रेवड़ी की बरसात से कहीं छत न फट जाए, It’s Raining Freebies in Bihar

छह नवम्बर से शुरू होने वाले बिहार चुनाव के बारे पूर्व राजनयिक और पूर्व सांसद पवन वर्मा ने लिखा है, “ बिहार का ख़ज़ाना ख़ाली है,लेकिन रेवड़ियाँ और जुमले बरस रहें हैं”। उनकी बात सही है। बिहार देश का लम्बे समय से सबसे पिछड़ा प्रांत है। कोई आशा भी नज़र नहीं आती पर दोनों एनडीए और विपक्षी महागठबंघन धड़ाधड़ मुफ़्त देने के वादे कर रहे हैं। जिन्हें अंग्रेज़ी का मीडिया फ्रीबीज़ कहता है और प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार मज़ाक़ में रेवड़ियाँ कहा था, की ऐसी बरसात हो रही है कि आशंका है कि बिहार की आर्थिक छत ही कहीं फट न जाए! पटना से अर्थशास्त्री सूर्य भूषण बतातें हैं कि जो रेवड़ियाँ घोषित की गईं हैं वह लागू नहीं की जा सकती क्योंकि पहले ही प्रदेश के बजट का 40% वेतन,पैंशन और इससे जुड़े ख़र्चों में जा रहा है। अफ़सोस है कि प्रधानमंत्री जो इस फ़िज़ूलख़र्ची के विरूद्ध थे भी आख़िर में राजनीतिक कारणों से झुक गए और उनका गठबंधन मज़े से घोषणाएँ कर रहा है।

कल्याणकारी योजनाओं और रेवड़ियों में अंतर है। अगर आप मुफ़्त शिक्षा या ग़रीबों को मुफ़्त मैडिकल सहायता देते हो तो इसे कल्याणकारी कहा जाएगा, जैसे अधिकतर प्रदेशों में हो रहा  है पर अगर नक़द पैसे बाँटने लगोगे या महिलाओं के खाते में पैसे डालने लगोगे तो इसे रेवड़ी या चुनावी घूस ही कहा जाएगा। पिछले साल महाराष्ट्र के चुनाव से पहले ‘लाडकी बहन योजना’ के नीचे महिलाओं को 1500 रूपए मासिक दिए गए जिसका एनडीए को चुनाव में बहुत फ़ायदा हुआ पर अब महाराष्ट्र की सरकार कह रही है कि ख़ज़ाना ख़ाली है क्योंकि सालाना 23300 करोड़ रूपए खर्च हो रहे हैं।पंजाब ने किसानों को मुफ़्त बिजली देकर अपना घाटा बढ़ाया है। वर्तमान सरकार ने तो शहरों में बिजली बहुत सस्ती कर दी है या मुफ़्त दी जा रही है। कर्नाटक की सरकार भी कह चुकी है कि विकास के लिए पैसे नहीं है जो उनकी राजधानी और देश की आईटी कैपिटल बैंगलुरु की जर्जर हालत से पता चलता है। पिछले साल दिसंबर में सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया था, “हम कब तक फ्रीबीज़ देते रहेंगे? हम नौकरियाँ तैयार करने और क्षमता निर्माण की तरफ़ ध्यान क्यों नहीं देते?” इसका जवाब यही है कि नेता लोग पैसे बाँटना आसान समझतें है, मूलभूत समस्याओं का इलाज करने के लिए मेहनत चाहिए। बड़ी अदालत का बड़ा सवाल था कि क्या हम परजीवी और मुफ़्तख़ोर तो पैदा नहीं कर रहे?

