अपने देश वापिस जाओ, The Unwanted Indian Abroad

 यह एक ऐसी जघन्य घटना थी जिसने इंग्लैंड में रह रहे भारतीय समुदाय को झकझोर कर रख दिया। बर्मिंघम में ओल्डबरी में एक ब्रिटिश सिख महिला के साथ दो गोरों द्वारा बलात्कार किया गया, बेरहमी से मारपीट की गई और जातें जाते बलात्कारी यह संदेश दे गए कि ‘वह यहाँ की नही है’ और उसे अपने देश लौट जाना चाहिए। अर्थात् मामला केवल बलात्कार का ही नही था उस महिला को उसकी नस्ल के लिए टार्गेट किया गया, क्योंकि वह सिख है। महिला को निशाना बना कर उसके बाक़ी समुदाय को संदेश भेजा जा रहा है कि तुम यहाँ सुरक्षित नहीं हो। कुछ दिन पहले पास के एक शहर में दो बुजुर्ग सिख टैक्सी चालकों पर हमले हो चुकें है। ब्राडकास्टर नरेन्द्र कौर ने राजनेता और मीडिया को इस ज़हर फैलाने में संलिप्त बताते हुए कहा है कि, “आप रोज़ाना नस्लवाद के जानवर को खाना खिला कर जब ऐसा कुछ हो जाए तो सदमें का ढोंग नहीं कर सकते”।

चिन्ता की बात यह है कि ऐसी नस्ली घटनाओं के समाचार कई पश्चिमी देशों से आरहे है। हमारे लोगों को बताया जा रहा है कि उन्हें वहाँ पसंद नहीं किया जा रहा। जब से ‘गुड फ्रैंड’ डानल्ड ट्रम्प सत्तारूढ़ हुए हैं, भारतीयों के प्रति द्वेष उनकी सड़कों पर उतर आया है। हमारे धार्मिक स्थलों पर हमले बढ़ गए हैं। जिसे ‘हेट क्राइम’ अर्थात्  नफ़रत की अपराध, की घटनाएँ बराबर बढ़ रही है। उनका सोशल मीडिया यह कह कर हिंसा को उकसा रहा है कि यह विदेशी हमारी नौकरियाँ छीन रहें है। इन देशों की हालत क्या है यह गौर करने की बहुत ज़रूरत है,

अमेरिकाः अमेरिका में भारतीय समुदाय को अति सफल समझा जाता है। मैक्सिको के नागरिकों के बाद सबसे बड़ा अप्रवासी समुदाय भारतीय है। अमेरिका की जनसंख्या का 1-1.5% भारतीय समुदाय,आयकर में 5-6% का योगदान डालता है। प्रति परिवार भारतीयों की वार्षिक 126000-145000 डालर की आमदनी राष्ट्रीय आय से दो गुना है। बड़ी बड़ी कम्पनियों के सीईओ भारतीय मूल के हैं। अमेरिका में 9-10 % डाक्टर भारतीय मूल के हैं। ईर्ष्या बढ़ रही है। ट्रम्प  ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के नारे को लेकर चल रहें हैं। वहाँ नस्ली घटनाओं के समाचार लगातार मिल रहें हैं। एक प्रकार से हमें बताया जा रहा हैं कि हमारी वहाँ ज़रूरत नहीं है चाहे यह आभास भी है कि भारतीयों के बिना गुज़ारा नहीं।

 कनाडा: टोरोंटो में अप्रवासियों के खिलाफ प्रदर्शन हो चुका है। वहाँ ‘कैनेडा फ़र्स्ट’ रैली निकल चुकी है। कैनेडा फ़र्स्ट रैली के आयोजकों का कहना है कि लाखों लोग विदेशों से आ रहें है जिससे उनके संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है। जब ट्रूडो प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने दरवाज़े खोल दिए थे। कथित खालिस्तानियो को उत्पात मचाने का मौक़ा दे दिया था। इससे हिंसा भी बढ़ी थी। स्थानीय नागरिक अप्रवासियों के प्रवेश पर रोक लगाना चाहतें हैं। शिकायत है कि अप्रवासियों के कारण उनके लिए नौकरियों से लेकर आवास कम पड़ रहें हैं। हमारे बहुत नौजवान क़ानून का पालन नहीं करते। गैंगस्टर भी पैदा हो गए हैं।

