
निर्भया के क़ातिल बलात्कारियों को सात वर्ष के बाद आख़िर फाँसी पर चढ़ा दिया गया। हमारे समाजिक इतिहास का बहुत घिनौना अध्याय बंद हुआ। जिस मज़बूती से उसका परिवार विशेष तौर पर उसकी माता आशा रानी ने इस मामले का पीछा किया है वह क़ाबिले तारीफ़ है। अगर वह इतनी मज़बूती न दिखाते तो मामला अभी भी अदालतों में लटकता पड़ा होता। एक बार तो कई महीने कोई जज नहीं था जबकि यह हाई प्रोफ़ाइल मामला है। मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे ने सही कहा है कि मृत्यु दंड के मामलों के ख़िलाफ़ अपील की सीमा होनी चाहिए और यह लड़ाई अंतहीन नहीं हो सकती। उनकी बात सही है पर यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि देश में बलात्कार के बढ़ते मामलों का एक कारण यह भी है कि न्यायपालिका वह स्फूर्ति नहीं दिखा रही जो उसे दिखानी चाहिए।इसे क़ानूनी तौर पर बदलने की ज़रूरत है।
कुछ लोग अपराधियों के वकीलों की आलोचना कर रहे है कि उन्होंने मामला क़ानूनी दाव पेच में उलझाए रखा। मैं इस शिकायत से सहमत नहीं हूँ। एक वक़ील का धर्म है कि वह अपने मुवक्किल का बचाव करे चाहे वह कोई भी हो। अंग्रेज़ों के समय भी इजाज़त थी। पर यह अलग बात है। इस सारे प्रकरण और बाद में अपराधियों को मिली फाँसी ने यह बहस जीवित कर दी है कि क्या मौत की सज़ा ज़रूरी है? और क्या फाँसी से और बलात्कार रूक जाएँगे ?
जो फाँसी दिए जाने का विरोध कर रहे है उनका कहना है कि राज्य अगर ज़िन्दगी दे नहीं सकता तो उसे ज़िन्दगी छीनने का अधिकार भी नहीं होना चाहिए। मौत की सज़ा अपरिवर्तनीय है और अगर बाद में कोई अपराधी बेक़सूर निकला तो जो हो चुका उसे बदला नहीं जा सकता। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश कुरियन जोसफ़ का मानना है कि “अगर मैं आपकी जान लेता हूँ तो इसका मतलब नहीं कि आप मेरी जान ले सकते हो। यह न्याय नहीं। इंतक़ाम और दंड दो अलग बातों है न्याय का यह मतलब नही कि जान के लिए जान ली जाए।“ पाकिस्तान की पत्रकार सुलेमा जहांगीर ने भी लिखा है कि “अपराधी की बर्बरता का जवाब राज्य की बर्बरता से नहीं दिया जाना चाहिए”। कुछ लोग महात्मा गांधी के इस कथन को भी याद करते है कि अगर आँख के बदले आँख ली गई तो सब अंधे हो जाएँगे। वरिष्ठ वक़ील इंदिरा जयसिंह ने लिखा है “अपराधियों की मौत से उनका मृत शिकार वापिस नहीं आजाएगा”। उनका यह भी कहना था कि बदला सार्वजनिक नीति का हिस्सा नहीं होना चाहिए। इंदिरा जयसिंह जिनके इस सुझाव पर कि निर्भया के अपराधियों को माफ़ कर देना चाहिए पर निर्भया की माता बहुत नाराज़ हो गई थी, का यह भी कहना है कि निर्भया की याद चार क्षत विक्षत शवों से सम्मानित नहीं हो सकती। उसकी याद को सम्मानित करने के लिए हमें इस लैंगिक हिंसा की जड़ो तक जाना चाहिए।
फाँसी की सज़ा के ख़िलाफ़ दूसरा तर्क यह दिया जा रहा है कि इस से अपराध नहीं रूकेंगे। जस्टिस कुरियन ने भी कहा है कि इस फाँसी के बाद जघन्य अपराध नहीं रूकेंगे। उनका यह भी मानना है कि इस से निर्भया के माँ बाप को इंसाफ़ नहीं मिलेगा। मधुमिता पाण्डे जिन्होंने तिहार जेल में 142 बलात्कारियों की इंटरव्यू की थी ने लिखा है “इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि मौत की सज़ा से रेप रूकेंगे”। उनका मानना है कि रेप रोकने के लिए हमारे समाज में पुरुष तथा महिला के बीच जो असंतुलित रिश्ता है उसे सही करने की ज़रूरत है। “हमारे समाज में पुरूषों को जो विशेषाधिकार प्राप्त है वह समस्या की जड़ है”। उनकी रिसर्च से यह पता चलता है कि अधिकतर अपराधियों का मानना है कि उन्होंने ऐसा कुछ ग़लत नहीं किया जिसके लिए वह माफ़ी माँगे। इंदिरा जयसिंह का भी कहना है कि पुरूष प्रधान समाज बलात्कार की संस्कृति के लिए परिस्थिति पैदा करता है।
