
ज़िन्दगी में बड़ी शिद्दत से निभाओ अपना किरदार
कि पर्दा गिरने के बाद भी तालियाँ बजती रहें
डा. मनमोहन सिंह के निधन पर देश भर से शोक का जो सैलाब उठा है वह बताता है कि देश सौम्य, सादा, ईमानदार,विनम्र और असाधारण प्रतिभा सम्पन्न इस नेता की कितनी इज़्ज़त करता है। वह सचमुच राजनीतिक नेताओं की दुर्लभ प्रजाति के सदस्य थे। सार्वजनिक जीवन में अच्छाई के प्रतीक। उनका सादा जीवन आजकल के तडक भड़क युग में अपवाद लगता है। इस शांत व्यक्ति ने बिना श्रेय लिए ऐसे नीति परिवर्तन किए जिसने देश का पथ बहुत ऊँचा कर दिया। इसी परिवर्तन का लाभ वर्तमान और आने वाली सरकारें उठा रहीं हैं और उठाती रहेंगी। उनके मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने अपनी किताब द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर में बताया है कि जब ‘’मनरेगा’ का श्रेय प्रधानमंत्री को देने का प्रयास किया तो नाराज़ मनमोहन सिंह ने कहा, “मुझे कोई श्रेय नहीं चाहिए”। जब बताया गया कि पार्टी सारा श्रेय राहुल गांधी को देना चाहती है तो मनमोहन का जवाब था, “उन्हें सारा श्रेय लेने दो। मुझे इसकी ज़रूरत नहीं है। मैं अपना काम कर रहा हूँ”।
विडंबना देखिए कि जो व्यक्ति श्रेय नहीं लेना चाहता था को ही देश भर भर कर न केवल श्रद्धांजलि दे रहा है बल्कि दिशा परिवर्तन का भी पूरा श्रेय दे रहा है। वह खुद को ‘‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ ,अर्थात् आकस्मिक प्रधानमंत्री कहते थे। वह तब प्रधानमंत्री बने जब सोनिया गांधी ने मई 2004 में प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया था। सारी पार्टी सोनिया गांधी के साथ थी जो बोझ मनमोहन सिंह को अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल के अंत तक उठाना पड़ा। पर इसके बावजूद वह देश बदल गए जो उनकी अद्भुत योग्यता और संकल्प का ही प्रमाण है। वह देश के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार के शिल्पकार थे, आर्थिक पुनर्जन्म के जनक थे। 1991 में जब वह पीवी नरसिम्हा राव के वित्त मंत्री बने तो देश की हालत बहुत ख़राब थी। पिछली चन्द्र शेखर सरकार ने 46.91 टन सोना विदेश में गिरवी रख दिया था। देश कंगाली के द्वार पर था। यह विद्वान देश को उस गड्ढे से निकाल कर ले गए।
उन्होंने देश को 8 प्रतिशत से अधिक की विकास दर दी, 25 करोड़ लोगों को ग़रीबी की रेखा से निकाला,मिडिल क्लास को स्थापित किया। पर एक कदम के बारे डा. मनमोहन सिंह बिल्कुल संकोची नहीं थे और जिसके लिए उन्होंने न केवल अपनी साख बल्कि अपनी सरकार भी दांव पर लगा दी थी, वह अमेरिका के साथ 2008 का परमाणु समझौता था। पहली बार भारत और अमेरिका ने अतीत के अविश्वास को एक तरफ़ रखते हुए दोस्ती का रास्ता चुना जिस पर नरेन्द्र मोदी भी चल रहें हैं। यह एक सामरिक और कूटनीतिक बदलाव था जिसकी गूंज आज तक सुनाई दे रही है। इस परमाणु समझौते के बारे मनमोहन सिंह अड़ गए थे। वामपंथियों ने समर्थन वापिस लेने की धमकी दी, जो समर्थन बाद में उन्होंने वापिस भी ले लिया। पहली बार राजनीतिक दक्षता दिखाते हुए मनमोहन सिंह ने अमर सिंह के रास्ते मुलायम सिंह यादव और सपा को साध लिया और समझौता पारित करवा दिया। सोनिया गांधी वामदलों को नाराज़ नहीं करना चाहती थीं पर मनमोहन सिंह ने इतिहास की धारा को पहचान लिया और भारत के सुपर पावर बनने का रास्ता खोल दिया।
