भाषा जोड़ती है, तोड़ती नही, Language Is A Facilitator Not A Disruptor

यह अफ़सोस की बात है कि देश में फिर भाषा को लेकर विवाद शुरू हो गया है। अंग्रेज़ी बनाम हिन्दी, हिन्दी बनाम मराठी, हिन्दी बनाम कन्नड़, हिन्दी बनाम तमिल। ममता बनर्जी का कहना है कि वह बंगला के लिए मरने को तैयार हैं। ऐसे विवाद अनावश्यक है क्योंकि किसी भी भाषा को यहाँ ख़तरा नहीं है और न ही ममताजी के अपनी जान देने की ही ज़रूरत पडेगी। सारी भाषाओं का विकास होना चाहिए पर यहाँ तो अनावश्यक लड़ाई झगड़ें शुरू हो गए हैं। इस विवाद का सबसे बदसूरत चेहरा हमने मुम्बई में देखा जहां महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के गुंडों ने उन लोगों को पीटना शुरू कर दिया जो मराठी नहीं बोल सकते। मुम्बई में सारे देश से लोग बसतें है। केवल 35-36 प्रतिशत लोगों ने ही मराठी को अपनी मातृभाषा घोषित किया था। हिन्दी बोलने वाले भी लगभग बराबर हैं। जिसे बंबइया भाषा कहा जाता है वह मराठी, हिन्दी, गुजराती और अंग्रेज़ी की खिचड़ी है। सबको मराठी नहीं आती। क्या अब सब थप्पड़ खाने के लिए तैयार हो जाऐं? महाराष्ट्र की सरकार ने स्कूलों में पहली से पाँचवीं तक तीन भाषाई फ़ार्मुला लागू किया था।  मराठी के साथ हिन्दी को अनिवार्य किया पर बाद में ऐच्छिक कर दिया पर राजनीतिक ज़मीन तलाश रही मनसे भड़क उठी कि इससे मराठी अस्मिता को ख़तरा है। महाराष्ट्र सरकार ने समर्पण कर दिया और आदेश वापिस ले लिया।

राजनीतिक तौर पर बेरोज़गार राज ठाकरे की अब धमकी है कि वह प्रदेश के उन सब रहने वालों को थप्पड़ मारेंगे जो मराठी में नही बोलते। सारे देश से जो कामगार वहाँ हैं वह कहां जाएँगे? जो पढ़े लिखें प्रोफेशनल है वह क्या करेंगे? जहां तक ‘मराठी अस्मिता’ का सवाल है, यह दिलचस्प है कि हिन्दी पढ़ने से तो अस्मिता ख़तरों में पड़ रही है पर अंग्रेज़ी पढ़ने से न पहचान और न ही अस्मिता को ख़तरा है ! वहाँ दसवीं तक अंग्रेज़ी पढ़ना अनिवार्य है। मराठी को कोई ख़तरा नहीं? और हिन्दी से मराठी को ख़तरा भी किस बात का है? अपनी भाषा के प्रति इतनी असुरक्षा क्यों है? अगर पांचवी के बाद कोई बच्चा हिन्दी नहीं पढ़ना चाहता तो नहीं पढ़ेगा, झगड़ा किस बात का है? जो माँ बाप अपने बच्चों को अखिल भारतीय प्रतियोगिता के लिए तैयार करना चाहते हैं वह हिन्दी की जरूरत समझतें है।

अगर आपको मराठी या तमिल या कन्नड़ या किसी और भाषा से प्यार है तो अच्छी बात है,पर हिन्दी से ख़ामख़ा नफ़रत प्रदर्शित करने की क्या ज़रूरत है? वरिष्ठ पुलिस अधिकारी 96 वर्ष के जूलियो रिबेरो, मुम्बई के बारे लिखते हैं, “हिन्दोस्तानी,जैसा मुम्बई के हिन्दी संस्करण को जाना जाता है,को मुम्बई में व्यापक रूप से बोला और समझा जाता है…अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में जो बच्चे पढ़ रहे हैं वह सब हिन्दी जानते है”। इसी प्रकार दक्षिण भारत में हिन्दी के विरोध का मामला है। दक्षिण की अपनी भाषाएँ बहुत समृद्ध हैं। तमिल तो संस्कृत से भी प्राचीन है। सब वहाँ तमिल बोलते हैं पर बड़ी मात्रा में प्रवासी हैं। वह क्या करें? देश में आखिर एक तो सम्पर्क भाषा चाहिए जिसे सब समझ सकें। यह हिन्दी के सिवाय और कोई नहीं हो सकती। दुर्भाग्य की बात है कि भाषा भी तनाव का मुद्दा बन गई है नहीं तो चेन्नई में ही बड़ी संख्या में सीबीएसई और प्राईवेट स्कूलों में बच्चे हिन्दी पढ़तें हैं क्योंकि हिन्दी आपको प्रतिस्पर्धी बनाती है। वहाँ शोले और दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाऐंगे जैसी फ़िल्में महीनों चली थीं जबकि तमिल फ़िल्म उद्योग खुद बहुत लोकप्रिय है। आजकल दक्षिण की फ़िल्में उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हो रही हैं। यह सिलसिला देश को मज़बूत करता है। भावनात्मक एकता बढ़ती है।

