क्या पंजाब का अतीत ही पंजाब का भविष्य है ? Will The Past Become Punjab’s Future


यह राहत की बात है कि श्री दरबार साहिब के बाहर हुए जानलेवा हमले में सुखबीर बादल दो कर्मचारियों की मुस्तैदी से बाल बाल बच गए। आतंकी नारायण सिंह चौड़ा को घटनास्थल पर ही क़ाबू कर लिया गया। अब तो सुखबीर बादल अपनी बाक़ी धार्मिक सजा सकुशल पूरी कर चुकें हैं पर यह घटना बहुत से सवाल खड़े कर गई है जो पंजाब के भविष्य से जुड़े हैं। पहला सवाल तो यह है कि यह हो कैसे गया जबकि बताया जाता है कि तीन लेयर की सुरक्षा थी और अमृतसर के पुलिस कमीशनर के अनुसार 175 पुलिस कर्मी सादा कपड़ों में तैनात थे। नारायण सिंह चौड़ा का अतीत पुलिस जानती थी फिर उसे सुखबीर बादल जिनके पास Z+ सुरक्षा है, के पास फटकने भी क्यों दिया गया? इस पर नज़र क्यों नहीं रखी गई? कई और सवाल भी खड़े होतें है। अकाली दल का भविष्य क्या है क्योंकि वह लगातार ज़मीन खो रहें हैं? अकाली दल के कमजोर होने का पंजाब पर क्या प्रभाव पड़ेगा? सुखबीर बादल का भविष्य क्या है? केन्द्र सरकार की भूमिका क्या होनी चाहिए? लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या पंजाब में उग्रवाद फिर सर उठा रहा है? क्या अतीत ही पंजाब का भविष्य है? क्या अतीत की काली छाया फिर वर्तमान पर पड़ रही है? क्योंकि ऐसा पहले भी हो चुका है।

 23 अप्रैल 1983 की सुबह डीआईजी ए.एस. अटवाल स्वर्ण मंदिर में माथा टेक कर मुख्य द्वार की तरफ़ बढ़ रहे थे। निहत्थे अटवाल के हाथ में प्रसाद था। जैसी ही वह संगमरमर की साड़ियाँ चढ़ रहे थे उन पर गोलियों की बौछार कर दी गई। वह वहीं ढेर हो गए। मार्क टल्ली और सतीश जेकब नें अपनी किताब अमृतसर मिसिस गांधीस लास्ट बैटल में दृश्य का वर्णन किया है, “उनके पुलिस बाडीगार्ड जो बाहर इंतज़ार कर रहे थे भाग खड़े हुए… डीआईजी अटवाल का गोलियों से छलनी शव दो घंटे से अधिक सिखों के सबसे पवित्र स्थल के मुख्य द्वार पर पड़ा रहा तब कहीं जाकर ज़िलाधीश दरबार साहिब के अधिकारियों को उनका शव सौंपने के लिए तैयार कर सके”। गुरबचन जगत जो जम्मू कश्मीर के डीजीपी और बीएसएफ़ के डीजी भी रह चुकें हैं, ने इस घटना का ज़िक्र करते लिखा है, “कहतें है कि इतिहास दोहराया जाता है पर पंजाब में तो हम बहुत तेज स्पीड के साथ वहाँ पहुँच रहें हैं”।

 ‘गर्म ख्याली’ अमृतपाल सिंह और सरबजीत सिंह खालसा के लोकसभा के लिए चुना जाना बताता है कि पंजाब में उग्रवाद की जड़ें मौजूद हैं। हम चाहें विदेशी ताक़तों को इसके लिए ज़िम्मेवार ठहराए पर सिख नेतृत्व का इनके बारे अस्पष्ट रवैया भी हालात के लिए कम ज़िम्मेवार नहीं है। अब सुखबीर बादल पर हमले के बाद शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के पदाधिकारियों ने श्री अकाल तख़्त साहिब के जत्थेदार से मिल कर नारायण सिंह चौड़ा को पंथ से निष्कासित करने की माँग की है पर इसी संस्था ने तब आवाज़ क्यों नहीं उठाई जब अटवाल की लगभग इसी जगह हत्या हुई थी? और भी निन्दनीय घटनाएँ हुई हैं जिनके बारे उच्च सिख संस्थाएँ ख़ामोश रहीं। केन्द्रीय मंत्री रवनीत सिंह बिट्टू ने अपने दादा पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या का मामला उठाया है। सरदार बेअंत सिंह की हत्या पंजाब सचिवालय के बाहर बम से की गई। इनके साथ 17 और लोग मारे गए थे। बिटटू का कहना है कि क्योंकि हत्यारे बलवंत सिंह राजोआना को अकाली नेताओं ने गले लगाया था अब उन्हें नारायण सिंह चौड़ा को भी गले लगाना चाहिए। तब अकाली दल ने हत्यारों को स्वर्ण मंदिर में सम्मानित किया और उनकी तस्वीर संग्रहालय में लगाई थी इसलिए चौड़ा की तस्वीर भी वहाँ लगाई जानी चाहिए।

