुवर दास जैसे भी तो अपना कुछ कमाल नहीं दिखा सके।
तीसरा, भाजपा इस चुनाव मेें उस समय कदम रख रही है जबकि वह लगातार प्रादेशिक चुनाव हारती आ रही है। हरियाणा में मुश्किल से सरकार बनी थी और पार्टी मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के बाद झारखंड भी हार गई है। लोकसभा चुनाव के मुकाबले में महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में वोटों में भारी गिरावट आई है। झारखंड में तो पार्टी का मुख्यमंत्री भी हार गया। झारखंड की हार का असर दिल्ली पर पड़ सकता है। चौथा, देश की गिरती अर्थ व्यवस्था का असर चुनावों पर पड़ रहा है। जीडीपी 5 प्रतिशत से नीचे गिर गई है और बेरोजगारी 45 वर्षों में सबसे अधिक है। निर्मला सीतारमण कोशिश तो कर रहीं है लेकिन गिरावट रुक नहीं रही। भाजपा को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। पांचवां, दिल्ली की आप सरकार ने काम किया है। अरविंद केजरीवाल तो खुलेआम कह रहें हैं कि अगर काम किया है तो वोट दो नहीं तो मत दो। ऐसा आत्म विश्वास आज कम किसी नेता के पास है। शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, कच्ची कॉलोनियां, सीसीटीवी कैमरे आदि पर काम किया गया है। महिलाओं के लिए मुफ्त बस कर दी गई है, मोहल्ला क्लीनिक अच्छा काम कर रहे हैं इसलिए आज केजरीवाल विकास के नाम पर वोट मांग सकते हैं जैसा कभी नरेन्द्र मोदी मांगा करते थे। नरेन्द्र मोदी तथा दूसरे भाजपा नेता राष्ट्रीय मुद्दों पर बात कर रहें हैं। धारा 370, राम मंदिर, नागरिकता संशोधन कानून आदि राष्ट्रीय चुनाव में तो महत्वपूर्ण रहेंगे लेकिन प्रादेशिक चुनाव में केवल स्थानीय मुद्दे ही महत्व रखेंगे, जैसे हम झारखंड में देख कर हटे हैं। दिल्ली में 1731 अनाधिकृत कॉलोनियों को मलकियत देने के सिवाय भाजपा के पास कुछ कहने को और नहीं है। लोग राष्ट्रीय तथा स्थानीय मुद्दों तथा चुनावों के बीच फर्क करने लगे हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर फिजूल बोलना छोड़ कर केजरीवाल भी इस चुनाव को स्थानीय बनाने में सफल रहे हैं। वह नहीं चाहते कि चुनाव मोदी बनाम केजरीवाल बने। वह तो इतना सावधान हो गए हैं कि बवाल के बावजूद न जामिया गए और न ही जेएनयू। केवल फीका ट्वीट कर गुजारा कर लिया। वह भाजपा को चुनाव का धु्रवीकरण करने का मौका नहीं देना चाहते थे।
लेकिन अब दिल्ली को चमकाने की जरूरत है। भारी प्रदूषण, ट्रैफिक, गंदी यमुना और बढ़ते अपराध शहर की छवि बहुत खराब कर रहें हैं। दिल्ली की जनता ‘मोदी फॉर पीएम’ ‘केजरीवाल फॉर सीएम’ का फैसला कर सकती है। इस बीच जामिया की घटना तथा जेएनयू के अंदर नकाबपोश गुुंडों के हमले का क्या प्रभाव पड़ता है यह देखना अभी बाकी है। दिल्ली के दूसरे कालेजों के छात्र-छात्राएं भी प्रदर्शन कर रहे हैं। भाजपा का नेतृत्व कहीं युवाओं के साथ संवाद खो बैठा है। उन्हें लताडऩे या उन पर घटिया लेबल चिपकाने से कुछ नहीं होगा। देश का बहुमत अब युवा है और वह इस वक्त कई कारणों से बेचैन नज़र आ रहा है। उन्हें समझने तथा उन्हें समझाने की जरूरत है। नहीं तो दिल्ली की बेरहमी का सामना करना पड़ेगा।
दिल्ली बेरहम है (Dilli is Merciless),