क्या राजधानी बदलनी चाहिए ?, Should The Capital Be Shifted?

                चेहरे पर सारे शहर के गर्द-ए-मलाल है

                जो दिल का हाल है, वहीं दिल्ली का हाल है

                            —मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

शशि थरूर का सुझाव है कि राजधानी दिल्ली से बदल कर किसी और जगह ले जानी चीहिए। कुछ समय पहले एक पोस्ट में वह लिखतें हैं, “दिल्ली सरकारी तौर पर दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी है…2015 से कुछ एक्सपर्ट ठीक करने की कोशिश कर रहें हैं पर उन्होंने हाथ खड़े कर दिए हैं क्योंकि ‘कुछ नहीं बदलता और किसी को परवाह नहीं’…नवम्बर से लेकर जनवरी तक यह शहर रहने लायक़ नहीं रहता और बाक़ी साल मुश्किल से जीने लायक़ रहता है”। फिर वह बड़ा सवाल करतें हैं, “क्या इसे राजधानी रहना भी चाहिए”?

बहुत कड़वा पर सार्थक सवाल है, क्या दिल्ली जहां प्रदूषण और स्मॉग से लोगों का दम घुट रहा है, भारत की राजधानी रहनी भी चाहिए? 2024 में दिल्ली ने एक ‘गुड’ दिन भी रिकार्ड नहीं किया।जब शशि थरूर ने पोस्ट डाली थी तब से हालत बदतर हुए हैं। पहले केवल प्रदूषण था, सर्दियों में कोहरा शामिल हो जाता है और घातक स्मॉग बन जाता है। हवा में ज़हर घुला हुआ है। जनवरी के पहले पखवाड़े में कई दिन दिल्ली मे जीरो विजिबिलिटी अर्थात् शून्य दृश्यता दर्ज की गई। कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। असंख्य फ़्लाइट रद्द करनी पड़ी, बहुत ट्रेन या रद्द हो गईं या घंटों देर से चल रहीं थीं। 2-3 जनवरी को एनसीआर में 9 घंटे ज़ीरो विजिबिलिटी  वाली हालत थी। इतना लम्बे समय तक पहले यह हालत नहीं रही। उपर से प्रदूषण ‘स्वीयर’, गम्भीर को पार कर गया था। क्या किसी देश की राजधानी वह शहर हो सकती है जहां कुछ भी नज़र न आता हो और साँस की बीमारी के मरीज़ों से अस्पताल भरें हो? बचपन में हम दिल्ली में तारे देखा करते थे। तारों वाली दिल्ली कहाँ लुप्त हो गई?

हमें दुनिया की सबसे तेज गति से प्रगति करने वाला देश समझा जाता है पर दिल्ली की हालत हमारे ब्रॉड को कमजोर कर रही है। निवेशक भी देख रहें हैं। बहुत विदेशी प्रदूषण के कारण यहां आने से घबराते हैं। 30 सबसे प्रदूषित शहरों में से 22 भारत में हैं। पर क्या किसी को चिन्ता भी है? या समझ लिया गया है कि बीमारी लाइलाज है? बीजिंग एक समय सबसे प्रदूषित शहर था। पर चीन ने काफ़ी हद तक समस्या का इलाज कर लिया। इसके लिए बहुआयामी रणनीति अपनाई गई। वाहन उत्सर्जन पर नियंत्रण किया गया, हैल्थ सुविधाओं में भारी वृद्धि की गई और लोगों को जागरूक किया गया। ठीक है चीन वह सख़्ती कर सकता है जो भारत जैसा लोकतांत्रिक देश नहीं कर सकता, पर कहीं से तो शुरू होना है। ऑड- इवन जैसी मज़ाक़िया योजनाओं से तो समस्या का इलाज नहीं होगा। मैक्सिको सिटी ने अपना कायाकल्प कर लिया है। बीजिंग से न सही, मैक्सिको सिटी से तो सीखना चाहिए।

