इनके साथ, इनके बिना, इनके बावजूद, We Have To Walk Alone

आपरेशन सिंदूर से हमने पाकिस्तान को बड़ा सबक़ सिखाया है कि आतंकवाद की क़ीमत चुकानी पड़ेगी। रहीम यार ख़ान एयरबेस, सरगोधा तथा नूर खान एयरबेस पर बमबारी के बाद पाकिस्तान को समझ आगई कि मामला गम्भीर है। पर इन चार दिन का संक्षिप्त युद्ध हमें भी कई सबक़ सिखा गया है। एक, कि पाकिस्तान बाज़ नहीं आएगा, ऐसा टकराव फिर हो सकता है। इसीलिए आपरेशन सिंदूर भी स्थगित किया गया है, रोका नहीं गया। दूसरा, संकट की इस घड़ी में कोई बड़ा -छोटा देश, इज़राइल को छोड़ कर, हमारे साथ खड़ा नहीं था। एक भी नहीं। यह नई कूटनीतिक स्थिति है। हमें संयम का लेक्चर दिया गया और किसी ने भी पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद की स्पष्ट निंदा नहीं की। दुनिया ने आतंकवाद के मुजरिम और पीड़ित दोनों को एक ही तराज़ू में तोलना शुरू कर दिया था। इसीलिए अब दुनिया के प्रमुख देशों में विशेष प्रतिनिधि मंडल भेजने की ज़रूरत बन गई।

एक और बड़ा सबक़ है कि अंतरराष्ट्रीय सम्बंधों में कोई ‘फ्रैंड’ नहीं होता, केवल राष्ट्रीय हित होतें हैं। जिन देशों का प्रधानमंत्री मोदी दौरा करते रहे, जिनके नेता उन्हें ‘माई फ़्रेंड’ कह कर सम्बोधित करते रहे, एक ने भी खुले आम पाकिस्तान की आतंकी हरकत की निंदा नहीं की। जिसे ‘पर्सनल केमिस्ट्री’, अर्थात्त व्यक्तिगत सम्बन्ध कहा जाता है, वह शी जिनपिंग,डानल्ड ट्रम्प, नवाज़ शरीफ़ और यहाँ तक कि व्लादिमीर पुतिन के साथ भी असफल रही। सब ‘वॉर’ का रोना रोते रहे। न ‘ब्रिक्स’ काम आया और न ही ‘क्वाड’। हमारे पक्ष में एक ट्वीट तक नहीं किया गया। यह खामोशी बहुत चुभी है। जबकि चीन और तुर्की ने खुले आम पाकिस्तान की मदद की है। क्वाड के बारे अमेरिका और दूसरे देशों की नीति स्पष्ट है। वह हमारा इस्तेमाल चीन के खिलाफ इंडो-पैसिफ़िक में करना चाहते है हमारी लड़ाई लड़ने का उनका कोई इरादा नहीं है। क्वाड के बारे दोबारा सोचने की ज़रूरत है। हमारा काम इंडो-पैसिफ़िक को दूसरों के लिए सुरक्षित करना नहीं है।

 कोई भी देश किसी और का उभार बर्दाश्त नहीं कर सकता। ईर्ष्या केवल इंसानों के बीच ही नहीं देशों के बीच भी होती है। नवीनतम समाचार है कि हम जापान को पीछे छोड़ कर चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बन गए है। धीमी होती विश्व अर्थव्यवस्था में भारत चमकता सितारा है। लेकिन हमें अगर विकसित अर्थव्यवस्था बनना है तो विकास की दर को और ऊँचा करना है जो कई देश नहीं चाहेंगे। चीन चाहता है कि हम पाकिस्तान के साथ फंसे रहें। हैरानी है कि इस पंक्ति में अब अमेरिका भी आ खड़ा हो गया है। डानल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद दुनिया बदल गई। ट्रम्प का बार बार एप्पल के सीईओ को भारत में निवेश के खिलाफ चेतावनी देना बता रहा है कि भारत और अमेरिका के रिश्ते कैसे नीचे की तरफ़ सफ़र कर रहें है। बड़े देशों का आपरेशन सिंदूर के बारे क्यों रवैया रहा है, इस पर चर्चा की ज़रूरत है:

अमेरिका: हमारी विदेश नीति को सबसे बड़ा धक्का अमेरिकी राष्ट्रपति डानल्ड ट्रम्प से मिला है। उनके बदले रवैये से भारत में न केवल निराशा बल्कि ग़ुस्सा है। पहलगाम के आतंकी हमले के प्रति उनका रवैया न केवल असंवेदनशील बल्कि अनैतिक भी है। कभी अमेरिका का कहना था कि ‘अमेरिका और भारत की साझेदारी 21वीं शताब्दी को परिभाषित करेगी’। पर अब ट्रम्प भारत को अमेरिका की जगह पाकिस्तान के साथ जोड़ रहें है। जो भारत में ट्रम्प की जीत के लिए हवन कर रहे थे वह भी पछता रहे होंगे! जिस विश्व व्यवस्था में भारत और अमेरिका की साझेदारी की कल्पना की गई थी, वह विश्व व्यवस्था अब रही नही।  भारत और पाकिस्तान को बराबर रख ट्रम्प ने हमारे साथ रिश्ता बिगाड़ लिया है। पर ऐसे अमेरिका के बेधड़क राष्ट्रपति हैं। जब से वह बने हैं वह कैनेडा, यूके, योरूप, दक्षिण अफ़्रीका, जापान आदि के साथ रिश्ता बिगाड़ चुकें हैं। अब हमारी बारी है। 

 पहलगाम का हमला तब हुआ जब अमेरिका के उपराष्ट्रपति वैंस भारत में थे। अर्थात् उन्हें सब कुछ पता है पर उनका कहना था कि ‘जहां तक हो सके पाकिस्तान को भारत के साथ सहयोग करना चाहिए’। निन्दा का एक शब्द नहीं। कारगिल के बाद क्लिंटन ने नवाज़ शरीफ़ को बुला कर बुरी डाँट लगाई थी पर अब ‘दोनों देशों’ को संयम रखने को कहा जा रहा है। पहलगाम में हमारी जो जानें गईं उनका कोई ज़िक्र नहीं। इस हमले के तत्काल बाद अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा पाकिस्तान को जारी 2.2 अरब डालर की मदद अमेरिका की अनुमति के बिना न मिलती। भारत आपत्ति करता रहा पर कि यह पैसा आतंकवाद को बढ़ावा देने के काम आएगा पर ट्रम्प के अमेरिका ने एक नहीं सुनी। रिचर्ड बॉलडविन जो स्विट्ज़रलैंड के आईएमडी बिसनेस स्कूल में प्रोफ़ेसर हैं का कहना है कि “यह सोचना कि अमेरिका भारत को मोटे तौर पर समर्थन देगा, अब कम विश्वसनीय लगता है। डानल्ड ट्रम्प के नीचे अमेरिका की विश्वसनीय साथी बनने में कम दिलचस्पी है”। 

 हमारे लिए यह नई हक़ीक़त है। अपने दबंग और लापरवाह रवैये से ट्रम्प ने  प्रधानमंत्री मोदी का राजनीतिक और व्यक्तिगत नुक़सान किया है क्योंकि मोदी समर्थकों को यह संदेश गया है कि अमरीकी दबाव में युद्ध विराम किया गया। पर एक तरह से डानल्ड ट्रम्प ने भारत का भला भी किया है कि अब हम किसी और पर भरोसा नहीं कर सकते। लेखक और विशेषज्ञ  ब्रह्मा चेलानी ने लिखा है, ‘विदेश नीति निजी हित पर आधारित होनी चाहिए, मिथ्या पर नही’। आगे फिर हमारी कूटनीति की परीक्षा होगी क्योंकि विश्व बैंक के सामने पाकिस्तान को 20 अरब डॉलर की मदद का प्रस्ताव है। दूसरा मामला एफएटीएफ के सामने पाकिस्तान को आतंकवाद समर्थक सूची में डालने का है। दोनों अमेरिका के रवैये पर निर्भर करेंगे। भारत की नज़र रहेगी। 

चीन: अमेरिका के बदले रवैये पर हैरानी है पर चीन का रूख तो बहुत पहले से स्पष्ट है। रक्षा मंत्री रहतें जार्ज फ़र्नाडिस ने 1998 में चीन को दुष्मन नमबर 1 कहा था। हमारे भरसक प्रयास के बावजूद स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया। हाल ही में हमने चीन को याद करवाया है कि रिश्ते, ‘आपसी विश्वास, आपसी सम्मान और आपसी संवेदनशीलता’ पर आधारित होने चाहिए। पर चीन पर इसका कुछ असर हुआ हो वह नज़र नहीं आता। पाकिस्तान के साथ हमारे नवीनतम टकराव के दौरान वह पूरी तरह से उस देश के साथ था जिसके साथ उनकी दोस्ती ‘हिमालय से ऊँची और समुद्र से गहरी है’। अगर इस नाटकीय भाषा की अनदेखी भी कर ली जाए इस टकराव दौरान चीन ने पाकिस्तान को एयर डिफ़ेंस सैटेलाइट सहायता दी ताकि हमारी एयर तैनाती की जानकारी दी गई। इस सैटेलाइट इमेजरी के बल पर पाकिस्तान ने हम पर हमला किया। चीन द्वारा सप्लाई किए जेट और एयर- टू -एयर मिसाइल सिस्टम पाकिस्तान की सेना का आधार है। 

