अमेरिका की सरदारी पर सवालिया निशान (America Loses its Dominance)

अमेरिका के टैक्सास प्रांत के लै. गवर्नर डैन पैट्रिक ने एक इंटरव्यू में कहा है कि ग्रैंड पेरंटस अर्थात दादा-दादी, नाना-नानी को ‘अमेरिका की अर्थ व्यवस्था तथा युवा पीढ़ी के लिए मरने को तैयार रहना चाहिए’। अमेरिकी अरबपति टॉम गोलिसानो का भी कहना है कि ‘अर्थ व्यवस्था को बंद रखना कुछ लोगों को खोने से बदतर होगा’।यह दिलचस्प है कि डैन पैट्रिक जो ख़ुद छ: बच्चों के ग्रैंडफादर है अपनी क़ुरबानी की बात नही करते पर अमेरिका में ऐसी असंवेदनशील और निष्ठुर आवाज़ें सुनाई दे रही हैं कि देश की अर्थ व्यवस्था को चलते रखने के लिए अगर कमज़ोर,वंचित या बुज़ुर्ग का बलिदान देना पड़े तो ऐसा होने देना चाहिए। राष्ट्रपति डॉनलड ट्रंप का भी सारा ध्यान अर्थ व्यवस्था पर है जानें बचाने पर नही है। स्पेन से समाचार है कि कई नर्सिंग होम में लावारिस छोड़े गए या मृत बुज़ुर्ग पाए गए हैं। अमेरिका के अख़बार वॉल स्ट्रीट जर्नल की छिछोरी टिप्पणी है कि ‘कोई समाज आर्थिक सेहत की क़ीमत पर सार्वजनिक सेहत पर केंद्रित नही रह सकती’। इसकी तुलना भारत से करें जहाँ प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों को जो सात बातें बताईं उनमें पहली थी कि बुज़ुर्गों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। धन्यवाद मोदीजी, लेकिन लॉकडाउन समाप्त होने के बाद भी हमारी पीढ़ी से ज़रूर कहिए कि अभी कुछ दिन और घर से बाहर न निकलें।

भारत अमेरिका से कहीं पिछड़ा देश है लेकिन हमारा समाज और नेतृत्व वह संवेदनशीलता दिखा रहें हैं जो दुनिया के सबसे ताकतवार देश में ग़ायब है। हमने ज़िन्दगियां बचाई हैं। अमेरिका में मरने वालों की संख्या आधा लाख से उपर हो गई है और लगभग दस लाख संक्रमित है। पौने तीन करोड़ नौकरियाँ ख़त्म हो चुकी हैं और लोग बेरोज़गार भत्ता तथा मुफ़्त भोजन पाने के लिए लाइनों में लग रहे है। वह देश इस बीमारी से निबटने तथा अपने लोगों को बचाने में बेबस नज़र आ रहा है। पाँव रेत के बने पाए गए है। बुनियाद कमज़ोर निकली। आधुनिक समय का यह पहला महासंकट है जहाँ अमेरिका दुनिया का नेतृत्व नही कर रहाक्योंकि जो अपना घर नही सम्भाल पा रहा उसकी सरदारी पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। दूसरे विश्व युद्ध के समय जो देश एक घंटे में एक विमान और एक दिन में एक जंगी जहाज़ बनाता था, वह अपने लोगों के लिए पर्याप्त दवा,मास्क, वैंटीलेटर,दस्ताने,पीपीइ उपलब्ध नही करवा सका। ज़रूरी दवाईयॉ भारत समेत दूसरे देशों से मँगवाई जा रही है और उनकी पहुँच ट्रंप प्रशासन की बड़ी सफलता बताई जा रहीहै। आम लोगों के लिए अस्पताल और स्वास्थ्य सेवाएँ उस घोर पूँजीवादी व्यवस्था की प्राथमिकता में नही है। करोड़ों नागरिक है वहॉ जिन्होंने बीमा नही करवाया इसलिए उन्हें मैडिकल सहायता नही मिलेगी। वह अब लावारिस है पर उनमें वायरस फैलाने की क्षमता तो है।

