विभाजन के लिए कौन ज़िम्मेवार था?, Who Was Responsible For Partition ?

आजकल गढ़े मुर्दे ढूँढने और उखाड़ने का मौसम है। जो 75 वर्ष से पहले घटा उसे लेकर गर्मागर्म बहस हो रही है। देश के विभाजन को लेकर भी बहुत कुछ उछाला जा रहा है। भाजपा द्वारा जारी एक वीडियो में विभाजन के लिए पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और कम्यूनिस्टों को ज़िम्मेवार ठहराया गया है। नेहरू पर आरोप है कि वह मुस्लिम लीग की पाकिस्तान बनाने की माँग के आगे झुक गए। संघ के नेता इन्द्रेश कुमार का कहना है कि अगर महात्मा गांधी ने नेहरू की जगह सरदार पटेल या सुभाष बोस को अपना सहायक चुना होता तो देश का बँटवारा टाला जा सकता था। यह कथन तथ्यों से खिलवाड़ है। एक, विभाजन के समय पटेल गांधीजी के बराबर  सहायक थे और दो, पटेल भी विभाजन को नेहरू की ही तरह अपरिहार्य समझौते थे। गांधी जो अंत तक विभाजन के खिलाफ थे, ने मायूस होकर कहा था, “आज मैं अकेला महसूस कर रहा हूँ। सरदार और जवाहरलाल दोनों समझतें हैं कि मेरा आँकलन ग़लत है और अगर विभाजन को स्वीकार कर लिया जाए तो निश्चित तौर पर शान्ति की स्थापना हो जाएगी…वह शायद सोचते हैं कि बढ़ती उम्र के साथ मैं शिथिल हो गया हूँ”।

दूसरी तरफ़ कांग्रेस है जिसका कहना है कि सावरकर और जिन्ना की भाषा एक जैसी थी। दोनों दो राष्ट्र की विचारधारा के समर्थक थे इसलिए बँटवारे के लिए वह ज़िम्मेवार थे। सच्चाई  है कि विभाजन के लिए अंग्रेज और मुस्लिम लीग दोनों खलनायक थे। इनके चक्रव्यूह में कांग्रेस का नेतृत्व- कृपलानी, नेहरू, पटेल- सब फँस गए और निकल नहीं पाए। अंग्रेजों ने बहुत पहले देश के साम्प्रदायिक विभाजन की नींव रख दी थी। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने  अपनी किताब इंडिया आफटर गांधी में  लिखा है, ‘ यह सच्चाई है कि ब्रिटिश हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच शत्रुता का स्वागत करते थे और उसे बढ़ावा देते थे’। मार्च 1925 में, जब  अंग्रेजों के खिलाफ जन आक्रोष उभरने लगा था, भारत के लिए  सैकट्री ऑफ स्टेट ने वायसराय को लिखा था, ‘ मैरी बड़ी और स्थाई आशा साम्प्रदायिक स्थिति के अनंन्तकाल तक रहने पर टिकी है’। इस एक वाक्य से अंग्रेजों की बदमाशी स्पष्ट होती है कि जिस देश पर वह शासन कर रहे थे उनकी आशा थी कि वहाँ लोग स्थाई तौर पर एक दूसरे से लड़ते रहेंगे। सरकारी भर्ती हो या राजनीति हो, यह बदमाशी स्पष्ट नज़र आती है।  अंग्रेजों  ने साम्प्रदायिक मतदान शुरू करवा दिया जहां विशेष चुनाव क्षेत्रों में मुसलमान केवल मुसलमानों को ही वोट दे सकते थे। ‘डिवाइड ऐंड रूल’ की इस नीति से गोरों को शासन करना आसान हो गया पर साम्प्रदायिक स्थिति बदतर हो गई। और देश के साम्प्रदायिक विभाजन की नींव डाल दी गई।  

