पड़ोस में अराजक स्थिति, Turmoil in Our Neighbourhood

पाकिस्तान की राजनीति में फिर भारी उथल पुथल शुरू हो गई है। यह निश्चित है कि बदलाव आएगा पर यह निश्चित नही कि बदलाव बेहतरी के लिए होगा। विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव जो वह हार जाते, से बचने के लिए पाकिस्तान के लड़खड़ाते वजीर-ए-आज़म इमरान खान ने डिप्टी स्पीकर के द्वारा उसे रद्द करवा और राष्ट्रपति द्वारा नैशनल एसैम्बली को भंग करवा नए चुनाव की घोषणा कर दी है। उनके इस कदम से विपक्ष हक्काबक्का रह गया है। वह इसे संविधान का उल्लंघन, ग़ैरक़ानूनी और बंदनीयत कह रहें हैं। प्रमुख वक़ील अब्दुल मोयेज़ ज़ाफ़री ने इसे ‘संविधान का बेहूदा दुरूपयोग’ करार दिया है।   

पाकिस्तान का इतिहास साक्षी है कि किसी भी प्रधानमंत्री को पाँच साल पूरे नही करने दिए गए। अपने अस्तित्व के लगभग आधे समय यहां सैनिक शासन रहा है। बाकी समय सेना ने किसी न किसी कठपुतली को बैठा कर पीछे से सरकार चलाने की कोशिश की है। नवाज़ शरीफ़ को सेना ही लेकर आई थी, पर जब देखा कि वह मनमानी करने लग पड़े हैं और विशेष तौर पर उनकी भारत नीति सेना की नीति से मेल नही खाती तो जनरल मुशर्रफ ने उनका तख़्ता पलट दिया। इमरान खान को भी सेना लेकर आई थी नही तो दो दशक से वह भी भटक रहे थे। इसीलिए कई लोग उन्हे ‘सिलैकटेड’ न कि ‘इलैकटेड’ पीएम कहते थे। आज वही पार्टियाँ इमरान खान का साथ छोड़ गईं है, इसलिए स्पष्ट है कि पीछे किस का हाथ है। सेना का कहना है कि वह इस घटनाक्रम के पीछे नही है पर सब जानते है कि इमरान खान और जनरल बाजवा में नए आईएसआई चीफ़ की नियुक्ति को लेकर खटपट हो गई थी।  सेना द्वारा इस घोषणा कि वह इस संकट में तटस्थ हैं पर इमरान खान का पलटवार था कि ‘केवल जानवर तटस्थ है’। इसी से पता चलता है कि  आपसी कितनी कड़वाहट है।

बीबीसी का कहना है कि ‘व्यापक तौर पर समझा जाता है कि इमरान खान को सेना सत्ता में लेकर आई थी पर अब झगड़ा हो गया है’। 2018 में इमरान खान को पाकिस्तान की शक्ल बदलने के लिए कुर्सी सौंपी गई पर वह निहायत ही निक्कमें पीएम साबित हुए हैं। इमरान ने  ‘नया पाकिस्तान’ का वादा किया था पर जो मिला वह पुराने से भी बुरा था। ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरतों की क़ीमतें आसमान को छू रही हैं। विदेशी मुद्रा का भंडार लगातार कम हो रहा है। बांग्लादेश भी बेहतर स्थिति में है, जो बात उन्होने ख़ुद स्वीकार  की है, चाहे इसके लिए वह ख़ुद को दोषी नही मानते।  जनता की तकलीफ़ों के बारे इमरान खान का रवैया कितना लापरवाह है यह इस बात से पता  चलता है कि उन्होने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि वह ‘आलू टमाटर’ की क़ीमतें देखने के लिए  पीएम नही बने।  लोकतन्त्र के प्रति भी यही लापरवाह रवैया है क्योंकि उनका कहना है कि ‘ यह महत्व नही रखता कि किसके पास संसद में कितने नम्बर हैं’।