आस्ट्रेलिया: पहली बार आस्ट्रेलिया के बड़े शहरों में आव्रजन के खिलाफ रैलियाँ निकाली गईं। सिडनी, मेलबर्न आदि शहरों में हज़ारों लोग इसमें शामिल हुए। रैलियों के लिए निकाले गए विज्ञापनों में भारतीय मूल के लोगों को विशेष तौर पर टार्गेट किया गाया। भारतीयों की वहाँ आबादी 3.1% है पर यह भी बर्दाश्त नहीं हो रही। बड़ी संख्या में विद्यार्थी भी हैं जिनके बल पर उनके कालेज और विश्वविद्यालय चल रहें हैं। आस्ट्रेलिया की सरकार ने इन रैलियों की निंदा की है और कहा है कि यह लोग नव-नाजियों से जुड़ें हैं। पर हक़ीक़त है कि लोग अप्रवासियों को पसंद नहीं करते। जैसे एक आदमी ने कहा है कि “इतने लोग अंदर आगए हैं कि हमारे लोगों को घर नहीं मिलते, अस्पतालों में जगह नहीं है और सड़कें कम पड़ रही है”।

इंग्लैंड: 13 सितंबर को लंडन में आधुनिक काल की बड़ी रैलियों में से एक देखी गई जब दस से पन्द्रह लाख लोगों ने केन्द्रीय लंडन में ‘युनाइट द किंगडम’ नाम से अप्रवासी विरोधी रैली निकाली। इंग्लैंड के हिसाब से यह बहुत बड़ी रैली थी और लंडन पुलिस भी इसकी विशालता देख कर दंग रह गई। इनके नेता टॉमी रोबिनसन, जो जेल काट चुका है,के अनुसार “यह देश में सांस्कृतिक क्रान्ति की शुरूआत है”। इंग्लैंड में नस्ली भावना सदा से है पर यह पहली बार है कि उसका सार्वजनिक प्रदर्शन किया जा रहा है। उनकी शिकायत है कि अप्रवासियों के कारण उनके घरों, नौकरियों और सेवाओं पर दबाव पड़ रहा है। नारा था ‘हम अपना देश वापिस चाहतें हैं’।

आयरलैंड: नस्लवाद इतना फैल चुका है कि आयरलैंड जैसे देश में जहां पहले ऐसी घटनाओं के बारे सुना भी नहीं जाता था, भारतीयों पर हमले हो रहें हैं। डबलिन में एक सिख ड्राइवर की पिटाई वाला विडियो बना कर सोशल मीडिया पर डाला गया कि, ‘अपने देश वापिस जाओ’। वहाँ छह साल की लड़की को 8-14 वर्ष के लड़कों ने पीट डाला। उनका भी संदेश था कि ‘वापिस अपने देश इंडिया जाओ’। ऐसी घटनाएँ इतनी बढ़ गईं है कि हमारे दूतावास को एडवाइज़री जारी करनी पड़ी कि बाहर जाते समय सावधानी बरतें। सोशल मीडिया में प्रवासी विरोधी प्रचार बहुत चल रहा है।

 पश्चिमी देशों में अप्रवासी विरोधी भावना जो दबी हुई थी वह ट्रम्प के आने के बाद बेलगाम हो रही है। उनका राष्ट्रवाद अब ‘दूसरे’ के प्रति नफ़रत पर आधारित है। बड़ा कारण पुरातन समय से चली आ रही ईर्ष्या की भावना है। हमारी सफलता के कारण हम से नफ़रत हो रही है। ‘रा’ के पूर्व प्रमुख विक्रम सूद के अनुसार वहाँ, “नफ़रत और डर है कि एक दिन यह इंडियनज़ उनसे आगे निकल जाएँगे। इसलिए ज़रूरी है कि इन्हें सांस्कृतिक और नस्ली तौर पर दबाया जाए”। आख़िर हमारे लोग बुद्धिमान है, मेहनती है, अंग्रेज़ी जानते है, प्रशिक्षित है। मौक़ा मिलने पर वह किसी का भी मुक़ाबला कर सकतें हैं। इसीलिए दूसरे अप्रवासी समुदायों से अधिक हमें नापसंद किया जा रहा है क्योंकि हमसे अधिक ख़तरा महसूस किया जा रहा है। हमारे अपने देश में अभी मौक़ों की कमी है इसलिए लोग बाहर भाग रहे है। अब यह दरवाज़ा कानूनी तौर पर या ग़ैर कानूनी तौर पर शारीरिक हिंसा के द्वारा बंद करने की कोशिश हो रही हैं।