यह अजीब तर्क है कि अंग्रेज़ी से कोई ख़तरा नहीं, हिन्दी से है! जो हिन्दी का विरोध करते हैं उनका कहना है कि 43 प्रतिशत से कम लोगों ने हिन्दी को अपनी मातृभाषा लिखाया है। यह बात तो सही है पर क्या कोई और भारतीय भाषा हिन्दी के बराबर भी फटकती है ? बड़ी संख्या उनकी होगी जिन्होंने हिंदी को मातृभाषा नहीं लिखाया पर इसे समझते हैं। अंग्रेज़ी के कई पत्रकार अब बीच बीच में हिन्दी के शब्दों के प्रयोग करते हैं क्योंकि इसके बिना बात नहीं बनती। आंध्र प्रदेश के उपमुख्यमंत्री पवन कल्याण ने हिन्दी का पक्ष लिया है और कहा “हिन्दी राष्ट्रीय एकता की प्रतीक है”। मंत्री नारा लोकेश जो मुख्यमंत्री चन्द्र बाबू नायडू के पुत्र हैं, का पूछना है कि ‘हम हिन्दी क्यों न पढ़ें’? यह सब उस प्रदेश से है जिसकी अपनी तेलगू भाषा बहुत प्राचीन और उन्नत है पर रवैया सकारात्मक है इसलिए अनावश्यक विरोध नहीं कर रहे।

सबसे सकारात्मक रवैया केरल सरकार का है। प्राचीन भाषा मलयालम के प्रदेश में सरकार तैयारी कर रही है कि मलयालम और अंग्रेज़ी के साथ ही पहली से हिन्दी पढ़ाई जाए। यह कदम 45 लाख प्रवासियों के बच्चों की शिक्षा को ध्यान में रख कर उठाया जा रहा है जो बिहार, उत्तर प्रदेश,उड़ीसा या बंगाल जैसे प्रदेशों से आकर केरल में बसे हैं। यह सही शासन है जो सब की समस्या को समझता है और समाधान निकालने की कोशिश करता है।हैरानी नहीं कि केरल और आंध्र प्रदेश देश के सबसे प्रगतिशील प्रदेशों में से हैं। अफ़सोस है कि जो मुम्बई में हुआ वह बैंगलोर में भी दोहराया गया। जो कन्नड़ नहीं बोल सकते थे उन्हें शर्मिंदा करने की कोशिश की गई जबकि इस शहर की विशेषता ही बाहर से आकर बसे प्रोफेशनल हैं। वह ही इस अराजक शहर को अंतरराष्ट्रीय पहचान दे रहें हैं।

जहां देश को हिन्दी की ज़रूरत है वहाँ अंग्रेज़ी के बिना भी गुजारा नही। आज के ए आई के युग में तो हम बिल्कुल भी अंग्रेज़ी के बिना नहीं रह सकते। वह हायर एजुकेशन की भाषा है। अंग्रेज़ी में महारत हमारी सॉफ़्ट पॉवर बढ़ाती है। आईटी, मैडिकल, बिसनेस, इंजीनियरिंग में हमारे लोग यहाँ और विदेश में इतना अच्छा कर रहे हैं तो इसी महारत के कारण है। अमेरिका में मैडिकल और आईटी के क्षेत्रों में हमारे लोग छाए हुए हैं, जिससे डानल्ड ट्रम्प को तकलीफ़ हो रही है। हाल ही में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है कि “शीघ्र ही देश में अंग्रेज़ी बोलने वाले शर्म महसूस करेंगे”। मैं इनसे बिल्कुल सहमत नहीं हूँ क्योंकि यह नहीं होने वाला। उनके अपने मंत्रिमंडल के कई साथियों के बच्चे विदेश में पढ़तें है। कइयों के बच्चे वहाँ बस गए है। यह अंग्रेज़ी में महारत के बिना नहीं हो सकता था। जिनके बच्चे विदेश नहीं भी गए उन्हें भी अंग्रेज़ी मीडियम स्कूलों में पढ़ाया जा रहा है।