न्यूयार्क में 17000 लोग इस बीमारी से मारे गए हैं जबकि यह दुनिया का सबसे शानदार शहर है। सबसे अधिक प्रभावित वह क्षेत्र है जहाँ कम आमदनी वाले अश्वेत या साउथ अमेरिका से आए प्रवासी रहतें हैं जो वैध या अवैध ढंग से वहॉ रह रहें हैं। अधिकतर दिहाड़ीदार हैं। एक स्वयं सेवी संस्था के अनुसार 1998 के बाद न्यूयार्क में 18 अस्पताल बंद हो चुकें है जिनमे दो तिहाई उस क्षेत्र में है जहाँ कम आमदनी वाले लोग रहते हैं। अमेरिका शुद्ध पूँजीवादी देश है जिसका सिद्धांत ‘तंदरुसत जीवित रहे’ है।  जो कमज़ोर है, जो पिछड़ा है या जो ग़रीब है उसे अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है। पत्रकार पैटरीशिया कोहन लिखती हैं, “करोना की बीमारी ने दिखा दिया कि कितने अमेरिकी हाशिए पर रह रहें हैं। उनकी आमदनी घटती रही जबकि कारपोरेट का मुनाफ़ा प्रवाह के साथ बढ़ता गया…उस अर्थव्यवस्था में जो कभी अपनी रिकार्ड तोड़ सफलता के लिए जानी जाती थी, ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरतें, भोजन, आवास, स्वास्थ्य सेवा, सब अचानक खतरे में हैं”। इंग्लैंड में भी सबसे अधिक जानी नुक़सान कमज़ोर प्रवासी वर्ग का हुआ है जो अपनी देखरेख नही कर सकता। इनमें अधिकतर भारतीय, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी हैं।

 नोबेल प्राइज़ विजेता जोसफ़ स्टिगलाइटज ने लिखा है, “हमने ऐसी अर्थ व्यवस्था तैयार की है जहाँ शॉक आब्ज़ारबर नही है”। अर्थात आघात सहने की क्षमता नही है। चीनी वायरस के दबाव में अमेरिका की पूरी व्यवस्था अस्थिर हो गई जबकि पापी चीन कोई कमज़ोरी नही दिखा रहा। अमेरिका खरबों डॉलर सैनिक सामान पर और शक्तिशाली बनने पर ख़र्चता रहा। अंतरिक्ष से मार करने के हथियार तैयार कर लिए गए। इतनी परमाणु क्षमता है कि दुनिया को कई बार तबाह कर सकते है लेकिन छोटे से वायरस से सुपरपावर मार खा गया।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ही जिनकी अमेरिकी नेतृत्व पर नज़र रहती है वह देख रहें है कि वायरस ने दुनिया के सबसे ताकतवार देश को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। जब लोग न्यूयार्क के अस्थाई क़ब्रिस्तान देखते है या बेरोज़गारों की लम्बी क़तारें देखते है तो उन्हें विश्वास करना मुश्किल होता है कि यही वह देश है जिसने विश्व युद्धों में निर्णायक भूमिका निभाई थी और कुछ साल पहले तक जिसकी दुनिया पर ख़ूब सरदारी थी। पेरिस से विशेषज्ञ डॉमनिक मोयज़ी का कहना है, “अमेरिका का प्रदर्शन बुरा ही नही निहायत बुरा है…उन्होंने ग़लत क़िस्म के युद्ध की तैयारी की। वह 9/11 जैसे युद्ध की तैयारी करते रहे पर उसकी जगह वायरस आ गया”। इस चीनी वायरस ने न केवल अमेरिका का भारी नुक़सान किया बल्कि पश्चिमी सभ्यता की श्रेष्ठता की धारणा को भी भारी चोट पहुँचाई है। आख़िर अमेरिका ही नही इंग्लैंड फ़्रांस,इटली, स्पेन सब 20000 से अधिक हताहत दिखा रहे हैं। पश्चिम के प्रमुख देश मुसीबत के समय अपने लोगों को बचाने में असमर्थ रहे।