रवनीत सिंह बिटटू ने व्यंग्य किया है पर अतीत में अकाली दल और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की दोगली भूमिका को भी कटघरे में खड़ा कर दिया। इन लोगों ने कभी भी उग्रवाद के खिलाफ स्पष्ट स्टैंड नहीं लिया। अगर वह तब मुखर होते तो शायद पंजाब वह दुखद दिन न देखता। अकाल तख़्त के पूर्व जत्थेदार ज्ञानी किरपाल सिंह और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के पूर्व प्रमुख गुरुचरण सिंह टोहरा पर हमले हो चुकें हैं पर तब हमलावर को तन्खाईया करार देने की माँग नहीं की गई। यह भी अफ़सोस की बात है कि विदेश में जो कुछ सिख देश विरोधी ताक़तों के इशारों पर हरकतें करते रहते हैं उनके बारे उच्च सिख संस्थाऐं चुप रहतीं हैं जबकि जो बाहर हो रहा है और सुखबीर बादल पर हमला एक ही धारा का हिस्सा है। हाल ही में अमृतसर और तरनतारन में घटी कुछ घटनाऐं बहुत चिन्ता पैदा करती हैं क्योंकि यही दो ज़िले 1980 और 1990 के दशक में मिलिटेंसी के केन्द्र रहें हैं। पिछले महीने में पंजाब में छ: और अमृतसर जिलें में चार थानों पर हमले हो चुकें हैं। अजनाला के पुलिस थाने के बाहर आरडीएक्स बरामद हो चुका है। नवीनतम घटना मंगलवार को अमृतसर में इस्लामाबाद पुलिस थाने के बाहर विस्फोट की है। जब पंजाब में उग्रवाद शुरू हुआ था तब भी ऐसी ही घटनाओं से शुरू हुआ था।

 सुखबीर बादल के नेतृत्व में अकाली दल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। 1920 में अकाली दल की स्थापना सिख समुदाय के हितों की रक्षा के लिए हुई थी। अकाली दल ने बहुत उतार चढ़ाव देखे पर जितनी पतली हालत आज है पहले कभी नहीं थी। इससे बुरा क्या हो सकता है कि प्रधान ही ‘तन्खाईया’ करार दिए जा चुकें हैं। यह कहा जाएगा है कि कमजोरी इसलिए आई क्योंकि प्रकाश सिंह बादल ने इसे सिखों की पार्टी से बदल कर सब पंजाबियों की पार्टी बना दिया और इसका शुद्ध सिख स्वरूप ख़त्म कर दिया। मैं इस तर्क से सहमत नहीं हूँ। अकाली दल का पतन इसलिए हुआ क्योंकि सरदार प्रकाश सिंह बादल ने इसे फ़ैमिली पार्टी बना दिया। दल और सम्बंधित सभी संस्थाओं पर परिवार का क़ब्ज़ा हो गया और परिवार के ग़लत कारनामें अकाली दल को भी साथ ले डूबे। परिवार के लिए इससे बुरा क्या हो सकते हैं कि सरदार प्रकाश सिंह बादल को दिया गया ‘फ़ख़्र-ए-क़ौम’ ख़िताब भी वापिस ले लिया गया है।