दिल्ली के राजनीतिक गतिरोध ने समस्या को और विकराल बना दिया है। दोनों केन्द्र और प्रदेश सरकारें लखनवी तकल्लुफ़ की तरह पहले आप, पहले आप, कर रहें हैं। भाजपा उस दिन की इंतज़ार कर रही है जब उपर नीचे उनकी सरकारें होगीं। अरविंद केजरीवाल और आप के पास तो बहाना है ही कि एलजी काम नहीं करने दे रहे। इस टकराव में दिल्ली पिस रही है। यह ख़त्म होना चाहिए। शीला दीक्षित के बाद किसी ने काम की सरकार नहीं दी। आजकल दिल्ली में चुनाव प्रचार चरम पर है पर कोई भी राजनीतिक दल दिल्ली की वास्तविक हालत की चर्चा नहीं करता, विवाद ‘शीश महल’ बनाम ‘राज महल’ पर हो रहा है। ‘आप-दा’, जाट आरक्षण, पूर्वांचली सम्मान, पर झगड़ा हो रहा है। लेकिन कोई स्मॉग पर या प्रदूषण पर चर्चा नहीं कर रहा। दिल्ली में अपराध क्यों बढ़ रहा है? महिलाऐं असुरक्षित क्यों है? यमुना के उपर विषैली सफ़ेद झाग क्यों तैर रही है? इन पर कोई चर्चा नहीं जबकि देश के सबसे ताकतवर लोग यहां रहतें है। अगर उनके पास समस्या का समाधान नहीं तो किस के पास है? या मान लिया है कि समस्या का समाधान है ही नही?

दिल्ली के प्रदूषण के कारण सर्वविदित है। वाहनों का प्रदूषण, निर्माण से उठती धूल,औद्योगिक प्रदूषक,पंजाब और हरियाणा में जलती पराली, सबने मिल कर दिल्ली को गैस-चेम्बर बना दिया है। बहुत समय पराली को इसके लिए ज़िम्मेवार ठहराया गया। अपने सर से दोष हटाने के लिए यह सुविधाजनक भी था। बड़ी अदालतें भी खूब फ़रमान जारी करती रहीं पर अब तो पराली जल नही रही फिर दिल्ली की इतनी दयनीय स्थिति क्यों है? पराली जलने से प्रदूषण बढ़ता है पर यह दिल्ली के प्रदूषण का मूल कारण नहीं है। अनुमिता रॉय चौधरी, सैंटर ऑफ साईंस ऐंड एनवायरनमैंट की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर, ने लिखा था, “ दिल्ली के वायु प्रदूषण में जो ख़ौफ़नाक वृद्धि हुई है वह पराली जलाने से ही नही हो सकती थी अगर स्थानीय फ़ैक्टर जैसे वाहन उत्सर्जन ने पहले ही राजधानी की हवा को ज़हरीला न बना दिया होता”।

यह दिल्ली की कड़वी हक़ीक़त है कि प्रदूषण के मुख्य उत्पादक स्थानीय है। जब तक इनका सुधार नहीं हो जाता दिल्ली सुधरेगी नही। वाहन उत्सर्जन प्रदूषण में 50-60 प्रतिशत योगदान डालता है। रोज़ाना 1800 नए वाहन दिल्ली की सड़कों पर उतर रहें है। 2024 में यह संख्या 1 करोड़ को पार कर चुकी है। जब तक वाहन उत्सर्जन, औद्योगिक प्रदूषण, कूड़ा जलाने, निर्माण की धूल आदि पर नियंत्रण नहीं किया जाता तब तक कुछ नहीं हो सकता। पराली को दोष देने का कोई फ़ायदा नहीं अंदर झांकने की ज़रूरत है। दिल्ली की जनसंख्या 3.3 करोड़ बताई जाती है। अगर एनसीआर को शामिल कर लिया जाए तो 5 करोड़ के लगभग हो जाएगी। 650 से अधिक तो स्लम बस्तियां हैं। निर्वाचक मण्डल का 10 प्रतिशत इन बस्तियों में रहता है जहां मूल सुविधाएँ उपलब्ध नहीं। इतनी विशाल जनसंख्या को सम्भालना असम्भव है। नागरिक भी अधिक अनुशासनहीन और आक्रामक बनते जा रहे है। हाल ही में मैट्रो और रैपिड ट्रांसपोर्ट सिस्टम शुरू किया गया है। यह अच्छा कदम है। आसपास के इलाक़ों को तेज और आरामदायक ट्रांसपोर्ट सिस्टम से जोड़ने का फ़ायदा होगा पर बहुत लोग हैं जो अपने वाहनों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होंगे। वीआईपी वर्ग को मिसाल क़ायम करनी चाहिए पर वह तो खुद बड़ी बड़ी गाड़ियों के क़ाफ़िलों में घूमते है। इंग्लैंड में मन्त्री भी मैट्रो में सफ़र करते है। उत्तरी योरूप के देशों के कई प्रधानमंत्री साईकिल पर जाते देखे जा सकते हैं। पर हमारे यहां यह होगा नहीं। हमने अंग्रेजों से शानो शौक़त विरासत में हासिल कर ली है। वह इच्छा शक्ति नज़र नहीं आती जो दिल्ली का उद्धार कर सके।

