क्या संदेश? कौन संदेशवाहक? ,What Message? Who Messenger ?

 

भारतीय जनता पार्टी और एनडीए दोनों इस मामले में स्पष्ट हैं कि उनका संदेश भी नरेन्द्र मोदी हैं और उनके संदेशवाहक भी नरेन्द्र मोदी ही हैं। किसी क़िस्म का कोई कंफ्यूजन नही है। सब कुछ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द ही है। और कोई नहीं। भाजपा की सारी उर्जा, कारगुज़ारी, नीति सबका नाम भी नरेन्द्र मोदी हैं। लगभग दो अवधि पूरी करने के नज़दीक नरेन्द्र मोदी की स्थिति बाक़ी वैश्विक नेताओं से अलग है। शासन विरोधी भावना जिसका सामना दूसरों को करना पड़ता है उनकी लोकप्रियता को कोई क्षति नहीं पहुँचा रही। हाल ही में इंडिया टुडे-सीवोटर ‘मूड ऑफ द नेशन’ सर्वेक्षण के अनुसार 52 प्रतिशत लोग महसूस करते हैं कि वह प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त हैं और 63 प्रतिशत के अनुसार उनका प्रदर्शन या तो बढ़िया है या अच्छा है। यह पिछले सर्वेक्षण से कम है पर चुनावी वैतरणी पार करने के लिए पर्याप्त से अधिक है। सर्वेक्षण कहता है कि अगर अब चुनाव होते हैं तो भाजपा को 287 सीटें और एनडीए को 306 सीटें मिलेंगी। अर्थात् बहुमत, 272, से आसानी से पार। इसीलिए तो नरेन्द्र मोदी ने लाल क़िले से देश को बता दिया था कि अगले साल इसी लालक़िले से वह देश के सामने  प्रगति और उपलब्धियों का लेखा जोखा प्रस्तुत करेंगे।

इसी आत्मविश्वास को पंक्चर करने के लिए 28 पार्टियों का गठबंधन ‘इंडिया’  मुम्बई में अपनी बैठक  कर हटा है। वह समझते हैं कि मोदी सरकार कई मामलों में असुरक्षित है। इंडिया टुडे- सीवोटर का सर्वेक्षण भी इसकी तरफ़ इशारा करता है, पर यह बाद में। अभी तो ‘इंडिया’ ने समन्वय समिति बनाई है और फ़ोटो खिंचवा कर नेता लौट गए है। पर जिन मामलों को लेकर सवाल उठ रहें हैं उन पर कोई रोशनी नहीं डाली गई। तीन प्रमुख सवाल है। एक, नरेन्द्र मोदी के सामने ‘इंडिया’ का कौन चेहरा होगा? या सामूहिक नेतृत्व से सामना करेंगे? होना तो चाहिए कि कांग्रेस क्योंकि सबसे बड़ी और विपक्ष में एकमात्र राष्ट्रीय दल है जिसे पिछली बार 12 करोड़ वोट और 19 प्रतिशत वोट मिले थे, को नेतृत्व का मौक़ा दिया जाए। उनके पास राहुल गांधी हैं जिनकी लोकप्रियता भारत जोड़ों यात्रा के बाद पहले से बढी है चाहे अभी भी वह नरेन्द्र मोदी से बहुत पीछें हैं। उनके पास मलिक्कार्जुन ख़रगे भी हैं जो दलित नेता हैं, दक्षिण से है और बहुत अनुभवी हैं। देश में कभी भी दलित प्रधानमंत्री नहीं बना। बाबू जगजीवन राम प्रधानमंत्री बनने के नज़दीक पहुँच गए थे पर इंदिरा गांधी की पराजय के बाद उन्हें नही मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री चुना गया था। तब हताशा में बाबूजी ने कहा था, “एक दलित कभी भी देश का प्रधानमंत्री नहीं बन सकता”। पर खुद खरगे का कहना है कि 2024 में कांग्रेस नेतृत्व पर दावा नहीं करेगी।  

दूसरी समस्या है कि सीटों का बँटवारा कैसे होगा? यह बहुत जटिल समस्या है क्योंकि कई जगह ‘इंडिया’ के घटक दल एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी है। कई प्रादेशिक पार्टियाँ कांग्रेस की क़ीमत पर खड़ी हुई हैं। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और मार्क्सवादी सब दौड़ में है। ममता बनर्जी कांग्रेस को तो बर्दाश्त करने के लिए तैयार हैं पर कामरेडों को तो देखने तक के लिए तैयार नहीं है। दिल्ली और पंजाब में आप और कांग्रेस में बँटवारा कैसे होगा? अगर दोनों एक साथ लडतें है तो चंडीगढ़ समेत 21 सीटों पर उनका मुक़ाबला करना कठिन होगा। सोच यह लगती है कि सम्भावित विजेता को समर्थन दिया जाए। पर यह कैसे  तय होगा कि पंजाब में  ‘सम्भावित विजेता’  कौन  है? कांग्रेस जिसके 7 लोकसभा सांसद हैं और आप के पास 1, या आप जिसके विधानसभा में 92 विधायक है जबकि कांग्रेस के 18 हैं? मुम्बई में बताया गया कि लोकसभा चुनाव ‘जहां तक सम्भव’ इकट्ठा लड़ा जाएगा। सीट बँटवारे का फ़ार्मूला बनेगा। पर सवाल है कि जो गठबंधन एक संयोजक का नाम तय नहीं कर सका वह सीट बँटवारे का फ़ार्मूला बना लेगा?