हमारे बारे अभी तक वही पुरानी साम्राज्यवादी सोच थी कि यह रूढ़िवादी, पिछड़ा, सँपेरों और हाथियों का देश है। हमें कभी गोरों के बराबर नहीं समझा गया। आख़िर चर्चिल ने हमारी आज़ादी के समय कहा था कि यह ‘तिनकों से बने लोग है। कुछ ही वर्षों में इनका नामोनिशान मिट जाएगा’। आज यही देश सबसे तेज गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्था है और चर्चिल के देश को पीछे छोड़ आया है। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बड़े व्यापारिक प्रतिनिधिमंडल के साथ भारत का दौरा कर हटें हैं। उन्हें हमारा निवेश चाहिए ताकि वहाँ नौकरियाँ बढ़ सकें। विज्ञान में, टैंक में, अंतरिक्ष साँइस में, मैडिसिन में, यहाँ तक कि वहाँ की राजनीति में हमारे लोग बढ़ रहें है। ऋषि सुनक इंग्लैंड के प्रधानमंत्री रह चुकें हैं। कमला हैरिस माने व माने, पर हैं तो वह भी भारतीय मूल की। आयरलैंड के पूर्व प्रधानमंत्री लियो वाडकर का परिवार गोवा से है। काश पटेल अमेरिका मे एफबीआई के प्रमुख है। अमेरिका की सिलिकन वैली हमारे लोगों ने बसाई है। अमेरिका की कस्टमर सर्विस की 70% कॉल भारत भेजी जाती हैं। पर भारतीयों के बढ़ते कदमों को पसंद नहीं किया जा रहा। आख़िर हम गोरों की श्रेणी में तो आते नहीं पर उनसे अधिक सफल हैं। न ही हम पिछड़े अश्वेत हैं जिनको नज़रंदाज़ किया जा सकता है।

 हमारा धर्म और खान पीन उन्हें समझ नहीं आता। हमारी संस्कृति को वह पसंद नहीं करते। उनके लिए यह मानना मुश्किल है कि जिन मूर्ति पूजको का वह मज़ाक़ उड़ाते थे वह उनसे अधिक समझदार और प्रतिभाशाली हो सकतें हैं। सॉन फ़्रैंसिस्को में रहने वाली लेखिका सावित्री मुमुक्षु ने लिखा है, “शताब्दियों से उन्होंने जो साम्राज्यवादी फँतासी पाल रखी थी, को टेक्नोलॉजी, बिसनेस और वैश्विक प्रभाव में नेतृत्व कर हिन्दुओं ने मिटा दिया है”। इस कथन में कुछ अतिशयोक्ति हो सकती है पर यह हक़ीक़त है कि दुनिया हमारे उत्थान को देख  रही है, कुछ दिलचसपी से, कुछ हैरानी से तो कुछ पूर्ण नफ़रत से।

पश्चिम के देशों में जो अप्रिय स्थिति बन रही है उसका सामना करने के लिए हमें तैयार रहना होगा। हमारे विदेश विभाग को सक्रियता से अपने लोगों की सहायता के लिए आगे आना चाहिए। इस समय यह सक्रियता केवल बयान दागने तक सीमित लगती है। अमेरिका में जो हालत बन रहे है उसके बारे वहाँ रह रहे भारतीय समुदाय की खामोशी भी चुभ रही है। जो मोदी-ट्रम्प की कथित दोस्ती के क़सीदे पढ़ते थे और जिन्हें मोदी ने ‘राष्ट्र दूत’ कहा था, अचानक ख़ामोश पड़ गए हैं। जो प्रभावशाली जगह पर भी हैं, चाहे सरकार में हों या संसद में हो या टॉप कम्पनियों में हो, उनकी आवाज़ नहीं निकल रही। हम चाहतें हैं कि वह अच्छा जीवन व्यतीत करें पर वह ज़्यादती के खिलाफ आवाज़ तो उठा सकतें हैं। पूर्व राजदूत नवतेज सरना ने लिखा है, “जब भी वहाँ कोई भारतीय नाम उभरता है तो हमें उछलना नहीं चाहिए। उनके लिए हवन करने की कोई ज़रूरत वहाँ। न ही अपने गाँवों में इनके अंकल या ऑट ढूँढने की ज़रूरत है। आख़िर में इन बातों का कोई फ़ायदा नहीं”। न ही इनकी ‘फ्रेंडशिप’ के कोई मायने है।यह सबक़ हमें ज़बरदस्ती सिखाया जा रहा है।   

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.