चाहे अपनी इस हालत के लिए वह भी ‘विदेशी हाथ’को ज़िम्मेवार ठहरा रहें हैं पर वास्तविकता है कि उन्होने हर उसे नाराज़ कर लिया जिसकी उन्हे और पाकिस्तान को जरूरत है। उन्होने तो उस साउदी अरब के नेतृत्व को भी नाराज़ कर लिया था जिसने बार बार मदद कर पाकिस्तान को संकट से उभारा था।  वह देश इतना नाराज हो गया कि उन्होने अपना दिया क़र्ज़ा वापिस माँग लिया। आख़िर में सेनाध्यक्ष  जनरल बाजवा को वहां जाकर मिन्नत करनी पड़ी। चाहे आजकल वह भारत की आजाद विदेश नीति की बड़ी प्रशंसा कर रहें हैं और यहां तक कहा है कि ‘भारत के पासपोर्ट की विदेशों में इज़्ज़त है’, भारत के साथ दुष्मनी बढ़ाने का उन्होने कोई मौक़ा नही गँवाया।  वह रोज़ाना  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और संघ पर व्यक्तिगत हमले करते रहें है जिसके कारण रिश्ते और कटु हो गए हैं।

अंधे भारत विरोध के कारण उन्होने पाकिस्तान को चीन के पाले में जकड़ दिया और ख़ुद विदेश नीति के विकल्प खत्म कर दिए। कोविड से पहले ही पाकिस्तान के खस्ता हाल थे अब वह चीन के क़र्ज़े के जाल में फँस गया है जो इस वक़्त स्तब्धकारी 4.2 अरब डालर है। जो देश भीख का कटोरा लेकर दर दर की ठोकरें खा रहा है उसकी  आजाद विदेश नीति हो ही नही सकती। उन्होने अपनी संसद में ओसामा बिन लादेन को शहीद करार दिया और तालिबान के प्रति अपना झुकाव कभी नही छिपाया। अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की पीठ लगवाने में भी उन्होने कोई कसर नही छोड़ी।  अमेरिका वहां से निकल तो गया पर  अपनी फ़ज़ीहत नही भूला। अब इमरान खान  खुला आरोप लगा रहें हैं कि उनकी सरकार गिराने में अमेरिका की साजिश है। ऐसा कह  इमरान खान अपने लिए सहानुभूति प्राप्त करना चाहते है पर अमेरिका के साथ तो अपने सारे पुल उन्होने जला दिए हैं। यहां भी उनकी समस्या है, शक्तिशाली पाक सेना इससे सहमत नही।

पाकिस्तान के बारे आम कहा जाता है कि जहाँ दूसरे देशों के पास सेना है, पाकिस्तान की सेना के पास देश है। अर्थात यहां वह होगा जो सेना चाहेगी। सेना  इमरान खान की असंतुलित नीतियों से ख़ुद को अलग कर रही है।  इसका पहला संकेत उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के दस्तावेज़ में मिला था जिसमें भारत के साथ रिश्ते बेहतर करने की बात कही गई थी। जनरल बाजवा कई बार भारत से संबंध बेहतर करने की बात कह भी चुकें है। पाकिस्तान की नई राष्ट्रीय सुरक्षा नीति पर पाकिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत शरत सभ्रवाल का कहना है, “यह इस बात का अहसास है कि पुरानी नीतियाँ चलाने से पाकिस्तान की चुनौतियाँ, विशेषतौर पर आर्थिक, बढ़ रही हैं।  पाकिस्तान की बड़ी राय यह समझती है कि भारत के साथ मज़बूत रिश्ते उनके हित में हैं”। पर लगता नही कि अपने आइवरी टॉवर में रहने वाले इमरान खान को यह समझ आई क्योंकि उन्होने तो शर्त रख दी कि सामान्य रिश्तों के लिए भारत पहले जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने का कदम वापिस ले। इस मूर्ख को समझ नही कि यह सरकार तो क्या भारत की कोई भी सरकार धारा 370 को बहाल नही करेगी।