राहुल गांधी का कहना है कि उनका गठबंधन 60 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करता है। यह भी सही है कि ‘इंडिया’ गठबंधन की पार्टियाँ 11 प्रदेशों में सत्तारूढ़ है और इसका विस्तार देश भर में है।  प्रादेशिक चुनाव में यह गठबंधन भाजपा को अच्छी टक्कर दे सकता है पर लोकसभा चुनाव अलग मुद्दों पर लड़े जातें हैं। तीसरा सवाल यह है कि क्या यह गठबंधन टिकाऊ होगा? इसके लिए बहुत ज़रूरी है कि बताया जाए कि वास्तव में वह क्या है? जिसे आजकल ‘नैरेटिव’ कहा जाता है वह ‘इंडिया’ का क्या है?  केवल यह कहना कि वह नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय सरकार के खिलाफ है पर्याप्त नहीं है। ‘इंडिया’ को बताना होगा कि अगर वह सत्ता में आ गए तो देश की ज्वलंत समस्या, बेरोज़गारी, बढ़ती क़ीमतें, समाजिक तनाव, चीन आदि का उनके पास क्या समाधान है? यह 1977 या 1989 का भारत नहीं है जब प्रधानमंत्री के खिलाफ लहर थी।

जिन दिनों मुम्बई में ‘इंडिया’ की बैठक चल रही थी सरकार ने पहले संसद के विशेष अधिवेशन की घोषणा की और अगले दिन पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में ‘एक देश -एक चुनाव’ पर एक समिति का गठन कर दिया। यह तय नहीं कि यह समिति कब तक अपनी रिपोर्ट देगी पर इस वक़्त इसके गठन से तहलका ज़रूर मच गया। 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुई करते थे। उसके बाद मामला इतना बिगड़ा कि हर साल कहीं न कहीं चुनाव लगा रहता। है। पैसे भी खर्च होते हैं और नेताओं का समय भी बर्बाद होता है। प्रधानमंत्री मोदी जो हर चुनाव को गम्भीरता से लेते हैं विशेष तौर पर स्थाई चुनावी अंदाज में रहतें हैं। यह निर्विवाद है कि एक साथ चुनाव करवाने से समय और पैसे की बचत होती है पर भारत जैसे संघीय देश में यह व्यवहारिक नहीं है। अगर कोई सरकार मध्यावधि गिर जाती है तो क्या होगा? क्या बाक़ी अवधि तक राष्ट्रपति शासन लगेगा? और अगर केन्द्र की सरकार गिर जाती है तो फिर क्या होगा क्योंकि केन्द्र में तो राष्ट्रपति शासन का कोई प्रावधान नहीं है। 1996 में  अटल बिहारी वाजपेयी की पहली सरकार  13 दिन चली थी। 1998 में उनकी सरकार 13 महीने चली।  अगर पाँच साल के बाद चुनाव होने हैं तो ऐसी स्थिति में क्या होगा? आशा है कि सब पहलुओं पर कोविंद कमेटी गहराई से अध्ययन करेगी और इसका सम्बंध मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़,  तेलंगाना और मिज़ोरम में दिसम्बर तक होने वाले चुनावों से नहीं होगा। इतने केन्द्रीय दल और 30 लाख ईवीएम का प्रबंध करवाना भी  आसान नहीं होगा।