चीन का असली इरादा क्या है? क्या एक दिन भारत को दो मोर्चों पर लड़ाई लड़नी पड़ेगी ? राय विभाजित है। प्रकाश नंदा जो युरएशियन टाईम्स के मुख्य सम्पादक हैं का कहना है कि “चीन चाहता है कि उसे एक उदार और हितैषी महाशक्ति की तरह देखा जाए और वह भारत के खिलाफ दो मोर्चों के युद्ध में शामिल होने का अनिच्छुक होगा क्योंकि इसकी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है”। पर गलवान का टकराव और लद्दाख तथा अरूणाचल प्रदेश के प्रति उनका रवैया बताता है कि वह हमें चैन से बैठने नहीं देंगे। वह भारत और पाकिस्तान के बीच पूरा युद्ध शायद नहीं चाहेंगे क्योंकि तब अमेरिका के दखल की सम्भावना बन जाती है। चीन ने देखा होगा कि किस तरह पाकिस्तान के नेता अमेरिका का शुक्रिया अदा करने में लगें थे। यह पसंद नहीं किया गया होगा। चीन भारत के साथ अपना व्यापार भी ख़तरे में नहीं डालना चाहेगा। चीन की नीति लगती है कि भारत और पाकिस्तान के बीच सीमित टकराव चलता रहे ताकि भारत का ध्यान अपने विकास से भटक जाए और पाकिस्तान चीन की दानशीलता पर निर्भर रहे। 

रूस:रूस ने शुरू में आतंकवाद की स्पष्ट आलोचना की पर तत्काल स्टैंड बदल कर संयम रखने और ‘शांतिमय समाधान’ की वकालत करने लगे। रूस का व्यवहार अजीब रहा है। क्या इसका कारण है कि हम अमेरिका के नज़दीक जा रहें हैं या हम यूक्रेन युद्ध में तटस्थ रहे हैं? मास्को जा कर प्रधानमंत्री मोदी ने पुतिन को नसीहत दी थी कि ‘यह युद्ध का युग नहीं है’। इसे पसंद नहीं किया गया होगा। क्या इसका जवाब दिया जा रहा है? रूस आजकल चीन के बहुत निकट है। पुतिन ने नरेन्द्र मोदी को फ़ोन कर यह ज़रूर कहा कि आतंकवाद के खिलाफ रूस का पूरा समर्थन है पर उल्लेखनीय है कि रूस के राष्ट्रपति का फ़ोन 5 मई को आया जबकि पहलगाम की घटना 22 अप्रेल की है। 13 दिन अपना फ़ोन लटका कर क्या पुतिन संदेश दे रहे थे कि उनके साथ रिश्ते को यकीनन नहीं समझना चाहिए? मई दिवस परेड में जूनियर मंत्री भेज कर हमने भी नाखुशी प्रकट कर दी थी। रूस चाहे पहले जैसी महाशक्ति नहीं रही पर उनका साथ हमारे लिए ज़रूरी है क्योंकि अमेरिका अविश्वसनीय है और चीन वैरी है। रूस को भी भारत की ज़रूरत है क्योंकि हम तेल खरीदतें है और उनके रक्षा निर्यात का बड़ा हिस्सा हमें आता है। इस साल राष्ट्रपति पुतिन भारत यात्रा पर आ रहें है। रिश्ते की कुछ मरम्मत तब हो सकती है। 
एकला चलो रे: निष्कर्ष है कि बदले विश्व परिदृश्य में हम अकेले हैं। कोई भी हमारा उभार पचा नहीं रहा। ट्रम्प पाकिस्तान को पसंद न भी करते हों पर किसी कारण उन्होंने भारत विरोधी रवैया अपना लिया है। चीन तो वैसे ही शुभचिंतक नहीं है। चीन और पाकिस्तान की नैट वर्किंग भी हक़ीक़त है। रूस की हम में दिलचस्पी कम हो रही है ठीक जैसे रूस हमारी प्राथमिकता नहीं रहा। हम किसी पर निर्भर नहीं रह सकते। हमें किसी के अनुमोदन की भी ज़रूरत नही। कोई साथ है तो ठीक है, नहीं है तो भी ठीक है। तबे एकला चलो रे! अपना रास्ता हमने खुद बनाना है। ठीक जैसे हमने आपरेशन सिंदूर के दौरान बनाया है।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.