प्रवासी मज़दूरों की त्रासदी ज़ारी है। महाराष्ट्र में औरंगाबाद के नज़दीक रेल पटरी पर सोए 16 मज़दूरों को माल गाड़ी रौंद गई।चालक कल्पना नही कर सकता था की रेल पटरी पर भी कोई सो सकता है। लेकिन बात दूसरी है। कितनी मजबूरी थी कि थके हारे भूखे प्यासे पुलिस के डंडों से बचते यह सब रेल पटरी पर ही सो गए? पहले लॉकडाउन ने ज़िन्दगी पटरी से उतार दी अब पटरी पर आ रही रेल उनके चिथड़े कर निकल गई। लॉकडाउन के कारण कई सौ किलोमीटर दूर अपने अपने गाँव के लिए निकले 80 प्रवासी रास्ते में ही दम तोड़ चुकें हैं।
आज़ादी के बाद का यह सबसे बड़ा पलायन है। समय पर लॉकडाउन ने बड़ी संख्या में जाने बचाईं हैं पर लाखों लोग फँसे गए और बुरी दुर्गति ग़रीब मज़दूरों की हुई जो वास्तव में न घर के रहें न घाट के। घर वह छोड़ चुके थे घाट ने उन्हें अपनाया नहीं। वह भारत महान की अनाथ औलाद है। लावारिस, बेबस,उपेक्षित,कमज़ोर,कंगाल। शहरों की बेरुख़ी से त्रस्त वह घरों की तरफ़ चल पड़ें हैं पर गाँव में भी इनका क्या है? अगर कुछ अधिक होता तो छोड़ते ही क्यों ? वहाँ भी उनका भविष्य अनिश्चित और असुरक्षित है। कोई काम नही पेट भरना ही मुश्किल होगा पर जैसे पंजाब के गोबिन्दगढ़ के लेबर ठेकेदार प्रितपाल का कहना है, “हमारे मालिक ने वेतन दिया,खाना दिया, लेकिन दिल उचाट है। अगर फिर लॉकडाउन लग गया तो? हम घर से दूर मरना नही चाहते। अपने गाँव में दाह संस्कार चाहते हैं”।
लॉकडाउन तथा इस दौरान बेरहम उपेक्षा ने इस वर्ग में भारी असुरक्षा भर दी है। कुछ मुख्य मंत्रियों का रवैया भी बड़ा नकारात्मक रहा है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने घर जाने के लिए उनकी ट्रेनें रद्द करवा दी थी। येदियुरप्पा को घबराहट थी कि इनके बग़ैर उद्योग कैसे चलेंगे? लेकिन यह बंधुआ मज़दूर तो है नही जिन्हें आप शारीरिक तौर पर रोक सको। क्या इन को घर जाने की आज़ादी नही है? शोर मचने के बाद ट्रेन खोल दी गई पर प्रवासी नाराज़ हैं कि उन्हें अपनी इच्छा के विरूद्ध काम करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। लेबर के पास भी एक ही हथियार है, वह लेबर करने से इंकार कर सकते हैं। कर्नाटक की सरकार यह हथियार भी छीनना चाहती थी।
लेकिन ग़ज़ब की असंवेदना बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दिखाई जो स्पष्ट कर गए कि वह बिहार के सीएम ज़रूर हैं, सभी बिहारियों के नही। जो बिहारी प्रदेश से बाहर है वह उनकी ज़िम्मेवारी नही,कोई हमदर्दी नहीं वह बाहर ही ठीक है, यह नीतीश कुमार का रूखा संदेश था। नीतीश कुमार की समस्या उस दिन शुरू हो गई जिस दिन उतर प्रदेश की सरकार ने कोटा से अपने छात्रों को बसों में भर कर प्रदेश वापिस बुला लिया। बिहार के मुख्य मंत्री को इस पर बड़ी आपत्ति थी जो उन्होंने प्रधानमंत्री के साथ एक वार्ता