अंग्रेजों की अनैतिक और दुष्ट नीति के कारण, रामचंद्र गुहा के अनुसार, ‘1940 के शुरू में ही भारत के इतिहास की धारा में विभाजन लिखा जा चुका था’। अंग्रेज समझने लगे थे कि एक दिन उन्हें भारत छोड़ना पड़ेगा पर वह सम्पूर्ण भारत नहीं छोड़ना चाहते थे इसलिए उन्होंने मुहम्मद अली जिन्ना की महत्वाकांक्षा और मुस्लिम लीग की नीति को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया था। मुस्लिमों को डराया गया कि ‘हिन्दू ब्राह्मण- बनिया राज’ में इस्लाम खतरें में पड़ जाएगा। 1927 में जिस मुस्लिम लीग के मात्र 1300 सदस्य थे, वह 1944 में बढ़ कर केवल बंगाल में ही 500000 हो गए थे। पंजाब में यह संख्या 200000 थी। मुसलमानों को उकसाया गया कि वह एक ‘क़ौम’ की तरह सोचें और वोट करें।  मार्च 1940 में मुस्लिम लीग ने पहली बार पाकिस्तान की विधिवत माँग रख दी। उन्हें  मनाने के कई प्रयासों के बावजूद जिन्ना पाकिस्तान पर अड़े रहे। 10 अप्रैल 1946 को जिन्ना ने मुस्लिम लीग के 400 जन प्रतिनिधियों की बैठक बुलाई और सम्मेलन में ‘आज़ाद पाकिस्तान’ की माँग को दोहराया गया। 29 जुलाई 1946 को मुस्लिम लीग के नेता फिर मिले और चुनौती भरे लहजे में घोषणा की कि, ‘मुस्लिम राष्ट्र के लिए पाकिस्तान हासिल करने के लिए डायरेक्ट एक्शन का समय आगया है…ताकि ब्रिटिश की ग़ुलामी और भविष्य में सम्भावित हिन्दू वर्चस्व से छुटकारा पाया जा सके’। दो सप्ताह के बाद डायरेक्ट एक्शन’ शुरू हो गया और उसी के साथ ही संयुक्त भारत के अंत की शुरुआत हो गई जिसका अंजाम विभाजन के समय 10 लाख लोगों की मौत (कई इतिहासकार 20 लाख कहते हैं) थी।

2जून 1947 को कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य कृपलानी, नेहरू और पटेल, मुस्लिम लीग के जिनना, लियाक़त अली और अकाली प्रतिनिधि बलदेव सिंह ने अंग्रेजों की विभाजन और भारत को आज़ाद करने की योजना को अपनी सहमति दे दी। जून 14 को कांग्रेस कार्यकारिणी ने इस निर्णय को अपनी सहमति दे दी जिस पर कृपलानी ने हस्ताक्षर किए थे और जिस पर नेहरू और पटेल सहमत थे। 18 जुलाई को किंग जार्ज ने भारत विभाजन एक्ट को अपनी सहमति दे दी। इसके बाद सत्ता दो संविधान सभाओं के हाथ आगई, एक जो पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व करती थी और दूसरी बाक़ी भारत का प्रतिनिधित्व करती थी। रियासतों को दोनों में से एक के साथ जाने का विकल्प दिया गया है।  लगभग 500 रियासतों को संक्षिप्त समय में भारत संघ में शामिल कर सरदार पटेल ने वह चमत्कार कर दिखाया जिसके लिए देश उनका सदैव ऋणी रहेगा। 

पर यह ग़लत है, जैसा आजकल कहा जा रहा है, कि गांधी और नेहरू विभाजन के लिए पटेल के विरोध के बावजूद तैयार हो गए थे। राजमोहन गांधी जिन्होंने पटेल की जीवनी लिखी है, ने भी लिखा है, ‘ यह सरासर झूठ है’। नेहरू और पटेल दोनों विभाजन के लिए राज़ी थे, जिन्होंने अंत तक इसे स्वीकार नहीं किया वह महात्मा गांधी थे। इसीलिए जिस दिन देश आज़ाद हुआ था गांधी न केवल जश्न में शामिल नहीं हुए बल्कि दूर कोलकाता में साम्प्रदायिक दंगे रोकने में लगे हुए थे। माऊंटबेटन ने तब कहा था कि ‘जो हमारे 50000 सैनिक पंजाब नें नहीं कर सके वह इस अकेले आदमी ने बंगाल में कर दिया’। अर्थात् वहाँ दंगे रूक गए। राजमोहन गांधी के अनुसार , ‘ अपने मन में पटेल स्पष्ट थे कि न मध्यस्थता और न ही उदारता का विकल्प रहा है।   विभाजन एकमात्र विकल्प था’। 25 अप्रैल 1947 को तो सरदार पटेल ने लिखित में दे दिया था, ‘ अगर मुस्लिम लीग कैबिनेट मिशन के प्लान को नहीं मानती तो…कांग्रेस विभाजन चाहेगी’। वास्तव में कुछ महीने पहले ही सरदार पटेल पाकिस्तान को अलग करने के विचार के क़ायल हो गए थे। उनका मत था कि पाकिस्तान को अलग कर सशक्त केन्द्रीय सरकार क़ायम हो सकेगी और मुस्लिम लीग की बाधा का झंझट ख़त्म हो जाएगा। बाद के घटनाक्रम ने उन्हें सही साबित भी कर दिया। 