मनमोहन सिंह पूरी तरह से उदार और प्रजातंत्रवादी थे। 2005 में जब वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भाषण देने गए तो उनकी आर्थिक नीतियों को लेकर वामपंथी छात्रों ने प्रदर्शन किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपना भाषण फ़्रांसीसी दार्शनिक वौलटेयर के इस कथन से शुरू किया “मैं चाहे आपके विचारों से सहमत न भी हूँ, पर मैं अपनी अंतिम साँस तक आपके कहने के अधिकार की रक्षा करूंगा”। प्रधानमंत्री के आदेश पर छात्रों के विरूद्ध कार्यवाही को भी रद्द कर दिया गया। वह लगातार खुली प्रैस कांफ्रेंस करते और असुखद सवालों का जवाब देते। यह परम्परा अब ख़त्म हो चुकी हैं।
उनके कार्यकाल को लेकर कुछ विवाद भी जुड़ें हैं। 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हमला हो गया जिसमें 174 मारे गए थे। भारत सरकार के हाथ पैर फूल गए। सारे देश ने टीवी पर बेबसी का नज़ारा देखा। दुनिया ने भी देखा कि भारत सरकार कोई प्रतिक्रिया नहीं कर सकी। हम केवल पाकिस्तान को आतंकी देश घोषित करने में लगे रहे। माँग उठी थी कि लश्कर-ए-तोयबा के ठिकाने पर हमला किया जाए पर कुछ नही किया गया। शिवशंकर मेनन जो उस वक़्त राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे और जो चाहते थे कि पाकिस्तान को सबक़ सिखाया जाए ने अपनी किताब चौयसेस में बताया है, “यह निष्कर्ष था कि हमला करने से अधिक हमला न करने में फ़ायदा है…असली सफलता थी कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय हमारे साथ था…यह सोच थी कि ताक़त का प्रदर्शन फायदेमंद रहता है, पर अगर आतंकवाद को सरकारी समर्थन प्राप्त हो तो इसका सीमित फ़ायदा होता है …भारत ने मुम्बई हमले के जवाब में जो विकल्प चुना उसे उस समय राष्ट्रीय हित में समझा गया”।
बहुत लोग, मेरे समेत,इस स्पष्टीकरण से असंतुष्ट होंगे क्योंकि कई बार सजा देने की भी ज़रूरत होती है जैसे बालाकोट में दी गई। पाकिस्तान की तरफ़ से छुटपुट आतंकी घटना तो होती रहेंगी पर अब बड़ी घटना करने की हिम्मत नहीं होगी क्योंकि मालूम है कि अब प्रतिकार भी ज़बरदस्त होगा। मनमोहन सिंह की सरकार ने तब कमजोरी का प्रदर्शन किया था। बड़ी शिकायत रही कि उन्होंने रिमोट कंट्रोल सोनिया गांधी के हाथ पकड़ा दिया था। सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली एनएसी सुपर सरकार की तरह काम करने लगी। सितम्बर 2013 में हमने वह शर्मनाक दृश्य भी देखा जब राहुल गांधी ने पत्रकार सम्मेलन में अपनी ही सरकार का अध्यादेश फाड़ डाला। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तब वाशिंगटन में अमरीकी राष्ट्रपति को मिलने जाने वाले थे। राहुल ने हद दर्जे की अपरिपक्वता दिखाई पर डाक्टर साहिब भी चुपचाप यह अनादर बर्दाश्त कर गए। अपनी दूसरी अवधि में उन पर दोष लगते रहे कि वह साथियों की मनमानियों और भ्रष्टाचार को बर्दाश्त कर रहे हैं। संजय बारू लिखतें है, “कांग्रेस पार्टी में उनका आधार नहीं था, जिसे वह जानते थे”। मंत्रिमंडल बैठकों में वह ख़ामोश रहने लगे। उन्हें ‘मौन सिंह’ कहा जाने लगा।
यूपीए-2 की कमजोरियों ने अन्ना हज़ारे के आंदोलन का रास्ता साफ़ कर दिया जिसका फ़ायदा भाजपा उठा ले गई। इन कुछ कमज़ोरियों के बावजूद मनमोहन सिंह का योगदान इतना विशाल है कि उनके निधन पर सारा देश भावुक है। उन्होंने देश को सपना देखने के लिए तैयार किया, वैश्विक मंच पर उभरने की नींव रखी। बराक ओबामा ने कहा है कि “भारत के विकास और उत्थान के बड़े हिस्से का योगदान डा. मनमोहन सिंह को जाता है’। दलदल में रहते हुए भी वह निष्कलंक थे। उनके सूचना और प्रसारण मंत्री रहे मनीष तिवारी ने बताया है कि जब मीडिया बहुत परेशान कर रहा था तो उन्होंने प्रधानमंत्री से पूछा कि हमारा रवैया क्या होना चाहिए? जवाब था कि “हमारा प्रयास समझाने बुझाने का होना चाहिए न कि दबाने का”।