में स्पष्ट भी कर दी कि, “अगर पाँच व्यक्ति सड़क पर आ कर माँग रखने लग जाएँ तो क्या सरकार को झुकना चाहिए? ऐसे सरकारें चलती हैं”? इस राजकीय घमंड की चुनाव में भारी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। शायद नीतीश कुमार ने समझा कि इतनी बड़ी संख्या में लोगों को कैसे सम्भालेंगे? पर बिहार को नई सोच की ज़रूरत है जो उसे जात पात की बेकार राजनीति से निकाल कर सही विकास की तरफ़ चला सके। उत्तर प्रदेश तथा बिहार दोनों चुनौती है पर योगी आदित्यनाथ मज़बूत प्रशासन देने की कोशिश कर रहें हैं। अगर वह संकीर्ण राजनीति से दूर रहें तो उत्तर प्रदेश के विकास पुरूष बन सकतें हैं। उधर ममता दीदी सदा युद्धरत रहतीं हैं। इस विपदा में भी हवा में तलवार चला रहीं हैं। केन्द्र के हर क़दम में उन्हें साज़िश नज़र आती है।
केन्द्रीय सरकार और कई प्रादेशिक सरकारों ने प्रवासी संकट से निबटने मे संवेदनशीलता नही दिखाई। जिनकी जेबें ख़ाली थी,खाने के लिए पैसे नही थे, जो हमारी जनसंख्या का सबसे पीड़ित और कमज़ोर वर्ग है उनसे ट्रेन के किराए के पैसे माँग लिए गए। अजब घपला किया जिससे प्रभाव बल पकड़ता है कि अफ़सरशाही को देश के निम्न वर्ग की निम्न हालत के बारे जानकारी नही,और अगर जानकारी है तो चिन्ता नही। पहले यातायात ठप्प कर दिया जिससे सब फँस गए फिर प्रवासियों को ले जाने के लिए बसों की इजाज़त दे दी जबकि इतनी बड़ी क़वायद के लिए लाखों बसें चाहिए। जब ट्रेन चलाई तो किराया लेने का आदेश दे दिया। जिनके फटेहाल है उनसे किराया लेना था जबकि सांसदों जैसे विशेषाधिकार प्राप्त लोग मुफ़्त में रेल यात्रा कर सकतें हैं।
सरकार को होश तब आई जब सोनिया गांधी जिनका राजनीतिक ऐनटेना उनके रोज़ आपत्ति करने वाले पुत्र से कहीं ऊँचा है, ने घोषणा कर दी कि मज़दूरों का किराया कांग्रेस पार्टी भरेगी। तब सरकार को समझ आई कि बहुत गड़बड़ हो गई और उसे डैमेज कंट्रोल पर उतरना पड़ा। अब कहना है कि मज़दूरों से तो किराया लेना ही नही था जबकि सोशल मीडिया में इसके आदेश मौजूद है। कईयों ने टिकट की फ़ोटो डाल दी थी। अब केन्द्र तथा प्रदेश सरकारें मिल कर किराया समभाल रहीं हैं लेकिन यह प्रभाव फैल गया कि स्थिति से निबटने की लम्बी सोच नही है और जो फ़ैसले ले रहें हैं उन्हें अपनी ऊँची मचान से नीचे वाले की मजबूरी नज़र नही आती।
प्रवासी मज़दूरों के बिना अर्थ व्यवस्था का पहिया नही चलता। जैसे किसी ने कहा है कि ‘देश के सपनों के हमने पथ बनाए’ लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि इस असंगठित वर्ग के कोई अधिकार नही न ही कोई सुरक्षा है। सरकार को इस वर्ग की तरफ़ विशेष ध्यान देना चाहिए ताकि दोबारा ऐसे अप्रिय दृश्य देखने को न मिलें। 