10 मई को पटेल ने अपनी बात और स्पष्ट कर दी। नेहरू के साथ बातचीत में उन्होंने कहा, ‘विभाजन के प्लान को स्वीकार करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। इसके नीचे हम भारत का एक खंड ही खोएँगे, दूसरी योजना के अधीन  सारा खोने का ख़तरा है’। सरदार पटेल नेहरू से अधिक व्यवहारिक थे इसलिए दीवार पर लिखे  को स्वीकार कर गए थे। अब समस्या यह थी कि गांधीजी को कौन बताए और कौन तैयार करें ?गांधी नेहरू को उत्तराधिकारी बता चुके थे पर बिल्ली के गले में घंटी बांधने की ज़िम्मेवारी लेने से वह घबरा रहे थे। मई 31,जून 1और 2 को पटेल दिल्ली की भंगी कालोनी में महात्मा गांधी से मिले थे। जून 2 को महात्माजी ने कहा था, “मैं असहमत हूँ पर रास्ते में खड़ा नहीं हूँगा’। पटेल ने गांधी जी को कैसे मनाया? इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। पर पटेल के निकटवर्ती एच.एम पटेल ने बताया था, “वल्लभभाई ने बापू को साफ़ साफ़ कहा था, यह गृहयुद्ध या विभाजन का विकल्प  है। जहां तक गृह युद्ध का सवाल है कोई नहीं जानता कि वह कहाँ से शुरू होगा और कहाँ ख़त्म होगा। यह सही है कि शायद अंत में हिन्दू जीत जाएँ पर इसकी अप्रत्याशित और विशाल क़ीमत अदा करना पड़ सकती है”। गांधी सहमत हो गए।

यह है विभाजन की संक्षिप्त कहानी। गांधी पहले तैयार नहीं थे। कांग्रेस की तरफ़ से आचार्य कृपलानी ने हस्ताक्षर किए थे, नेहरू ने नही। सरदार पटेल इससे सहमत ही नहीं थे बल्कि आजकल की भाषा में ‘प्रो-एक्टिव’ भी थे। इसलिए नेहरू को इसका खलनायक बनाना झूठ है। वैसे भी आज के राजनीतिक चश्मे से 75 साल और उससे पहले की घटनाओं को देखना उचित नहीं है। अतीत में झांकने का काम इतिहासकारों का होना चाहिए, राजनेतोओं का नही। अगर गढ़े मुर्दे उखाड़ते रहे तो कोई नहीं बचेगा। जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई लड़ी, गांधी, नेहरू, पटेल, कृपलानी, सावरकर सब सम्माननीय होने चाहिए और  सब के साँझे होने चाहिए। उनके योगदान का आँकलन संकीर्ण विचारधारा  अनुसार नहीं होना चाहिए। उन्होंने जो कदम उठाए वह उस समय की परिस्थिति के अनुसार थे। जैसे राजनाथ सिंह भी कह चुकें हैं नीयत ख़राब नहीं थी। बदनाम करने का यह कुचक्र बंद होना चाहिए।    ज़माना बदल गया। भारत के पास 550 अरब डालर का विदेशी मुद्रा भंडार है, पाकिस्तान के पास  केवल 13 अरब डालर का ही भंडार है। भारत जी- 20 का अध्यक्षपद समभालने वाला है, पाकिस्तान डूबने से बचने के लिए  हाथ पैर मारता देश है जिसे अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन सबसे ख़तरनाक देशों में से एक कह चुकें हैं। उन्हें मुआवज़ा मिल गया !

जो विभाजन का शोक मना रहे हैं उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि क्या यह निर्णय इतना ग़लत था? पाकिस्तान से तुलना करने पर ही साफ़ हो जाता है कि हम कितने बेहतर रहे। जब पाकिस्तान बना तो जिन्ना ने विलाप किया कि उन्हें Moth-Eaten अर्थात् कीड़ों से खाया पाकिस्तान मिला था। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने जो पाकिस्तान मिला,उस पर दुखी होकर अपनी प्रसिद्ध नज़्म लिखी थी,

                    यह दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर

                     वो इंतज़ार था जिसका ये वो सहर तो नहीं !

और जो अखंड भारत का सपना लेते हैं वह क्या आज के पाकिस्तान और बांग्लादेश को भारत में मिलाने के लिए तैयार हैं यह देखते हुए कि केवल क्षेत्र ही नहीं आएगा पाकिस्तान की 23 करोड़ और बांग्लादेश की 17 करोड़ जनसंख्या भी साथ आएगी?   

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.