
मंज़िल जुदा जुदा है, मक़सद जुदा जुदा है,
भीड़ तो जमा है,यह कारवां नही
2024 के लोकसभा चुनाव, जहां इंडिया गठबंधन ने मिल कर भाजपा को बहुमत से नीचे रखा था, के परिणाम के बाद यह आशा जगी थी कि इंडिया गठबंधन अब नरेन्द्र मोदी की सरकार को ज़बरदस्त चुनौती देगा। पर जैसे जैसे समय बीत रहा है यह प्रभाव है कि सामंजस्य की कमी और गम्भीर मतभेदों के कारण यह गठबंधन भटक गया है और अप्रासंगिकता के कगार पर है। कई पर्यवेक्षक तो असामयिक मौत की बात कर रहें हैं। पहले हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम और फिर दिल्ली के चुनाव परिणाम के बाद यह नज़र आने लगा है कि न केवल यह गठबंधन बिखरने के कगार पर है, यह नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा का मुक़ाबला नहीं कर सकता। आम चुनाव में भाजपा को जो झटका लगा था उससे भाजपा उभर चुकी है। एक समय ज़रूर लग रहा था कि भाजपा का नेतृत्व पहल खो रहा है पर विधानसभा चुनावों में पार्टी ने ऐसी वापिसी की है और विपक्ष ने ऐसी नालायकी दिखाई है कि विपक्ष के गठबंधन के भविष्य पर ही पर प्रश्न चिन्ह लग रहा है।
अफ़सोस यह भी है कि विपक्ष में कोई भी चिन्तित नहीं है कि घर को सही करना है। कोई बैठक नहीं हो रही और न ही संसद के अंदर समन्वय की बहुत कोशिश ही की जा रही है। दिल्ली में आप को जो धक्का लगा है उससे विपक्ष में दरार स्पष्ट हो गई है। जहां बाक़ी विपक्ष के नेता आप का समर्थन कर रहे थे वहाँ कांग्रेस भाजपा से अधिक आप से भिड़ रही थी। अरविंद केजरीवाल की शिकायत है कि दिल्ली के चुनाव अभियान के दौरान कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ तो एक शब्द नहीं कहा केवल आप पर हमला करती रही। राहुल गांधी और दूसरे कांग्रेस के नेताओं ने सीधा केजरीवाल पर हमला बोला था। अगर कांग्रेस और आप मिल कर यह चुनाव लड़ते तो शायद चुनाव परिणाम अलग होते। इसी तरह अगर हरियाणा में आप वोट न काटती तो कांग्रेस की सरकार बन सकती थी। विपक्ष के गठबंधन में यह विरोधाभास है कि वह इकट्ठे भी है और एक दूसरे का गला काटने में भी लगें हैं। कांग्रेस समझती है कि कई प्रादेशिक दल उसकी कीमत पर फलें-फूलें हैं और अगर यही सिलसिला चलता रहा तो कांग्रेस आधार खोती जाएगी। इसी पतन को रोकने के लिए इस बार दिल्ली में आप का विरोध किया गया। लेकिन हिन्दी क्षेत्र में जहां भाजपा से सीधी टक्कर हैं उनका प्रदर्शन कमजोर रहता है। यह गठबंधन में कांग्रेस की स्थिति को कमजोर करता है।
कांग्रेस समझती है कि प्रादेशिक दल उसके परम्परागत समर्थन, विशेष तौर पर मुस्लिम और दलित वोटर, छीन ले गए है। दूसरी तरफ़ प्रादेशिक दल कांग्रेस को अपने विस्तार में रूकावट समझतें हैं। दिल्ली में कांग्रेस को खुद केवल छ: प्रतिशत वोट ही मिले पर वह मुस्करा रहें हैं कि आप की सरकार नहीं बन सकी। न ही कोई साँझा कार्यक्रम तैयार करने की कोशिश की गई न ही कोई संयुक्त बैठक हो रही है न संयुक्त रैली ही हो रही है। पहले कम से कम संसद में कुछ एकजुटता दिखाई दे रही थी अब वह भी कमजोर हो गई है। यही कारण है कि बाक़ी विपक्ष सोचने लगा है कि कांग्रेस के साथ मिल कर चलने में अभी कोई फायदा नहीं, उल्टा नुक़सान है। जब अगला आम चुनाव आएगा तब देख लेंगें।