2016-17 के इकनॉमिक सर्वे के अनुसार एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश को वार्षिक प्रवासन 90 लाख है। यह अधिक भी हो सकता है। इतनी बड़ी संख्या को सम्भालना विशाल चुनौती है। अब इन दीन-हीन ‘भईये’ की क़ीमत पड़ रही है। कारखानेदार मिन्नतें कर रहें है क्योंकि उनके बिना उत्पादन नही होता लेकिन सरकार की सख़्ती से प्रवासी इतना भयभीत है कि अभी लौटने को तैयार नही जैसे लेबर ठेकेदार प्रितपाल का कहना था, ‘अगर फिर लॉकडाउन लग गया तो’? सबसे बड़ा नुक़सान यह हुआ है कि ग़रीबों का सरकार पर से भरोसा बिलकुल टूट गया।
इस भरोसे को फिर से क़ायम करने के लिए बहुत मेहनत और सोच की ज़रूरत है। प्रवासी तब ही लौटेंगे अगर उन्हें बेहतर वेतन मिलेगा, सुरक्षित नौकरी मिलेगी और उन्हें यक़ीन दिलवाया जाएगा कि उन्हें फिर क़ैद नही किया जाएगा। एकदम नाटकीय क़दम चाहे वह नोटबंदी हो या तालाबंदी, से कमज़ोर वर्ग बिलकुल तबाह हो जाता है। प्रधानमंत्री मोदी को इसका ध्यान रखना चाहिए क्योंकि पहली बार ग़रीब जो सदा उनके साथ रहा है उनसे नाराज़ नज़र आ रहा है। कहीं सात महीने की गर्भवती पैदल चल रही थी तो कहीं पैरों में छालों के साथ नन्हें बच्चे चल रहे थे तो कहीं बूढ़े बाप को उठा कर बेटा चल रहा था। कितनी मजबूरी है ? कई सौ किलोमीटर की पैदल यात्रा के दौरान कहीं पानी तक का प्रबन्ध नही था, भोजन के प्रबन्ध का तो सवाल ही नही। अगर ट्रेन नही तो लंगर का प्रबन्ध तो किया जा सकता था। कुछ जगह सिख भाईयों ने लंगर लगाए थे लेकिन बाक़ी किसी ने कोशिश नही की, न ही उन्हें प्रेरित ही किया गया। भाजपा जो ख़ुद को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी कहती है के कार्यकर्ताओं को प्रवासियों की मदद के लिए क्यों नही उतारा गया? उन्होंने लंगर क्यों नही लगाए? क्योंकि यह ग़रीब मज़दूर हैं इसलिए किसी की निगाह में नही हैं? वह अदृश्य हैं?
अब फ़ैसला लिया जाऐगा कि लॉकडाउन जारी रखा जाऐ या नही क्योंकि अर्थ व्यवस्था को गति देना बहुत ज़रूरी हो गया है। यह बहुत कठिन फ़ैसला होगा। आशा है सरकारें जो भी फ़ैसला लें उस में प्रवासियों की तकलीफ़ों का समाधान भी शामिल हो। सरकार ने ग़रीबों के लिए कई स्कीमें शुरू की हैं पर जब उनका और उनके परिवार का अस्तित्व ख़तरे में पड़ गया तो माई-बाप सरकार ने मुँह मोड़ लिया। इससे उन्हें भारी मनोवैज्ञानिक धक्का पहुंचा है। बेंगलूरू से 2000 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर के लिए पैदल निकले चन्द्रभूषण का कहना है ‘यहाँ हमारे लिए कुछ नहीं। न खाना दिया गया न पैसा। सरकार हमारी सुनती नही। वह लोग अन्दर बैठें हैं, हम उन्हें दिखते नही’।
चन्द्रभूषण के इस कथन में जहाँ हताशा झलकती है, वहाँ व्यवस्था के प्रति अविश्वास भी स्पष्ट है। अगर ‘सपनों के पथ’ और बनाने हैं तो इस अहसास को पलटने की तत्काल ज़रूरत है।
देश की अनाथ औलाद (The Lost People of India),