कितनी अफ़सोस की बात है कि जातिगत राजनीति और ख़राब नेतृत्व ने उस प्रदेश को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया जहां कभी विख्यात नालंदा विश्वविद्यालय हुआ करता था। बिहार में लगभग 30 साल लालू प्रसाद यादव के परिवार या नीतीश कुमार का शासन रहा है। 1990 में लालू पहली बार मुख्यमंत्री बने। नारा समाजिक कल्याण का था। अगले 15 वर्ष लालू प्रसाद यादव या उनकी पत्नि राबड़ी देवी का शासन रहा और बिहार के पतन का सिलसिला शुरू हो गया। 1990-91 में बिहार की प्रति व्यक्ति आय जो राष्ट्रीय आय का 42.2% थी गिर कर 1998-99 में 27.2% रह गई। अगर उनके विरोधी लालू शासन को ‘जंगल राज’ कहतें है तो ग़लत नहीं है। फिर नीतीश कुमार ने लालू और राबड़ी की जगह ली। प्रदेश ने कुछ प्रगति करना शुरू किया। 27.2% से उठ कर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय 2019-20 में राष्ट्रीय औसत का 35.6% पहुँच गई। पर तब तक नीतीश कुमार जिन्हें कभी ‘सुशासन बाबू’ कहा जाता था पलटू बाबू बन चुके थे। उनकी ख़राब सेहत ने भी असर दिखाना शुरू कर दिया था। 2023-24 में फिर गिरावट आई और यह आँकड़ा गिर कर 31.9% तक पहुँच गया।

प्रदेश का दुर्भाग्य  है कि जिनकी नालायकी या ग़लत नीतियों के कारण बिहार की यह दुर्दशा हुई है, लालू परिवार और नीतीश कुमार, फिर चुनाव में है और सम्भावना है कि इनमें से एक चुनाव जीत जाएगा। गंगा और कोसी में बहुत पानी बह चुका है पर बिहार में दूर दूर तक कोई आशा नज़र नहीं आती। प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी भी है जिससे युवा आकर्षित हो रहें हैं। नई सोच भी है। पर वह खुद चुनाव नहीं लड़ रहे जिससे उनके बारे अनिश्चितता पैदा हो गई है। कई लोग उनकी तुलना अरविंद केजरीवाल से करतें हैं। प्रशांत किशोर सोशल मीडिया की पैदायश है जबकि केजरीवाल व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन से निकले थे पर अब उसका हिस्सा बन चुकें हैं। मुझे बिहार से जालंधर में रह रहे एक व्यक्ति ने बताया कि प्रशांत किशोर की लोकप्रियता बढ़ रही है पर घबराहट है कि कहीं वह भी केजरीवाल न बन जाए!

भारत की अर्थव्यवस्था में बिहार का योगदान 3.2%  है जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार बिहार की जनसंख्या राष्ट्रीय का 8.60% थी जो 2025 में बढ़ कर 9.24% होने की सम्भावना है। सालाना राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति आय 2.35 लाख रूपए है पर बिहार की सालाना प्रति व्यक्ति आय 66828 रूपए हैं। कई ज़िले इतने पिछड़े है कि वहाँ औसत आय प्रदेश की आय से बहुत कम है। प्रदेश के 15% लोगों ने ही दसवीं पास की है और केवल 6% ही स्नातक है। एक तिहाई गाँवों में स्कूल नहीं है। जहां है वहाँ भी उनकी हालत ख़स्ता है। नीति आयोग के अनुसार विकास के मामले में बिहार का राज्यों में 28वां स्थान है। बिहारी प्रवासी शिकायत करतें हैं कि वहाँ काम नही है। इसका ठोस इलाज नहीं ढूँढा गया।  

बिहार के पिछड़ेपन का बड़ा कारण है कि वह जाति राजनीति की दलदल में फँसा हुआ है। जो उर्जा विकास पर लगनी चाहिए वह जाति की गिनती पर लगती है। फार्रवर्ड, बैकवर्ड,दलित,महा दलित। और भी बहुत सी जाति हैं। अफ़सोस है कि लोग भी जाति को देख कर वोट देतें है जबकि साफ़ है कि जाति पर आधारित राजनीति ने प्रदेश को पिछड़ा रखा है। बिहार के नेता जाति जनगणना को लेकर बहुत उत्साहित हैं पर उस जनगणना से भी फ़र्क़ क्या पड़ेगा? क्या ट्रेनें भर भर कर बिहारी दूसरे प्रदेशों में नौकरी के लिए भटकने बंद हो जाऐंगे? बिहार की हालत के बारे अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड के प्रोफ़ेसर एम आर शरन लिखतें हैं, “नीति निर्धारण में कमजोरी के कारण प्रदेश कष्ट झेल रहा है। हैल्थ तथा शिक्षा में निरंतर निवेश का अभाव, सत्ता का अधूरा हस्तांतरण, और व्यवस्थित सोच जो समाज को आर्थिक विकास की तरफ़ ले जाती हैं की कमी है”।  

