
गणतंत्र की स्थापना के 75 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। यह एक महत्वपूर्ण मील पत्थर है क्योंकि आज़ादी के समय चर्चिल समेंत बहुत लोगों ने भविष्य वाणी की थी कि कुछ ही समय में हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाएगा और ‘लड़ाई झगड़ें में लुप्त हो जाएगा’। हमने न केवल हमारे अशुभ की कामना करने वालों को ग़लत साबित कर दिया बल्कि अस्थिरता के समुद्र में स्थिरता और प्रगति की मिसाल क़ायम कर दी। भारत लोकतांत्रिक देश है जबकि हमारे चारों तरफ़ देश या तानाशाही बन चुकें हैं या सैनिक शासन क़ायम है या भारी उथल-पुथल से गुजर रहें हैं। यहाँ हर चुनाव ने लोकतंत्र की जड़ों को मज़बूत किया है। दोनों शासक और शासित समझतें हैं कि यह देश केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था जो हमारे संविधान की देन है, के द्वारा ही चल सकता है। एक बार अवश्य इंदिरा गांधी ने लोगों के मूल अधिकारों का हनन किया था पर जल्द समझ गईं थी कि यह देश डंडे के बल पर नहीं चल सकता।
आज़ादी के बाद जिन्होंने देश को सम्भाला था का यह योगदान है कि हम सही रास्ते पर चल रहें हैं। सत्ता बदलती रही है पर एमरजैंसी को छोड़ कर सदैव वोट के द्वारा। चाहे जवाहरलाल नेहरु की खूब आलोचना हो रही है और महात्मा गांधी को भी बख्शा नहीं जा रहा, यह देश अगर पाकिस्तान नहीं बना तो यह आज़ादी के समय के नेतृत्व की दूरदर्शिता का परिणाम है। गांधी- नेहरू-पटेल की त्रिमूर्ति को श्रेय जाता है कि देश सही रहा है। उन्होंने सब तरह की राय का सम्मान किया। आजकल कांग्रेस की आलोचना हो रही है कि इस पार्टी ने अम्बेडकर को पूरा सम्मान नहीं दिया। यह सही है कि अम्बेडकर और गांधी-नेहरू के बीच मतभेद थे पर राष्ट्र निर्माण के मामले में कोई भिन्नता नहीं थी। दोनों गांधी और नेहरू ने ही मतभेदों के बावजूद अम्बेडकर से निवेदन किया था कि वह संविधान बनाने की प्रक्रिया की अध्यक्षता करें। आज ऐसी उदारता की कल्पना ही नहीं की जा सकती। कई संशोधनों के बावजूद यह संविधान समय की कसौटी पर खरा उतरा है।
पर लोकतंत्र पर तनाव ज़रूर है। सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच संवाद का टूट जाना देश के हित में नहीं है। पिछले संसद अधिवेशन के समाप्त होने से एक दिन पहले संसद के मकर द्वार पर जो झगड़ा हुआ वह परेशान करने वाला है। वैसे तो कई संसद है जैसे दक्षिण कोरिया, जहां मार पीट हो चुकी है। अमेरिका में भी डॉनल्ड ट्रम्प ने पिछले चुनाव का नतीजा मानने से इंकार कर दिया था और अपने हिंसक अनुयायियों को हमला करने के लिए उकसाया था। पर हमारी यह परम्परा नहीं है। हमारी परम्परा तो रही है कि ‘आप से चाहे मतभेद हों पर आपके कहने के अधिकार की मैं रक्षा करूंगा’। पर यह वचन टूटता नज़र आ रहा है। अम्बेडकर के देहांत को 68 वर्ष हो चुके पर हमारे नेता उनकी विरासत को लेकर आज झगड़ रहें हैं जबकि बाबासाहिब खुद शिष्टता के प्रतीक थे और अगर वह आज जीवित होते तो हमारे सांसदों को समझाते कि उन्हें लड़ने झगड़ने के लिए नहीं चुना गया। जब वोटर वोट देता है तो समझता है कि उनके जन प्रतिनिधि उनके कल्याण के लिए काम करेंगे, पर क्या किसी ने संसद में महंगाई,रोज़गार, प्रदूषण, महिला सुरक्षा पर गम्भीर बहस सुनी है? सब बाहर आकर कैमरे के आगे हंगामा करने में विश्वास रखते हैं। संसद के एक दिन पर देश 10 करोड़ रूपए खर्च करता है। पर इससे भी महँगा सांसदों का ग़ैर ज़िम्मेवार व्यवहार है।