 सुखबीर बादल द्वारा लिए गए कई निर्णय बहुत महँगे साबित हुए हैं। पर दलदल से निकालने वाला कोई नज़र नहीं आता। सुखबीर खुद अंधकारमय भविष्य की तरफ देख रहें हैं। जो तन्खाईया करार हो चुका है वह अकाली दल का नेतृत्व नहीं कर सकता। 2022 के चुनाव में केवल तीन सीटें मिलना, लोकसभा के चुनाव में अकाली दल के 13 में से 11 उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त होना, उपचुनावों में अकाली दल दवारा उम्मीदवार न उतारना बताता है कि हालत क्या है। एक प्रकार से शीशा टूट चुका है। पर अकाली दल का इस तरह कमजोर होना पंजाब के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। सुनील जाखड़ ने तो अकाल तख़्त से अनुरोध भी  किया है कि अकाली दल को बचाने की कोशिश करें। उनका कहना है कि अकाली दल रेडिकल राजनीति के विरूद्ध सेफ़्टी वैल्व है। कांग्रेस के कई नेता भी कह चुकें हैं कि पंजाब को मज़बूत अकाली दल की ज़रूरत है।  सब की घबराहट है कि अकाली दल द्वारा ख़ाली की जा रही जगह को तेज़ी से अमृतपाल सिंह जैसे उग्रवादी भर रहें हैं।  

विरोधी भी अकाली दल का अंत नहीं चाहते क्योंकि वह पंजाब में एक मॉडरेट फ़ोर्स रही है पर अकाली दल को फिर से खड़ा करने का काम सुखबीर बादल नहीं कर सकते। आगे चल कर क्या होता है यह कहा नहीं जा सकता, पर इस वक़्त तो यह सम्भावना नहीं लगती कि सुखबीर बादल सिखों और पंजाबियो का विश्वास जीत सकते है। अकाली दल को बचाने के लिए नया नेतृत्व चाहिए जिसकी विश्वसनीयता हो और जिसकी बात सब सुनने को तैयार हो। बादल ब्रैंड राजनीति का अंत नज़र आरहा है। पर जो शून्य पैदा हो रहा है वह चिन्ताजनक है क्योंकि पंजाब हर पैमाने पर पिछड़ता जा रहा है। आर्थिक विकास कमजोर है। जीडीपी में और प्रति व्यक्ति आय में हरियाणा बहुत आगे निकल गया है। बेरोज़गारी बहुत है। गैंगस्टर बढ़ गए हैं और उग्रवाद फिर सर उठा रहा है। सीमा पार से हथियारों और ड्रग्स की भारी तस्करी हो रही है। गुरबचन जगत ने लिखा है, “आज जबकि पंजाब और नीचे गिर रहा है हम अपने देश को दूसरी ताकतों, जो हमारी बैरी हैं, के दखल के लिए खुला छोड़ रहें हैं”।

यह बहुत गम्भीर चेतावनी है और सभी सम्बन्धित पक्षों को सावधान हो जाना चाहिए। पंजाब को फिर उग्रवाद में खिसकने से बचाना है। सिख नेतृत्व की ज़िम्मेवारी तो है ही कि वह उग्रवादियों को यहाँ एजेंडा तय न करने दें और पंजाब को सही रास्ते पर रखने में सहयोग दें। पर बहुत ज़िम्मेवारी चंडीगढ़ और दिल्ली की सरकारों की भी है कि वह हालात को और बिगड़ने से रोके। पंजाब सरकार की बहुत ज़िम्मेवारी बनती है। केन्द्र सरकार को भी पंजाब की स्थिति के प्रति अधिक गम्भीरता दिखानी चाहिए। सीमावर्ती राज्य में उग्रवाद के पुनरूत्थान के प्रति दिल्ली में अधिक चिन्ता नज़र नहीं आती नही तो किसानों की माँगों को इस तरह लटकाया न जाता। किसानो ने बुधवार को फिर पंजाब में रेलें रोकीं हैं। समझ नहीं आता वह अपने लोगों को किस बात की सजा दे रहें हैं? रेलें और सड़क रोकने से पंजाब के आर्थिक विकास को और धक्का पहुंच रहा है। पर किसानों को दिल्ली आने से भी क्यों रोका जा रहा है ?जिस दिल्ली में हज़ारों की संख्या में अवैध बांग्लादेशी और रोहिंग्या बस चुकें हैं उस दिल्ली में 101 किसानों का जत्था अपनी बात सुनाने के लिए क्यों नही जा सकता ? यह सरकारी असंवेदनशीलता आगे चल कर बहुत महँगी साबित होगी क्योंकि यह संदेश नीचे तक पहुंच रहा है कि सरकार बात तक सुनने को तैयार नही। ऐसे अविश्वास के वातावरण में उग्रवाद पनपता है।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.