शिक्षा की हालत बुरी है जो बार बार होते पेपर लीक से पता चलता है। बहुत बड़ी युवा जनसंख्या है पर  टॉप विद्यार्थी प्रदेश से बाहर चले जाते है। चाहे दिल्ली के विश्वविद्यालय हों या कोटा के कोचिंग कारख़ाने वह बिहारी छात्रों से भरे रहते है। दिलचस्प है कि सिविल सर्विस में सबसे ज़्यादा बिहार के लोग हैं पर दुर्भाग्य है कि अपने प्रदेश में मौक़ा नहीं मिलता। अब भी जो वादे किए जा रहें हैं उनमें पैसों और काल्पनिक नौकरियों की वर्षा हो रही है पर कोई भी पार्टी मूलभूत कमज़ोरियों को हटाने का वादा नहीं कर रही। यह वह प्रदेश है जहां पिछले कुछ महीनों में 12 पुल या तो गिर गए या बरसात में बह गए। ऐसा किसी और प्रदेश के बारे नहीं सुना।

मुख्यमंत्री महिला रोज़गार योजना के अंतर्गत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहाँ 75 लाख महिलाओं को 10000 रुपए देते हुए 7500 करोड़ रूपए ट्रांसफ़र कर दिए है।  कहा जा रहा है कि इससे वह अपना बिसनेस शुरू करेंगी। 25 लाख और महिलाओं को साथ जोड़ा जाएगा। और भी बहुत वादे किए गए है। यह भी उल्लेखनीय है कि बाढ़ पीड़ित पंजाब जहां लाखों प्रभावित हुए हैं को केवल 1600 करोड़ रूपए और हिमाचल जहां बरसात ने तबाही मचा दी को केवल 1500 करोड़ रूपए केन्द्र की तरफ़ से देने की घोषणा की गई और यह पैसा भी अभी तक नहीं पहुँचा जबकि बिहार की महिलाओं के खाते में एकदम पैसा पहुँच चुका है। बिहार में एंटी इंकमबैंसी का मुक़ाबला फ्रीबीज़ बाँटने से किया जा रहा है। एनडीए के लिए बिहार जीतना बहुत ज़रूरी है क्योंकि अगले साल बंगाल, केरल, असम, तमिलनाडु और पुडुचेरी के चुनाव है। राजद का महागठबंधन भी पीछे नहीं है। मुख्यमंत्री फ़ेस तेजस्वी यादव ने कहा है कि जीतने पर वह हर परिवार के लिए एक सरकारी नौकरी सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाएँगे। यह प्रशासनिक और आर्थिक लापरवाही और ग़ैर ज़िम्मेवारी की हद होगी। अर्थशास्त्री बताते हैं कि इसके लिए90000  करोड़ रूपए सालाना अतिरिक्त  चाहिए। इतनी नौकरियाँ हैं कहाँ? इतना पैसा कहाँ है?और फिर तो विकास नाम की चीज बिल्कुल ग़ायब हो जाएगी।

बिहार का उत्थान देश की प्रगति के लिए लाज़मी हैं। योगी आदित्य नाथ बहुत हद तक उत्तर प्रदेश को बदलने में सफल रहें हैं पर बिहार उदासीनता के भँवर में फँसा हुआ है। शायद नेताओं ने सोच लिया है कि सुधार नहीं हो सकता इसलिए प्रशांत किशोर के सिवाय शिक्षा या हैल्थ की कोई बात नहीं करता। राहुल गांधी ‘वोट चोरी’ का ढँढोरा पीटते रहें हैं तो अमित शाह ने वहाँ जा कर घुसपैठियों का मुद्दा उठा लिया। बिहार की असली समस्याओं के प्रति बेरुख़ी और बेपरवाही दिखाई जा रही है। इस वक़्त तो दोनों तरफ़ से वादों की बौछार लगी है जो प्रदेश की अर्थव्यवस्था को ले बैठेंगी। शकील बदायूनी का शे’र याद आता है,

               मुझे छोड़ दो मेरे हाल पर, तिरा क्या भरोसा है चारागार

               यह तेरी नवाजिश-ए- मुख़्तसर मेरा दर्द और बढ़ा न दे

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.