संसद का ठीक तरह से न चलना देश के सामने एक मात्र समस्या नहीं है। अर्थ व्यवस्था में सुस्ती नज़र आ रही है। 2023-2024 में जो दर 8.2 प्रतिशत थी 2024-2025 में 6.4 प्रतिशत रहने की सम्भावना है। यह बड़ी गिरावट है जिसका चारों ओर बुरा असर पड़ेगा। डॉलर के मुक़ाबले भी रूपया लगातार गिर रहा है। जब मैं लिख रहाँ हूँ तो 1डॉलर के बदले 86.58 रूपए देने पड़ रहे हैं। यह रिकार्ड निम्न सतर है। इससे आयात का बिल बहुत बढ़ेगा। हमारी तेल और गैस की 88 प्रतिशत ज़रूरतें बाहर से पूरी होतीं है। सब महँगे होंगे। उपर से यह मालूम नहीं कि अमेरिका के नए राष्ट्रपति ट्रम्प क्या गुल खिलाएँगे? वह चीन, मैक्सिको, कनाडा पर शुल्क बढ़ाने की धमकी दे चुकें हैं पर एकाध बार हमें भी ‘टैरिफ़-किंग’ अर्थात् ‘शुल्क का राजा’ कह धमका चुकें हैं। उनका रवैया दुनिया में अस्थिरता पैदा करेगा। हम अछूते नहीं रहेंगे।
अक्तूबर में चीन के साथ सीमा से पीछे हटने का समझौता हुआ था पर अभी तक उसे पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका। जो थोड़ी बहुत सद्भावना बनी थी वह भी बिल्कुल ख़त्म हो गई है क्योंकि अचानक चीन ने दो घोषणा की है जो हमारे हितों को चोट पहुँचाती हैं। अकसाई चिन जो लद्दाख का हिस्सा है, में दो नए ज़िले बनाए गए हैं जबकि यह हमारी भूमि है। इसी के साथ चीन ने यह घोषणा की है कि वह तिब्बत में दुनिया का सबसे बड़ा डैम बना रहा है। इससे नीचे वाले देश, भारत और बांग्लादेश, प्रभावित होंगे। चीन की अकड़ ऐसी है कि हमें सूचित करने की ज़हमत नहीं उठाई गई। हम विरोध प्रकट करने के सिवाय कुछ नहीं कर सके, और न ही कर सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने चीन के साथ सम्बंध सामान्य करने का बहुत प्रयास किया है पर चीन का रवैया नकारात्मक रहा है। बड़ा कारण है कि चीन हमें सांझीदार नही, ऐशिया में प्रतिस्पर्धी समझता है। उनकी जीडीपी हमसे पाँच गुना है। यह ग़ैर- बराबरी तकलीफ़ दे रही है। चीन से चुनौती आगे भी मिलती रहेगी। उन्हें केवल व्यापार बढ़ाने में रुचि है जिसे कम करने में हम असफल रहें हैं।
चीन अपने बेहतर शिक्षा व्यवस्था के कारण हमसे बहुत आगे निकल गया है और विज्ञान, टेक्नॉलजी, नवाचार, रिसर्च में अमेरिका से टक्कर ले रहा है। हमें आशा होगी कि डॉनल्ड ट्रम्प चीन पर कुछ नियंत्रण करेंगे पर आख़िर में इस वर्तमान और भावी चुनौती का हमने खुद सामना करना है। हमें अपना शिक्षा ढांचा बेहतर करना है ताकि हम दुनिया का मुक़ाबला कर सकें। देश से ब्रेन-ड्रेन को रोकना है। पर्याप्त रोज़गार बढ़ाने में भी हम असफल रहें है। चाहे संख्या मामूली है, हमारे लोग रूस की सेना में क्यों हैं? ट्रम्प अवैध अप्रवासियों को वापिस भेजना चाहतें है। इनमें