उपर तीन तर्क दिए गए है,एक, राज्य को किसी की जान लेने का अधिकार नही होना चाहिए। दो, फाँसी या मौत की सज़ा से बलात्कार रूकेंगे नही। तीन, बलात्कार की जड़ हमारे समाज की विषैली मर्दानगी है।
जहाँ राज्य द्वारा जान लेने की बात है ऐसा केवल भारत में ही नही बल्कि अमेरिका समेत दुनिया के 58 देशों में हो रहा है।हज़ारों सालों से यह सज़ा दुनिया में मौजूद है। हमारे देश में अब यह सज़ा बिलकुल आख़िर में और केवल ‘विरले से विरले’ मामले में दी जाती है। निर्भया का मामला भी विरले से विरला था। अपराधियों को सात साल अपना पक्ष रखने के लिए दिए गए और फाँसी तब लगाई गई जब सब क़ानूनी विकल्प ख़त्म हो गए थे। मेरा विचार बिलकुल स्पष्ट है। निर्भया के साथ बर्बर व्यवहार किया गया। उसने कोई अपराध नही किया था कि उसके साथ ऐसा व्यवहार किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस अपराध को ‘पैशाची’ कहा था। फिर ऐसा करने वाले जानवरों को खुला कैसे छोड़ दिया जा सकता है? मुख्य न्यायाधीश का भी कहना है कि सज़ा अपराध के अनुपात से होनी चाहिए। तो क्या कोई कह सकता है कि यहाँ सज़ा अपराध से अधिक दी गई है? किसी भी सभ्य समाज में ऐसा अमानुषिक व्यवहार स्वीकार नही किया जा सकता। यह फाँसी की सज़ा अपराध का स्वाभाविक निष्कर्ष है।चिंता यह भी है कि जो नाबालिग़ बच गया है वह आगे चल कर क्या बनेगा?
यह भी कहा जा रहा है कि मौत की सज़ा से अपराध ख़त्म नही होगे। यह बात तो सही है पर फिर तो किसी को किसी भी अपराध की सज़ा नही मिलनी चाहिए। हमारे यहाँ तो हर अपराध की सज़ा है पर अपराध तो फिर भी मौजूद है। अगर क़ानून का डर नही होगा तो समाज में बिलकुल अराजकता फैल जाएगी। इसलिए चाहे निर्भया के अपराधियों को मौत की सज़ा से बलात्कार नही रूकेंगे पर कल्पना कीजिए कि अगर वह फाँसी से बच जाते तो क्या होता? तब तो बलात्कार की बाढ़ आ जाती और आपराधिक मानसिकता वाले समझ बैठते कि आख़िर में तो फाँसी से बच ही जाएँगे। जब तक समाज में ऐसे भेड़िए मौजूद है तब तक मौत की सज़ा का प्रावधान रहना चाहिए। पर यह भी सही है कि हमारे समाज में जो विकृतियाँ पैदा होती रहती है उन्हें रोकने कि बहुत ज़रूरत है। शुरू घर से होना चाहिए जहाँ माँ बाप की ज़िम्मेवारी है कि बेटे को समझाए और उसे सम्भाले। जो लड़के बेलगाम होते है उनके पीछे बिगड़ी या कमज़ोर पारिवारिक स्थिति है। जब तक यह सही नही होती समाज में बदलाव की आशा नही की जा सकती। बढ़ती पोरन साईट, सिनेमा तथा दूसरे चैनल पर बढ़ती अश्लीलता और नग्नता के कारण भी महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ रहा है। विशेष तौर पर अपरिपक्व दिमाग़ बहक जाते है और महिला को ‘चीज’ समझ बैठते है। कई बार तो बलात्कारी परिवार में ही होता है और बच्चे शिकायत भी नही कर सकते। हमारे समाज की चूलें हिल चुकी है जिस की क़ीमत निर्भया जैसे चुका रहे है।
जो इन चार पापियों को फाँसी दिए जाने पर आपत्ति कर कर रहे है उनसे मेरा कहना है कि आप ख़ुद को निर्भया के माँ बाप की जगह डालो और फिर फ़ैसला करो। उसकी माँ तो कह रही है कि सात साल के बात बेटी की आत्मा को शान्ति मिली है। जस्टिस कुरियन का ज़रूर कहना है कि वह नही समझते कि इन चार अपराधियों को फाँसी देने से निर्भया के माँ बाप को इंसाफ़ मिलेगा पर माननीय, क्या यह बेहतर नही होगा कि यह फ़ैसला हम निर्भया के माँ बाप पर छोड़ दे कि उन्हें इन्साफ़ मिला है या नही ?
इंसाफ़ या इंतक़ाम ( Justice or Revenge?),