दुनिया में कई देश हैं जिन्होंने अपनी राजधानी शिफ़्ट कर ली है। म्यांमार, ब्राज़ील, कज़ाखस्तान, तनजानिया, नाइजीरिया, पाकिस्तान सबने अपनी नई राजधानी बनाई है। इंडोनेशिया और मिस्र नई राजधानियाँ बना रहे हैं। मलेशिया की राजधानी कुआलालम्पुर है पर प्रशासनिक राजधानी कुछ दूर पुत्रजाया है। भीड़ से बचने के लिए नया शहर बनाया गया जहां धीरे धीरे कार्यालय भेजे जा रहें है। क्या दिल्ली का भी यही इलाज है?

दिल्ली का देश के दिल में विशेष स्थान है। आख़िर शायर ने कहा ही था कि ‘कौन जाए ज़ौक़ पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर’? दिल्ली और मुम्बई दो महानगर है जो देशवासियों के बहुत प्रिय हैं पर मुम्बई का वह इतिहास नहीं है जो दिल्ली का है। दिल्ली की ज़मीन के नीचे तो इतिहास, संस्कृति, कला, सभ्यता की कई परतें दबीं है। महाभारत काल में इंद्रप्रस्थ से लेकर सुल्तानों और मुग़लों की यह राजधानी रही है। मुस्लिम शासन के दौरान दिल्ली बार बार उजड़ी और बसी। कहतें है कि पुरानी दिल्ली सातवीं है। 1638 में शाहजहाँ राजधानी आगरा से दिल्ली ले आया। 1911 में अंग्रेजों ने ब्रिटिश राज की राजधानी कोलकाता से दिल्ली शिफ़्ट की थी। दिल्ली को बसाने के लिए पहाड़ काटे गए, घना जंगल साफ़ किया गया, बाज़ार सजाए गए। बहुत मार काट भी हुई। दिल्ली की कहानी बार बार उजड़ने और बसने की है। आज यह आधुनिक भारत की राजधानी है जहां मुग़ल बादशाह शाहजहाँ द्वारा बनाए गए लालक़िले पर आज़ादी दिवस पर झंडा लहराया जाता है।

पर इसी दिल्ली के चेहरे पर ‘गर्द-ए-मलाल’ है। यह प्रदूषित है, गंदी है, भीड़भाड़ वाली है जिसकी सड़कें सुरक्षित नही रही। इसकी भुगौलिक स्थिति ऐसी है कि हवा उपर आकर अटक जाती है। इतनी बड़ी जनसंख्या, जो हर साल बढ़ रही है, को सम्भालना आसान काम नहीं। आंध्र प्रदेश अपनी नई राजधानी अमरावती बना रहा है। तेलंगाना ने भी नया शहर बनाने की घोषणा की है। क्या हमें भी नई राजधानी के बारे सोचना चाहिए ?

 मैं नहीं समझता कि यह होगा। जो देश के कर्णधार है वह दिल्ली छोड़ने के लिए तैयार नहीं होंगे। विशेष तौर पर ऊँचे पेड़ों वाले लुटियंस ज़ोन में जो रहतें हैं वह ‘दिल्ली की सड़कें’ छोड़ कर जाने को तैयार नहीं होंगे।  आख़िर दिल्ली में वह बात है जो किसी और शहर में नही। पर दिल्ली को डी-कंजैस्ट करने अर्थात् दबाव कम करने की तरफ़ तो कदम उठाए जा सकतें है। केवल इच्छा शक्ति और जवाबदेही की कमी है। आजकल हम महाकुंभ का सफल आयोजन कर रहें है। करोड़ों लोग आस्था के साथ स्नान कर रहें हैं। दिल्ली से श्रीनगर रेल चलने वाली है और कश्मीर को लद्दाख से सभी मौसम के लिए जोड़ा जा रहा है। अर्थात् जब चाहें तो हम कर सकतें हैं। ऐसी ही प्रतिबद्धता दिल्ली को सुधारने की तरफ़ दिखाई जानी चाहिए। दिल्ली को संकल्प चाहिए, नाटक नही।

VN:F [1.9.22_1171]
Rating: 0.0/10 (0 votes cast)
VN:F [1.9.22_1171]
Rating: 0 (from 0 votes)
About Chander Mohan 750 Articles
Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.