अमेरिका का दुर्भाग्य केवल यह नही कि वायरस से बहुत क्षति हुई, उनका बड़ा दुर्भाग्य यह भी है कि मानवता के लिए इस निर्णायक क्षण में उनकी बागडोर डॉनलड ट्रंप जैसे असंतुलित तथा अज्ञानी व्यक्ति के हाथ में हैं। उनका कहना है कि अमेरिका पर हमला हुआ है। अगर ‘हमला’ हुआ है तो क्या कमॉडर इन चीफ़ के तौर पर आप का कर्तव्य नही बनता था कि आप अपने लोगों की हिफ़ाज़त करते?  अमेरिका जो कभी दुनिया के लिए आशा और उत्साह का प्रतीक था, ट्रंप के हाथ आने पर अपने से उलझा,रास्ते से भटका देश बन गया है। वह अपने लोगों को बचाने में सबसे फिसड्डी रहा है। हार्वरड विश्व  विद्यालय के रिकार्डों हॉनसमैन का मानना है कि ‘न केवल कोई वैश्विक नेतृत्व नही है अमेरिका में कोई राष्ट्रीय नेतृत्व नही है’।

यह केवल अमेरिका का ही नही दुनिया का भी दुर्भाग्य है कि जो देश नेतृत्व देता था उसके राष्ट्रपति डॉनलड ट्रंप हैं जिन्हें झूठ बोलने में परेशानी नही, जो बार बार बयान बदलते रहतें हैं और नवम्बर में चुनाव जीतने के सिवाय देश और दुनिया में और कोई दिलचस्पी नही है। जब तक वहाँ सरकार ने पाबंदी लगाई चीन से सीधी उड़ानों में चार लाख लोग प्रवेश कर चुके थे। अब भी  अमेरिकी सरकार में स्पष्टता नही कि महामारी से कैसे निबटना है क्योंकि राष्ट्रपति न केवल प्रांतों के गवर्नरों से बल्कि अपने सलाहकारों से भी झगड़ते रहतें हैं। सलाहकारों को हटाने का ट्रंप का रिकार्ड है। वह तो खुलेआम कुछ प्रदेशों को उनके गवर्नर से ‘लिबरेट’ अर्थात आज़ाद करवाने का आह्वान कर रहे है। व्हाइट हाउस में सलाहकार स्थिति की गम्भीरता बता रहे थे तो राष्ट्रपति उसे नकार रहे थे। फ़रवरी-मार्च में ट्रंप ने सात बार दावा किया था कि उनकी विशेष निगरानी में मरीज़ों की संख्या घट रही है। एक रैली में तो वह वायरस को विपक्ष कि अफ़वाह कह चुके हैं। जब गम्भीरता समझ आई तब तक बहुत लोग संक्रमित या मारे जा चुके थे। तब से यही सिलसिला चलता आ रहा है।

कालमनवीस फ़्रैंक ब्रूनी ने ट्रंप के बयानों को “एक निरुत्साहित भटके हुए हताश आदमी का प्रलाप कहा है”। पर अब तो ट्रंप अपनी सनक और बेअकली की सभी सामाऐं लॉघ गए है और अजीबोग़रीब सुझाव दिया है कि वायरस से बचने के लिए कीटनाशक इंजेक्शन लेना चाहिए और अल्ट्रावायलेट लाइट से कोरोना के रोगियों का इलाज सम्भव है। यह वही कीटनाशक है जिसे भारत में कुछ लोग आत्महत्या के लिए निगलतें हैं! इस सुझाव के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति का लतीफ़ा बन गया पर अमेरिका में कुछ लोगों ने अपने प्रमुख का यह ज़हरीला सुझाव मानते हुए कीटनाशक का सेवन कर भी लिया। ऐसी मूढ़ता के कारण ट्रंप का दुनिया से और दुनिया का ट्रंप से फ़ासला और बढ़ गया है। यह अच्छी स्थिति नही है क्योंकि अमेरिका की गिरावट का मतलब चीन की बढ़त है। चीन कितना सही और कल्याणकारी है यह वायरस के वहाँ जन्म और लगभग दो महीने उस पर पर्दा डालने के प्रयास से पता चलता है। दुनिया न ट्रंप के अमेरिका और न ही शी जिनपिंग के चीन पर विश्वास करती हैं। चीनी वायरस ने विश्व व्यवस्था अस्तव्यस्त कर दी है।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.