राम मनोहर लोहिया ने अंग्रेज़ी के खिलाफ अभियान चलाया था पर हम बहुत आगे आ गए हैं। राजनीतिक कारणों से हक़ीक़त से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए। अंग्रेज़ी आज देश में महत्वकांक्षा और आशा की भाषा बन चुकी है। वास्तव में सारे राजनीतिक वर्ग में अंग्रेज़ी को लेकर दोगलापन है। उपर से वह हिन्दी या प्रादेशिक भाषाओं की बात करेंगे और अंग्रेज़ी को भर्त्सना करेंगे पर अपने बच्चों को अंग्रेज़ी मीडियम स्कूलों में पढ़ाएँगे और आशा करेंगे  कि वह आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज में एडमिशन मिल जाए या अमेरिका की आईवी लीग यूनिवर्सिटीज़ में जगह मिल जाए। और अगर हो सके तो बच्चे पश्चिम के देशों में बस भी जाऐं। इन्हीं का अनुकरण कमजोर वर्ग भी करने की कोशिश करता है। जो भी कर सकता है वह अपने बच्चों को अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में भर्ती करवाता है। ढीली लटकी टाई में स्कूल जाते बच्चे हर शहर या गाँव में मिलेंगे। जिन्हें ‘कानवेंट’ स्कूल कहा जाता है वह भी जगह जगह उग रहें हैं क्योंकि माँ बाप समझतें हैं कि बच्चे अंग्रेज़ी सीख कर स्मार्ट बन जाऐंगे।

जो अंग्रेज़ी का विरोध करते हैं उन्हें खुद से पूछना चाहिए कि जिन्हें अच्छी नौकरी चाहिए उन्हें आज के भारत में अंग्रेज़ी की ज़रूरत क्यों है? मैडिकल जैसा व्यवसाय अंग्रेज़ी जाने बिना नहीं चल सकता।  मध्यप्रदेश में सरकार ने मैडिकल हिन्दी में पढ़ाने की कोशिश की थी। हिन्दी में किताबें छिपाई पर एक भी स्टूडेंट हिन्दी में पढ़ने को तैयार नहीं था। ठीक है रूस,चीन,जापान में अपनी भाषा में काम होता है पर चीन अपने विशेषज्ञ पश्चिमी देशों में भेजता है ताकि वह जानकारी हासिल कर सकें। ऐसा अंग्रेज़ी में दक्षता बिना नहीं हो सकता।

 लोगों का अपनी अपनी भाषा के साथ स्वभाविक लगाव है। हरेक प्रादेशिक भाषा का अपना समृद्ध साहित्य है, अपनी शैली है, बोलचाल है, यहाँ तक  कि अपनी अपनी गाली है! हिन्दी से किसी का टकराव नहीं है। अंग्रेज़ी हमारी भाषा नहीं है पर यह अंतराष्ट्रीय भाषा बन चुकी है। इसके बिना भी गुज़ारा नहीं। अमित शाह ने खुद बायोकैमिस्ट्री में बीएससी की थी। यह किस भाषा में की होगी? देश के लोग वर्तमान भाषाई स्थिति से समझौता कर चुकें हैं इससे छेड़खानी से किसी को कोई फ़ायदा नहीं होगा। जिस भाषा को देश के लोग चाहेंगे वह खुद उन्नति करेगी। देश के सामने और बहुत सी चुनौतियों है जिनसे जूझने की ज़रूरत है। भाषा तो वैसे भी जोड़ती है, तोड़ती नही। याद करिए वह पुराना मधुर गीत, मिले सुर मेरा तुम्हारा  जहां भिन्न भिन्न  आवाज़ों ने मिल कर राष्ट्रीय तराना बना दिया था। यह भारत है।

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About Chander Mohan 789 Articles
Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.