राहुल गांधी कांग्रेस और विपक्ष की शक्ति भी हैं और कमजोरी भी। उनमें मुद्दे उठाना और सरकार को बैकफ़ुट पर डालने की क्षमता है। किसी और विपक्षी नेता में यह क्षमता नही। सरकार को कई बार उन्होंने रक्षात्मक बनाया है पर उनमें दूसरों को साथ लेकर चलने का स्वभाव नहीं है। न वह धैर्य है और न ही वह विनम्रता है। एकला चलो रे राजनीति में नहीं चलता। शिकायत है कि वह विपक्ष के नेताओं को मिलने का समय नहीं देते। जिस तरह सोनिया गांधी या अटल बिहारी वाजपेयी गठबंधन को सम्भालते थे वह गुण राहुल में नज़र नहीं आते। विपक्ष का नेता बनने के बाद समझा गया था कि राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी के स्वभाविक विकल्प बन कर उभरेंगे। राष्ट्रीय सर्वेक्षण अभी भी राहुल गांधी को सबसे प्रभावशाली विपक्षी नेता बता रहें हैं पर लोकप्रियता में वह नरेन्द्र मोदी के नज़दीक भी नहीं फटकते। दूसरे विपक्षी नेताओ को साथ लेकर चलनें में उनकी असफलता और अड़ानी जैसे मुद्दे पर अड़े रहने से उनका प्रभाव बढा नही। राष्ट्रीय सर्वेक्षण बताते हैं कि लोग बेरोज़गारी और महंगाई को सबसे बड़े मुद्दे मानते है,अडानी को नही। शरद पवार तो कह ही चुकें हैं कि संसद का समय दूसरे मुद्दों पर बेहतर इस्तेमाल हो सकता है। पर राहुल वन-ट्रैक है। जिस मुद्दे पर अड़ गए उसे छोड़ते नही। याद करिए उनका ‘चौकीदार चोर है’ अभियान। किसी ने इसे महत्व नहीं दिया। उन्हें भी सोचना चाहिए कि कितनी देर वह संविधान की कापी लहराते रहेगें जबकि सब जानते हैं कि संविधान खतरें में नहीं हैं।
विपक्षी नेता उनके ‘शुतुरमुर्ग रवैये’ की शिकायत करते हैं। पूर्व वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जूलियो रिबेरो जिन्हें मोदी भक्त नहीं कहा जा सकता, ने भी लिखा है, “राहुल अच्छे इंसान है पर अच्छे राजनीतिक जानवर नहीं हैं। वह बहुत बार ग़लत मुद्दा उठा लेते हैं जिसका फ़ायदा भाजपा की चुस्त प्रचार -मशीनरी उठा लेती है”। कांग्रेस को अपना नेतृत्व लोकतांत्रिक बनाना चाहिए पर वह परिवार के तीन सदस्यों और मल्लिकार्जुन खड़गे तक सिमट गए हैं। नवीनतम मामला शशि थरूर से सम्बंधित है। वह केरल से चार बार चुनाव जीत चुकें हैं। शशि थरूर का अपना व्यक्तित्व है और जन समर्थन हैं, पर पार्टी में पर्याप्त महत्व न मिलने के कारण वह असंतुष्ट बताए जाते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा की प्रशंसा की है जिसे नेतृत्व ने पसंद नहीं किया। अगर वह कांग्रेस छोड़ गए तो पार्टी को ही नहीं, पार्टी के नेतृत्व को भी धक्का लगेगा कि वह अच्छे लोगों को सम्भाल नहीं सके। शायद नेतृत्व इस बात से ख़फ़ा है कि 2022 में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में शशि थरूर ने सोनिया गांधी के उम्मीदवार खड़गे के विरूद्ध चुनाव लड़ा था। परिवार ऐसी जुर्रत को माफ़ नहीं करता। पर प्रतिभा की कमी कांग्रेस को कमजोर कर देगी।
विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस के नेतृत्व ने दिल से काम नहीं किया। राहुल गांधी शायद समझतें हैं कि उनकी प्रमुख भूमिका विपक्ष के नेता की है और रोज़मर्रा की राजनीतिक में हाथ गंदे करने की ज़रूरत नही। पर संगठन को चुस्त किए बिना गति नहीं है विशेष तौर पर जब मुक़ाबला भाजपा के 24/7 नेतृत्व से हो। नरेन्द्र मोदी तो खुद हर मैदान में उतरतें हैं। संसद में दिए भाषण महत्व रखतें है पर केवल इन्हीं के बल पर राजनीति चमक नहीं सकती। कांग्रेस के नेतृत्व से निराशा के कारण ही जब ममता बनर्जी ने इंडिया गठबंधन का नेतृत्व करने की इच्छा व्यक्त की तो बाक़ी विपक्षी नेताओं ने उन्हें समर्थन दे दिया। ममता को लालू प्रसाद यादव, शरद पवार, अरविंद केजरीवाल,उद्धव ठाकरे सब का समर्थन मिला जो गठबंधन में कांग्रेस के प्रति बढ़ते अविश्वास को प्रकट करता है।लालू प्रसाद यादव बहुत समय से गांधी परिवार के समर्थक रहें हैं। बिहार चुनाव से कुछ समय पहले उनका पलटा महत्वपूर्ण है कि चुनाव में उन्हें कांग्रेस का साथ नहीं चाहिए। पश्चिम बंगाल में अगले साल चुनाव है और ममता बनर्जी स्पष्ट कर चुकीं हैं कि उनकी पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी। कांग्रेस के साथ की ज़रूरत नही। दूसरे विपक्षी नेता ममता बनर्जी को नेता स्वीकार करतें हैं क्योंकि बंगाल के बाहर वह किसी के लिए ख़तरा नहीं है। कई बार वह बंगाल से बाहर पैर जमाने का प्रयास कर चुकीं हैं पर कुछ हासिल नहीं हुआ। अखिल भारतीय विपक्षी पार्टी केवल कांग्रेस है। वही एकमात्र पार्टी है जिसने लगातार और आक्रामकता से सरकार का विरोध किया है।
विपक्ष गठबंधन के नेता की भूमिका निभाने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व को सूझबूझ और उदारता दोनो दिखाने होंगे। इस समय दोनों का अभाव नज़र आता है। अगले साल केरल,असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और पुडेच्चरी के चुनाव है। दूसरे विपक्षी दल कांग्रेस को दूर रखना चाहते हैं। अगर वह अलग अलग चुनाव लडेंगे तो वोट कटेंगे और फ़ायदा भाजपा को ही होगा। विपक्ष का गठबंधन गति खो रहा है। वोटर भी भ्रमित है कि यह लोग इकट्ठे है या अलग? 2024 में भाजपा और नरेन्द्र मोदी को हराने का लक्ष्य था इसलिए सब रंग बिरंगे इकट्ठे हो गए थे। अब 2029 तक कोई ऐसा लक्ष्य नहीं मिलने वाला जिस कारण सब अपनी अपनी राह पकड़े हुए हैं। हिन्दी और परिसीमन को लेकर अकेले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टैलिन केन्द्र से जूझ रहें हैं। देश के लिए अच्छा नहीं कि विपक्ष बिखरा हुआ है। मज़बूत विपक्ष सरकार को मनमानी से रोकता है। पिछले चुनाव में वोटर ने मज़बूत विपक्ष के लिए अपनी स्पष्ट इच्छा व्यक्त भी की थी। और विपक्ष केवल कांग्रेस के इर्द गिर्द ही इकट्ठा हो सकता है जो बात अखिलेश यादव ने स्वीकार भी की है। पर इसके लिए कांग्रेस के नेतृत्व को दूरंदेशी दिखानी होगी। क्या इस महत्वपूर्ण मोड़ पर राहुल गांधी अंग्रेज़ी के मुहावरे के अनुसार ‘स्टूप टू कौंकर’,अर्थात् जीतने के लिए झुकेंगे?