पर संसद का विशेष अधिवेशन बुलाना,  कोविंद कमेटी का गठन और फिर सरकार द्वारा ‘इंडिया’ की जगह ‘भारत’ का इस्तेमाल, यह संकेत जरूर देता है कि ‘इंडिया’ के गठन और एकजुटता दिखाने से भाजपा नेतृत्व  चिन्तित है। आख़िर एक भी पार्टी गठबंधन छोड़ कर नहीं गई इसलिए पहल छीनने या ध्यान मोड़ने की कोशिश हो रही है।   इसके कई कारण हैं। जिस इंडिया टुडे- सी वोटर सर्वेक्षण का मैंने उपर ज़िक्र किया है वह यह भी बताता है कि एनडीए और ‘इंडिया’ के वोट में केवल 1.6 प्रतिशत का अंतर है। एनडीए फ़ायदा में है क्योंकि ‘इंडिया’ का वोट बिखरा है। पर इतना कम अंतर चिन्ता का विषय ज़रूर होना चाहिए। और भी संकेतक है जो भाजपा के नेतृत्व की परेशानी बढ़ा रहे है। जहां 61 प्रतिशत लोगों का कहना था कि प्रधानमंत्री मोदी का अंतराष्ट्रीय स्तर बढ़ा है वहाँ 55 प्रतिशत का कहना था कि एनडीए की नीतियों से बिग बिसनेस को फ़ायदा हुआ है और केवल 9 प्रतिशत महसूस करते हैं कि छोटी बिसनेस को फ़ायदा पहुँचा है। जो सरकार खुद को छोटे लोगों की हितैषी कहती है उसके लिए यह प्रभाव  चिन्ताजनक होना चाहिए। चीन पर भी नज़र रखने की ज़रूरत होगी कि वह चुनाव परिणाम प्रभावित करने का प्रयास न करे।

अर्थव्यवस्था के क्षेत्र के बारे चिन्ताजनक समाचार हैं। 62 प्रतिशत महसूस करतें हैं कि उनकी अपनी हालत पहले से ख़राब हुई है और रोज़मर्रा का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा है। 72 प्रतिशत महसूस करते हैं कि बेरोज़गारी की समस्या बहुत गम्भीर है।   बढ़ती क़ीमतों और बेरोज़गारी के कारण आम वोटर में मायूसी बढ़ रही है जो अगर सम्भाली नहीं गई तो मोह भंग का रूप ग्रहण कर सकती है। ‘इंडिया’ की जगह ‘भारत’ करने से उसका दुख दर्द दूर नहीं होगा। प्रधानमंत्री मोदी की अंतरराष्ट्रीय छवि और जी- 20 सम्मेलन जैसे भव्य कार्यक्रमों का राजनीतिक फ़ायदा उठाने की कोशिश होगी। लेकिन भाजपा के दो और लोकप्रिय दावे भी काम नहीं आएँगे। अजीत पवार के साथ समझौता करने से भ्रष्टाचार विरोधी छवि में गड्ढे पड गए हैं। साथ ही जो ताजगी और नवीनता का प्रदर्शन भाजपा और मोदी ने पिछले दो चुनावों में दिखाया था वह भी फीका पड़ गया है। प्रधानमंत्री को भी इसका अहसास है इसलिए ध्यान मोड़ने या भविष्य की तरफ़ ले जाने की कोशिश हो रही है। भारत के तीसरी महाशक्ति बनने और 2047 में उन्नत भारत का वादा कर रहें हैं।

सरकार की कोशिश होगी कि महंगाई और बेरोज़गारी की समस्या से लोगों का ध्यान हटा रहे पर यह लगातार मुश्किल होरहा है। ‘इंडिया’ के लिए अपने बड़े कुनबे को सम्भालना चुनौती होगी जो तमिलनाडु में स्टैलिन के बेटे द्वारा सनातन धर्म को निकाली गाली से पता चलता है। ऐसी वाहियात और निन्दनीय टिप्पणी तो अपने पैरों पर कुल्हाड़ा चलाने का समान है।  यह भी लाज़मी सवाल है कि जहां ऐसे वैचारिक मतभेद हों वहां यह दल कितनी देर इकट्ठे रहेंगे?  ‘इंडिया’ के नेताओं को यह भी मंथन करना चाहिए कि चाहे आर्थिक कष्ट बढ़ा है पर लोग फिर भी नरेन्द्र मोदी को क्यों पसंद कर रहें हैं और उनमें और उनके नज़दीकी प्रतिद्वंद्वी राहुल गांधी के बीच 36 प्रतिशत का विशाल फ़ासला क्यों हैं? जब मतदाता हताशा प्रकट कर रहा है फिर भी एनडीए और भाजपा को बहुमत क्यों मिल रहा है और ‘इंडिया’ को बराबर आकर्षक क्यों नहीं समझा जा रहा? इसका एक कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में लोग स्थायित्व और मज़बूती देखते हैं जो वह 28 पार्टियों के जमघट में नहीं देखते। इनका अभी तक न कोई संगत संदेश है न ही कोई विश्वसनीय संदेशवाहक है।  संसद का अधिवेशन शायद भावी राजनीति पर रोशनी डाल जाए पर एक बात तो स्पष्ट हैं कि दोनों बड़े खिलाड़ी अनिश्चितता और बेताबी प्रकट कर रहें हैं। 1 बनाम 28 दिलचस्प मुक़ाबला होगा। यह भी देखने की बात है कि यह मुक़ाबला ‘भारत अर्थात् इंडिया’ में होता है, या ‘भारत’ में !

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.