बड़ी संख्या हमारे लोगों की होगी। दुनिया की पाँचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था को सोचना चाहिए कि युवा यहाँ से भागना क्यों चाहतें हैं? बाहर हमारे लोग इतना अच्छा क्यों करते है? क्योंकि उन्हें मौक़ा मिलता है। हम यहाँ वह परिस्थिति पैदा करने में क्यों असफल है? हमे रिसर्च, डिवैलपमैंट, इंफ़्रास्ट्रक्चर,हैल्थ, शिक्षा पर और निवेश करना चाहिए ताकि दुनिया का मुक़ाबला कर सकें।
अगर हमने आगे बढ़ना है तो पीछे देखना बंद करना होगा। जैसे मोहन भागवत ने भी कहा है कि हम कब तक मस्जिदों के नीचे शिवलिंग ढूँढते रहेंगे?। ऐसे मिलेंगे बहुत, पर क्या हर चार -छ: महीने के बाद कहीं न कहीं साम्प्रदायिक विवाद खड़ा कर दिया जाएगा? अखिल भारतीय संत समिति ने भागवत की आलोचना की है कि वह ‘धर्माचार्य के कार्य क्षेत्र में दखल दे रहे हैं’। शायद इसी के बाद भागवत का बयान आया है कि ‘असली आज़ादी’ अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के बाद मिली थी। यह दुर्भाग्यपूर्ण बयान है। अगर लोगों को धार्मिक मामलों में इतनी रुचि होती तो अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन के कुछ महीने बाद हुए आम चुनाव में लोग भाजपा से बहुमत न छीन लेते और अयोध्या में उसे पराजित न कर देते। जैसे पूर्व राजनयिक विवेक काटजू ने लिखा है, “अतीत के गौरव जिसका हमलावरों ने विध्वंस किया था की सारी खुदाई आज की चुनौतियों का सामना करने में हमारी मदद नहीं कर सकतीं। यह जनसंख्या के कुछ हिस्से की भावनात्मक इच्छा को पूरा कर सकती है, पर इस से हमारे सामने जो रणनीतिक चुनौतियाँ हैं उनका समाधान नहीं होगा “। नितिन गड़करी ने भी कहा है, “सहिष्णुता और दूसरों का सम्मान हमारी राजनीतिक प्रणाली का अभिन्न अंग है”।
दुनिया तेज़ी से बदल रही है पर हमें खुदाई में दिलचस्पी है। आरटिफिशियल इंटेलिजेंस दुनिया की क्या हालत बनाएगी, अभी तक इसका अंदाज़ा नहीं है। कई विशेषज्ञ तो विनाश की भविष्यवाणी कर रहें हैं पर हमारा ध्यान ‘इतिहास की ज़्यादतियों’ की तरफ़ है। इसे कल्याण नहीं होगा, कुछ लोगों को उत्तेजित होने का मौक़ा ज़रूर मिल जाएगा। ऐसा करते वक़्त हम संविधान की मूल भावना की अवमानना कर रहे हैं। दूसरों के प्रति सहिष्णुता और सम्मान हमारे संविधान के सिद्धांतों का प्रमुख हिस्सा है। अफ़सोस है कि हमारे सार्वजनिक जीवन से शालीनता और शिष्टता समाप्त हो रही है। इसका असर नीचे तक पहुंच रहा है जो बढ़ते टकराव और अपराध में प्रकट हो रहा है। अदालतों में मंदिर-मस्जिद विवादों को लेकर लगभग 18 मामले लम्बित है। अधिकतर उत्तर प्रदेश से हैं। इससे कितना बवाल मचेगा? पर क्या यही हमारा भविष्य है? इस गणतंत्र दिवस पर हमें याद रखना है कि अपने से लड़ता झगड़ता भारत, जैसा हम पिछले साल देख कर हटें हैं, किसी के लिए मिसाल नहीं हो सकता। अगर हम अतीत को सही करने की कोशिश करते रहे तो भविष्य को ज़ख़्मी कर लेंगे। यह संतोष की बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अजमेर शरीफ़ चादर भेजी है। पर भाईचारे के ऐसे संदेश नीचे तक क्यों नहीं पहुँच रहे?