जो इमरान खान नही समझ सका वह पाकिस्तान की सेना ने समझ लिया कि अमेरिका को नाराज कर और भारत के साथ रिश्ते बिगाड़ कर वह बच नही सकते इसीलिए पाकिस्तान के जनरल कमर जावेद बाजवा समझदारी की बातें कर रहें है।  पिछले एक साल से नियंत्रण रेखा पर भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम कायम है और  उधर आतंकवादियों के लॉंचिंग पैड पर भी तादाद कम बताई जाती है। जहाँ इमरान खान यूक्रेन के मामले में रूस का पक्ष ले रहें है वहां बाजवा का कहना है कि यूक्रेन में रूस का हमला  तत्काल रूकना चाहिए। उनका साथ यह भी कहना है कि भारत के साथ कश्मीर  समेत हर मसले का समाधान वह ‘कूटनीति और वार्ता’ से हल करना चाहतें हैं। अगर पाकिस्तान की सेना सचमुच गम्भीर है तो भारत को भी प्रयास करना चाहिए क्योंकि  हम भी दो मोर्चों पर टकराव नही चाहते। इमरान खान की तरह बाजवा ने धारा 370 हटाने की कोई शर्त नही लगाई। अमेरिका को भी बता दिया गया कि वह इमरान खान की अमेरिका विरोधी  नीति से सहमत नही।  ब्रिटेन में निर्वासित  पाकिस्तानी पत्रकार गुल बुख़ारी ने  लिखा है कि सेना स्वीकार कर रही है कि उनका ‘प्राजैक्ट इमरान’ फेल हो गया है और सेना उन्हे और ढोने को तैयार नही। पाकिस्तान को आईएमएफ़ से 6 अरब डालर का बेलआउट पैकेज चाहिए। सेना जानती है कि अमेरिका को नाराज कर यह पैकेज नही मिलेगा।  वह यह भी जानते है कि ख़ुद को डूबने से बचाने के लिए भारत के साथ  तापमान नीचा करना होगा।  

पाकिस्तान का राजनीतिक संकट क्या करवट लेता है यह आने वाले दिनों में साफ़ हो जाएगा पर दूसरा संकट इससे भी गहरा है कि देश फटे हाल है। अर्थव्यवस्था डगमगा रही है, ख़ज़ाना ख़ाली है, महंगाई आसमान को छू रही है। वहां रईस लोगो का एक छोटा द्वीप है जिसे गरीबों और शोषितों के समुन्दर  ने घेर रखा है। राजनीतिक अराजकता है।  जो इमरान खान की जगह लेना चाहतें हैं वह भी पुराने पापी हैं। बलूचिस्तान में जनवरी के बाद 17 हमले हो चुकें है जिनमे से 10 सुरक्षा बलों पर हुए हैं। भारी प्राण हानि हुई है।  इमरान खान के चार वर्षों ने पाकिस्तान को राजनीतिक अराजकता के कगार पर पहुँचा दिया है जहाँ हर कोई किसी के ख़िलाफ़ है। सुप्रीम कोर्ट का कोई भी निर्णय आए यह अनिश्चितता खत्म होने वाली नही। चुनाव आयोग का  कहना है कि वह तीन महीने में चुनाव नही करवा सकते।  हमारा चिन्तित होना स्वभाविक है क्योंकि अस्थिर पड़ोसी देश परमाणु ताकत भी है।

लेकिन हमारी समस्या केवल पाकिस्तान ही नही पड़ोसी श्रीलंका भी है जो कंगाल हो गया है। पाकिस्तान की तरह चीन के साथ दोस्ती उन्हे तबाह कर गई है। वह भी भारत का विकल्प ढूँढ रहे थे कि चीन के क़र्ज़ जाल में फँस गए और उन्हे 99 वर्षों के लिए हबनटोटा बंदरगाह चीन को पट्टे पर  देनी पड़ी। न अनाज है, न पेट्रोल है, न दवाई है और न मंगवाने के लिए पैसे है। एक साल में विदेशी मुद्रा का भंडार 70 प्रतिशत गिरा है।  अब हम से मदद माँग रहें है जो हम कर भी रहें है, पर श्रीलंका की राजनीतिक  समस्या अजीब है। इसके सारे मंत्रिमंडल पर राजपक्षे परिवार का क़ब्ज़ा था। एक भाई राष्ट्रपति है तो एक प्रधानमंत्री तो एक वित्त मंत्री  तो  एक कृषि मंत्री था। 70 प्रतिशत विभाग इस एक परिवार के पास थे। क्योंकि लोग सड़कों पर उतर आएँ है इसलिए मंत्री परिषद ने इस्तीफ़ा दे दिया पर छोटे भैया  राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे और बड़े भैया प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे अपने पदों पर बने हुए हैं।  विपक्ष नें मंत्रीं मंडल  में शामिल होने से इंकार कर दिया है और सरकार अपना बहुमत खो बैठी है।  लोग कर्फ़्यू की परवाह नही कर रहे और विरोध कर रहें हैं।  घोर अराजक स्थिति है। एक और पड़ोसी  का संकट भी  जारी रहेगा।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.