सार्वजनिक जीवन में भी वह शालीनता और विनम्रता के प्रतीक थे। राज्य सभा में उनके और सुषमा स्वराज के बीच आदान प्रदान मशहूर है जब सुषमा स्वराज के कटाक्ष के जवाब में मनमोहन सिंह ने यह शे’र पढ़ कर उन्हें निरुत्तर कर दिया था,
माना की तेरी दीद के काबिल नहीं हूँ मैं,
तू मेरा शौक़ देख, तू मेरा इंतज़ार देख
सुषमाजी भी मुस्करा दीं। आजकल के टकराव के माहौल में यह सब तो असामान्य लगता है। हम देख कर हटें हैं कि किस प्रकार नई संसद के मकर द्वार पर सांसदों के बीच हाथापाई की नौबत आगई थी। संसद में आजकल स्वस्थ बहस नहीं होती। मनमोहन सिंह जैसे लोग तो अपवाद लगतें हैं। यह ‘मन मौन’ सिंह बता गए कि राजनीति में रहते हुए भी शराफ़त छोड़ने की ज़रूरत नहीं है। जो विरोधी है वह दुश्मन नहीं है। वह राजनीति में रहते हुए भी राजनीति से उपर थे, अलग थे। देश आज ऐसे लोगों के लिए तड़प रहा है। अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में उन्होंने कहा था कि वर्तमान से इतिहास उनके प्रति अधिक उदार रहेगा। इतिहास आपके प्रति बहुत उदार रहेगा, डाक्टर साहिब ! आपको इस समय के भारत के सर्वश्रेष्ठ पुत्रों में गिना जाएगा। आपकी ईमानदारी, बुद्धिमत्ता और सादगी दूसरों के लिए मिसाल बनेगी।
अफ़सोस है कि उनके अंतिम संस्कार को लेकर अशोभनीय विवाद शुरू हो गया है। उनका राजकीय सम्मान से दिल्ली के निगमबोध घाट पर संस्कार किया गया। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री सब मौजूद थे। पर आजतक पी वी नरसिम्हा राव को छोड़ कर, हर पूर्व प्रधानमंत्री का संस्कार ‘राष्ट्रीय स्मृति स्थल’ पर किया गया है। इसी सरकार नें 2012 में इन्द्र कुमार गुजराल और 2018 में अटल बिहारी वाजपेयी का अंतिम संस्कार विशेष ‘स्थल’ पर करवाया था। मनमोहन सिंह को इस सम्मान से वंचित क्यों रखा गया? सरकार लंगड़े स्पष्टीकरण दे रही है कि ‘व्यवस्था सम्बंधी चुनौतियाँ थी’।यह स्पष्टीकरण गले से नहीं उतरता क्योंकि जब सरकार चाहे वह कुछ भी कर सकती है। कांग्रेस ने यह शिकायत कर कि ‘सिख’ प्रधानमंत्री को पूरी इज़्ज़त नहीं दी गई मामले को तुच्छ साम्प्रदायिक बना दिया। क्या डा. मनमोहन सिंह की इज़्ज़त केवल इस लिए होनी चाहिए कि वह ‘सिख प्रधानमंत्री’ थे, इसलिए नहीं कि अपने देश के प्रति उनका अपार योगदान था? कांग्रेस का अपना किरदार शर्मनाक रहा है जब पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिम्हा राव की शव यात्रा को कांग्रेस मुख्यालय में गेट बंद कर अंदर आने नहीं दिया गया था।
डा. मनमोहन सिंह नें कभी भी अपने लिए कुछ विशेष नहीं माँगा। अगर उनसे पूछा जाता तो वह अपने लिए कोई विशेष ‘स्थल’ नहीं चाहते। कांग्रेस ज़रूरत से अधिक प्रोटेस्ट कर रही है। उनके लिए किसी विशेष ‘स्थल’ की ज़रूरत नहीं है, उनकी याद में दिल्ली में विश्व स्तरीय इकनॉमिकस या मैनेजमेंट या एडमिनसट्रेश्न का इंस्टीट्यूट खोला जाना चाहिए जहां देश- विदेश से छात्र आकर उच्च शिक्षा ग्रहण कर सकें। और उनके जीवन से प्रेरणा ले सकें। यह उन्हें सही श्रद्धांजलि होगी।